सम्मान की असली पहचान
दोपहर का समय था। गर्मी अपने चरम पर थी। शहर की सीमा पर एक चेक पोस्ट लगा था, जहाँ हर आने-जाने वाले की जांच हो रही थी। पुलिसवाले गर्मी से चिड़चिड़े थे, ट्रैफिक लंबा होता जा रहा था। इसी भीड़ में एक बुजुर्ग व्यक्ति सफेद धोती-कुर्ता पहने, कंधे पर पुराना बैग लटकाए पैदल चलते हुए चेक पोस्ट के पास पहुँचे। उनके चेहरे पर झुर्रियां थीं, चाल धीमी थी, लेकिन आँखों में गहराई थी।
पुलिसकर्मी सुभाष ने उन्हें देखकर तेज आवाज में कहा, “अबे ओ बाबा, इधर क्यों चले आ रहे हो? ये कोई भीख मांगने की जगह नहीं है।”
बुजुर्ग ने विनम्रता से कहा, “बेटा, बस यहाँ से निकल रहा था। कुछ पूछना था।”
सुभाष ने झुंझलाकर कहा, “तेरा पूछने का टाइम नहीं है। निकल यहाँ से!”
बुजुर्ग ने हाथ जोड़कर माफी मांगी। भीड़ इकट्ठा होने लगी। कुछ लोग मुस्कुरा रहे थे, कुछ वीडियो बना रहे थे। सुभाष का गुस्सा बढ़ गया। उसने बुजुर्ग के गाल पर थप्पड़ मार दिया।
बुजुर्ग का चेहरा थोड़ा डगमगाया, लेकिन उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। ना गुस्सा, ना आंसू। बस धीरे से जेब से एक पुराना मोबाइल निकाला, कान पर लगाया और बोले, “लोकेशन वही है। तुरंत भेजिए।”
भीड़ में हलचल थी। पुलिस वाले सोच रहे थे, ये कौन है? तभी दूर से सेना की गाड़ियों के सायरन सुनाई देने लगे। तीन मिलिट्री गाड़ियाँ धूल उड़ाती हुई चेक पोस्ट पर रुकीं। लेफ्टिनेंट कर्नल, मेजर और दो कैप्टन उतरे। उन्होंने बुजुर्ग को देखकर सैल्यूट किया—“जय हिंद, जनरल राठौड़ सर!”
पूरा चेक पोस्ट स्तब्ध रह गया। जिस बुजुर्ग को अभी तक भिखारी या पागल समझा जा रहा था, वे देश के वीर ब्रिगेडियर सूर्यवीर राठौड़ थे—कारगिल युद्ध के हीरो, दो बार राष्ट्रपति से सम्मानित।
कर्नल ने सुभाष से पूछा, “क्या आपने देश के सबसे बहादुर ब्रिगेडियर को थप्पड़ मारा?”
सुभाष कांपते हुए बोला, “सर, मेरी गलती थी। मैं पहचान नहीं पाया।”
ब्रिगेडियर साहब ने कहा, “गलती पहचान की नहीं, सम्मान की थी। यही हमारे समाज की समस्या है, हम सामने वाले का चेहरा देखते हैं, उसका इतिहास नहीं।”
अब सबका परिचय सामने आ चुका था। भीड़ में एक महिला आई, बोली, “आपने युद्ध में मेरे बेटे को बचाया था, वो आज सेना में है आपकी वजह से।”
भीड़ अब हाथ जोड़ने लगी। कोई सेल्फी नहीं ले रहा था, सबकी आँखों में शर्म और सम्मान था।
ब्रिगेडियर साहब बोले, “मैं सजा दिलाने नहीं आया था। बस यह दिखाना था कि ताकत आवाज में नहीं, संयम में होती है।”
एसपी साहब मौके पर पहुँचे, उन्होंने राठौड़ साहब के पैर छुए और माफी मांगी। सुभाष को निलंबित कर दिया गया और सभी पुलिसकर्मियों को सम्मान और नागरिक व्यवहार पर विशेष प्रशिक्षण देने का आदेश दिया गया।
अब पूरे शहर में बदलाव आने लगा। टाउन हॉल में जनसम्मान समारोह हुआ। ब्रिगेडियर साहब को उसी साधारण धोती-कुर्ता में बुलाया गया।
उन्होंने कहा, “सम्मान मांगने से नहीं मिलता। देने में हम क्यों कंजूसी करते हैं? असली पहचान वर्दी से नहीं, चरित्र से होती है। अगर आप बिना वर्दी के भी इज्जत पाएं, वही असली जीत है।”
सुभाष ने हाथ जोड़कर माफी मांगी। ब्रिगेडियर साहब बोले, “अगर आज तुम सच्चे दिल से शर्मिंदा हो, तो तुम पहले से बेहतर इंसान बन चुके हो।”
समारोह खत्म हुआ, लेकिन शहर में एक नई सोच की शुरुआत हो गई। अब हर चेक पोस्ट पर सिर्फ गाड़ियों की नहीं, व्यवहार की भी चेकिंग होती थी। ब्रिगेडियर साहब अब भी उसी इलाके में रहते हैं—साधारण, शांत, लेकिन सबकी नजरों में गौरवपूर्ण।
अंत में, स्कूल के बच्चों को प्रेरित करते हुए ब्रिगेडियर साहब कहते हैं, “कभी किसी इंसान को उसके कपड़ों या उम्र से मत आंको। हर इंसान अपने आप में एक कहानी है, एक इतिहास है, जो शायद आपसे भी बड़ा हो। सम्मान देने से दिल बड़ा होता है।”
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