सच्चाई की घड़ी: नागपुर के होटल में एक 12 साल के बच्चे की कहानी
नागपुर के एक छोटे से होटल ‘सुदर्शन इन’ में हर दिन की तरह काम चल रहा था। होटल के मालिक मोहन भालेराव उम्र 48, अपनी किस्मत को कोसते हुए भी मुस्कुराते रहते थे, क्योंकि यही होटल उनकी आखिरी उम्मीद था। इसी होटल में काम करता था 12 साल का नायन पाटिल, दुबला-पतला, शांत और हमेशा थोड़ा सहमा हुआ सा बच्चा। नायन कम बोलता था, लेकिन उसके हाथों में एक अनोखा हुनर था — टूटी चीजें उसके छूते ही जैसे खुद-ब-खुद ठीक होने लगतीं। होटल के मेहमान अक्सर उसे “मशीनों का डॉक्टर” कहकर बुलाते थे।
नायन की जिंदगी में एक गहरा दर्द था, जो उसकी आंखों में साफ झलकता था। वह कम बोलता, लेकिन काम में पूरी तरह डूबा रहता। एक दिन शाम को होटल में एक चमचमाती गाड़ी आकर रुकी। उसमें से उतरे शहर के मशहूर बिजनेसमैन सुरेश गावली। रिसेप्शन पर मोहन ने उनका स्वागत किया। सुरेश ने होटल की सादगी देखी, पर मोहन के आत्मविश्वास और नायन की मेहनत से प्रभावित हुए। मोहन ने नायन से कमरा 204 तैयार करने को कहा। नायन बोला, “जी मालिक, बस पानी रख देता हूं।” सुरेश ने उसकी तारीफ की।

तभी, जब नायन कमरे की ओर जा रहा था, उसकी नजर सुरेश की कलाई पर पड़ी — एक महंगी विदेशी घड़ी। नायन कुछ सेकंड देखता रहा और फिर बिना डरे, धीमे लेकिन साफ आवाज में बोला, “सर, आपकी घड़ी असली नहीं है।” पूरा रिसेप्शन सन्न रह गया। सुरेश रुक गए, गुस्से और हैरानी के बीच। “क्या कहा तुमने?” नायन ने सिर झुकाकर कहा, “सर, यह घड़ी जितनी कीमत की आप बता रहे हैं, उतनी नहीं है।”
मोहन ने तुरंत डांटा, लेकिन सुरेश ने मोहन को रोक दिया, “नहीं, मैं सुनना चाहता हूं। बच्चा क्यों सोचता है कि मेरी घड़ी नकली है?” नायन ने डरते-डरते बताया, “इसकी बैक की आवाज असली मशीन जैसी नहीं है, और सेकंड की टिक भी थोड़ी अटकी हुई है।”
सुरेश ने अपनी घड़ी उतारी और नायन को दी। नायन ने घड़ी को सुना और बोला, “सर, यह घड़ी किसी और के हाथ में थी और इसे जल्दबाजी में खोला गया है, इसकी एक स्क्रू नहीं है।” सुरेश का चेहरा बदल गया। मोहन घबरा गया, लेकिन सुरेश ने गहरी आवाज में कहा, “इसे बहुत कुछ पता है।”
सुरेश ने पूछा, “तुम्हें इतनी गहराई से कैसे पता चला?” नायन चुप रहा। उसकी उंगलियां घड़ी को पकड़ते हुए कांप रही थीं। उसने बस इतना कहा, “मैंने एक बार ऐसी ही घड़ी खोली थी…” और उसकी आवाज टूट गई। मोहन ने देखा, नायन की आंखें नम थीं।
सुरेश ने धीरे से पूछा, “किसकी घड़ी थी वो?” नायन के शब्द अटक गए। मोहन ने उसके कंधे पर हाथ रखा, “बेटा, बोलने का मन ना हो तो मत बोल।” सुरेश बोले, “मोहन, मैं कल दोपहर फिर आऊंगा। इस बच्चे से अकेले दो मिनट बात करनी है।”
रात को मोहन सो नहीं पाया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि नायन ने घड़ी की सच्चाई कैसे पहचान ली। अगली सुबह होटल में रोज़ की हलचल थी, लेकिन नायन कुछ खोया-खोया सा था। उसे पता था कि सुरेश आज फिर आएंगे।
दोपहर को सुरेश फिर आए, हाथ में वही घड़ी लिए। उन्होंने मोहन से कहा, “मैं इसे डराने नहीं आया, बस समझना चाहता हूं कि इसके भीतर क्या है।” सुरेश स्टोर रूम में पहुंचे, जहां नायन टूलबॉक्स साफ कर रहा था। सुरेश ने घड़ी मेज पर रखी, “कल तुमने कहा था यह असली नहीं है, कैसे जाना?”
नायन ने कहा, “चीजें आवाज से खुद बता देती हैं। इस घड़ी का रिंग हल्का है, असली वाली जैसी गूंज नहीं देता।” सुरेश ने पूछा, “और वो स्क्रू?” नायन की उंगलियां कांप गईं, “ऐसा स्क्रू मैंने पहले भी देखा है…”
“कहां?” सुरेश की आवाज बहुत धीमी थी। नायन ने पहली बार उनकी आंखों में देखा, “एक आदमी था, जो हर चीज जोड़ता था, पर अपनी जिंदगी नहीं जोड़ पाया। उसके पास भी ऐसी ही घड़ी थी। मैं उसकी घड़ी खोलता रहता था… वही स्क्रू, वही आवाज।”
“वो आदमी कौन था?” सुरेश ने पूछा।
नायन का गला भारी हो गया, “वो मेरे बाबा थे।” मोहन और सुरेश दोनों हिल गए। नायन ने बताया, “मेरे बाबा घड़ी रिपेयर करते थे, छोटी-छोटी चीजें जोड़ते। उन्होंने कहा था, चीजें टूटती हैं, पर ध्यान से सुनो तो बता देती हैं कि उन्हें ठीक कैसे करना है। एक रात घर में झगड़ा हुआ, बाबा कहीं जाने लगे और जाते-जाते घड़ी मेरे पास रख गए। सुबह मोहल्ले वालों ने बताया कि बाबा नहीं रहे।”
सुरेश चुप रहे, फिर बोले, “जिस आदमी ने मेरी घड़ी ठीक की थी, उसका नाम भी पाटिल था — वसंत पाटिल।” नायन की आंखें फैल गईं, “वो मेरे बाबा का नाम है।”
सुरेश ने कहा, “यह घड़ी उसी दुकान में ठीक करवाई गई थी। और जिसने मुझे दी, उसने कहा था, अगर कभी कोई बच्चा इसे देखकर कुछ कहे, तो उसका हाथ मत छोड़ना।”
सुरेश ने अपनी यादें साझा कीं, “तीन साल पहले पुणे में एक घड़ी की दुकान पर एक आदमी मिला, उसने यह घड़ी दी। उसने कहा था, कभी नागपुर जाओ तो होटल सुदर्शन इन में देखना, वहां कोई बच्चा टूटी चीजें ठीक करता है।”
नायन ने पूछा, “सर, मेरे बाबा तो…” मोहन ने पूछा, “क्या तूने खुद देखा था?” नायन ने सिर हिलाया, “नहीं, बस बताया गया कि बाबा चले गए।”
सुरेश बोले, “हो सकता है तेरे बाबा जिंदा हों।” नायन की सांस अटक गई। मोहन ने कहा, “बेटा, कभी-कभी बड़े लोग मजबूरी में टूट जाते हैं, शायद तेरे बाबा किसी मुसीबत में थे।”
नायन ने घड़ी को कसकर पकड़ा, “सर, वो आदमी कैसा दिखता था?” सुरेश ने बताया, “उसकी आंखों में गहराई थी, चलने में धीमा था।” नायन की आंखों से आंसू बह निकले, “बाबा…”
मोहन ने कहा, “हमें उसे ढूंढना होगा।” सुरेश बोले, “उसने कहा था अगर कोई बच्चा मुझे ढूंढने आए, तो बता देना कि मैं वहीं जाऊंगा जहां उसकी मां आखिरी बार गई थी।” नायन बोला, “मेरी मां का गांव धारणी है।” मोहन ने कहा, “हमें वहीं जाना होगा।”
अगले दिन तीनों धारणी पहुंचे, नदी के किनारे जहां नायन की मां का अंतिम संस्कार हुआ था। वहां एक आदमी बैठा था — साधारण कपड़े, थका हुआ शरीर, चेहरे पर वही गहराई। नायन दौड़कर उसके पास गया, “बाबा!” वसंत पाटिल रो पड़े, “माफ कर दे बेटा, मजबूरी थी।”
नायन ने बाबा के गले लगकर कहा, “अब आप कहीं नहीं जाएंगे, हम साथ रहेंगे।” बाबा ने सिर हिलाया, “अब कभी नहीं।”
सूरज ढल रहा था, हवा में शांति थी। एक टूटा हुआ परिवार आखिरकार जुड़ गया।
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**सीख:**
इस कहानी से यही सिद्ध होता है कि सच्चाई और परिवार का प्यार, कभी छुपता नहीं। दर्द, हुनर और रिश्तों की गहराई इंसान को जोड़ ही देती है, चाहे हालात कितने भी मुश्किल क्यों न हों।
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