हवाई जहाज की खिड़की से बाहर झांकते हुए मंत्री जी ने देखा, बादलों का एक समुद्र उनके नीचे फैला हुआ था। दिल्ली से उड़ान भरने के बाद लगभग 14 घंटे हो चुके थे। लंबी यात्रा, थकान और विदेश जाने की चिंता उनके चेहरे पर साफ झलक रही थी। लेकिन आंखों में एक अलग चमक थी। यह चमक केवल एक यात्री की नहीं, बल्कि एक ऐसे प्रतिनिधि की थी जो अपनी धरती और अपनी भाषा का प्रतिनिधित्व करने जा रहा था।

एयर होस्टेस अंग्रेज़ी में घोषणा कर रही थी और बगल में बैठे यात्री आपस में बातें कर रहे थे। मंत्री जी उनकी बातें आधी-अधूरी ही समझ पाए, लेकिन उन्होंने खुद से कहा—”मुझे अपनी भाषा में ही बोलना है। चाहे कोई समझे या न समझे, मैं वही रहूंगा जो मैं हूं।”

न्यूयॉर्क एयरपोर्ट पर उतरते ही उनका स्वागत हुआ। भारतीय दूतावास के अधिकारी खड़े थे। लेकिन मीडिया वालों के बीच अंग्रेज़ी का शोर इतना था कि जब मंत्री जी ने हिंदी में उत्तर दिया, तो कुछ पत्रकार हंस पड़े। एक ने कहा, “Why doesn’t he speak in English? This is America!”
मंत्री जी ने सीधे उसकी आंखों में देखा और बोले, “क्योंकि मैं भारत से आया हूं और मेरी पहचान हिंदी से है।”
उनके शब्दों ने माहौल को एक पल के लिए खामोश कर दिया।

न्यूयॉर्क का मौसम ठंडा था। सर्द हवा चेहरे को चीरती हुई निकल रही थी। मंत्री जी ने दूतावास की औपचारिक मीटिंग पूरी कर ली थी और अकेले ही शहर घूमने का मन बना लिया। उन्होंने सुरक्षा गार्ड से कहा, “मैं यहां की असली ज़िंदगी देखना चाहता हूं, गाड़ियों और प्रोटोकॉल से नहीं, बल्कि आम जनता की तरह।”
गार्ड ने हिचकिचाते हुए कहा, “सर, मेट्रो में भीड़ रहती है और लोग…”
मंत्री जी ने दृढ़ता से कहा, “मैं अपने देश में मंत्री हूं, लेकिन इंसान तो वहीं हूं और इंसान को लोगों के बीच ही जाना चाहिए।”

न्यूयॉर्क की मेट्रो ट्रेन हमेशा की तरह शोर-गुल और हलचल से भरी हुई थी। लोग अपने-अपने मोबाइल में डूबे थे। कोई अखबार पढ़ रहा था, कोई हेडफोन लगाए संगीत सुन रहा था। मंत्री जी ने टिकट लिया और ट्रेन में चढ़े। उनकी पोशाक साफ-सुथरी भारतीय थी—कुर्ता-पायजामा और ऊपर नेहरू जैकेट। उनके माथे पर हल्का सा तिलक भी था।