धोती कुर्ता पहने बुजुर्ग को एयरपोर्ट पर परेशान किया तो बोले की राष्ट्रपति से बात कराओ , फिर उसकी पहु

क्या कपड़े इंसान की असली पहचान होते हैं?

क्या एक साधारण धोती और पुराने कुर्ते में लिपटा इंसान देश की सबसे बड़ी ताकत से जुड़ा नहीं हो सकता? यह कहानी सत्ता के घमंड और इंसानियत की सादगी के बीच की एक ऐसी ही जंग की है। यह कहानी है एक ऐसे बुजुर्ग की जिसे दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उसकी वेशभूषा के कारण न सिर्फ रोका गया, बल्कि अपमानित भी किया गया। पर जब उस बुजुर्ग ने शांत स्वर में कहा कि “मेरी बात राष्ट्रपति से कराओ”, तो सबने उसे पागल समझा। लेकिन उसके बाद जो हुआ, उसने एयरपोर्ट पर मौजूद हर अधिकारी और यात्री के होश उड़ा दिए। उसने साबित कर दिया कि असली पहुंच दौलत या पदवी से नहीं, बल्कि चरित्र और कर्मों से होती है।

दिल्ली का इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा

यह एक ऐसी जगह थी, जहां इंसान की कीमत उसके कपड़ों, सामान और अंग्रेजी बोलने के तरीके से आंकी जाती थी। इसी भीड़ और चकाचौंध के बीच एक शख्स ऐसा था, जो इस पूरी दुनिया से बिल्कुल अलग, बिल्कुल बेमेल लग रहा था। कोई 75 साल के बुजुर्ग श्री शंकर नारायण। उनके तन पर एक साधारण सी खादी की धोती और एक पीला पड़ चुका सफेद कुर्ता था। कंधे पर एक पुराना झोला, पैरों में साधारण चप्पलें, हाथ में एक घिसी हुई लकड़ी की छड़ी। उनका चेहरा झुर्रियों से भरा था, पर आंखों में एक अजीब सी शांति और ठहराव था।

शंकर नारायण जी को झारखंड के एक छोटे आदिवासी गांव वनस्थली जाना था। वहां एक छोटा सा स्कूल था, जिसे उन्होंने वर्षों पहले एक दोस्त के साथ मिलकर शुरू किया था। वे उसी स्कूल के वार्षिक उत्सव में मुख्य अतिथि के तौर पर जा रहे थे।

सिक्योरिटी चेक पर अपमान

जैसे ही वे सिक्योरिटी चेक इन के लिए लाइन में लगे, उनकी वेशभूषा ने वहां मौजूद कई लोगों का ध्यान खींचा। कुछ लोग मुस्कुरा रहे थे, कुछ घृणा से मुंह बना रहे थे। ड्यूटी पर तैनात था सुरक्षा अधिकारी विक्रम राठौर। विक्रम 28-30 साल का युवक, कड़क वर्दी में, चेहरे पर अपनी ताकत का घमंड। वह साधारण दिखने वाले लोगों से रूखा व्यवहार करने में अपनी शान समझता था।

शंकर नारायण जी ट्रे लेकर उसके काउंटर पर पहुंचे। विक्रम ने उन्हें ऊपर से नीचे तक ऐसे देखा, जैसे वह कोई अपराधी हो। पहला सवाल अंग्रेजी में था। शंकर नारायण जी ने सहजता से हिंदी में जवाब दिया, “कुछ किताबें हैं बेटा और थोड़ा सा प्रसाद है।”

विक्रम का पारा चढ़ गया। उसे हिंदी में जवाब देना और “बेटा” सुनना अपनी तौहीन लगी। उसने गुस्से में कहा, “यहां हिंदी नहीं चलती। जो पूछ रहा हूं उसका जवाब दो।” उसने उनका झोला ट्रे में ऐसे फेंका, जैसे वह कोई कचरा हो। झोला खुलवाया, एक-एक चीज बाहर निकाली—पुरानी किताबें, लकड़ी का खिलौना, कपड़े की पोटली में प्रसाद। “यह सब क्या बकवास भर रखी है?” विक्रम ने तिरस्कार से कहा।

शंकर नारायण जी शांत रहे। “बेटा, यह किताबें मेरा ज्ञान हैं और वह खिलौना मेरे एक छात्र ने दिया था।” पीछे लाइन में खड़े लोग अधीर हो रहे थे।

पूजा की इंसानियत

पास के काउंटर पर काम कर रही ग्राउंड स्टाफ पूजा की नजर इस पर पड़ी। पूजा एक छोटे शहर से आई थी, उसके दिल में अभी भी इंसानियत और बड़ों के लिए सम्मान बाकी था। उसे यह देखकर बहुत बुरा लगा। वह हिम्मत करके विक्रम के पास आई, “सर, जाने दीजिए ना, बुजुर्ग आदमी हैं, फ्लाइट का समय हो रहा है।”

विक्रम ने पूजा को घूर कर देखा, “तुम मुझे मेरा काम सिखाओगी? जाओ अपना काम करो वरना शिकायत कर दूंगा।” पूजा डरकर चुप हो गई।

अब विक्रम की नजर शंकर नारायण जी की छड़ी पर पड़ी। “यह क्या है? इसे अंदर नहीं ले जा सकते। यह हथियार के तौर पर इस्तेमाल हो सकती है।” शंकर नारायण जी के चेहरे पर पहली बार चिंता आई। “नहीं बेटा, यह छड़ी तो मेरा सहारा है। यह मेरे दादाजी की निशानी है। मैं इसके बिना चल नहीं सकता।”

विक्रम सुनने को तैयार नहीं था। “नियम तो नियम है। या तो इसे यहीं छोड़ो या अपनी फ्लाइट छोड़ो।” मामला बढ़ता देख विक्रम ने अपने मैनेजर मिस्टर भाटिया को बुला लिया।

मैनेजर का पक्षपात

भाटिया एक चापलूस किस्म का आदमी था, जो हमेशा अपने स्टाफ के साथ खड़ा रहता था ताकि कोई विवाद न हो और उसकी कुर्सी बची रहे। उसने आते ही मामला समझे बिना विक्रम का पक्ष लिया। “देखिए अंकल, यह एयरपोर्ट की सुरक्षा का मामला है। अधिकारी जो कह रहा है, वह सही है। आपको यह स्टिक यहीं छोड़नी होगी।”

शंकर नारायण जी ने बहुत मिन्नतें की, समझाने की कोशिश की कि यह छड़ी उनके परिवार की विरासत है। पर उनकी आवाज उस शोर और घमंड में दब गई। उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे वह अपने ही देश में अजनबी हैं।

राष्ट्रपति से बात करने की मांग

जब उनकी कोई दलील काम नहीं आई, तो शंकर नारायण जी की आंखों की शांति दृढ़ता में बदल गई। उन्होंने कमर सीधी की और बोले, “ठीक है, अगर आप लोग नियम और कानून की ही बात करते हैं, तो मेरा एक छोटा सा काम कर दीजिए। राष्ट्रपति भवन में फोन लगाइए और कहिए कि शंकर नारायण बात करना चाहते हैं।”

यह सुनते ही वहां सन्नाटा छा गया, फिर अगले ही पल विक्रम, भाटिया और कुछ यात्री जोर-जोर से हंसने लगे। “राष्ट्रपति!” विक्रम ने ताना मारा, “तुम्हें पता भी है किसका नाम ले रहे हो? लगता है दिमाग सठिया गया है। चलो यहां से निकलो वरना पुलिस के हवाले कर दूंगा।”

मिस्टर भाटिया भी बोले, “अब ड्रामा मत कीजिए। चुपचाप जाइए।”
लेकिन शंकर नारायण जी अपनी जगह से हिले नहीं। “मैंने कहा ना, फोन लगाइए। अगर सीधा राष्ट्रपति जी को फोन लगाने में डर लगता है तो उनके प्रमुख सचिव श्री अवस्थी जी से मेरी बात करवा दीजिए। कहिएगा उनके गुरुजी लाइन पर हैं।”

गुरुजी शब्द सुनकर विक्रम की हंसी और तेज हो गई। पूजा डरते-डरते बोली, “सर, एक बार कोशिश करने में क्या हर्ज है?”
भाटिया को लगा ड्रामा खत्म होगा, उसने विक्रम को इशारा किया।

राष्ट्रपति भवन में फोन

विक्रम ने मजाक उड़ाते हुए जूनियर को कहा, “अरे लगाओ फोन राष्ट्रपति भवन में।”
जूनियर ने एयरपोर्ट की डायरेक्टरी से राष्ट्रपति भवन का नंबर निकाला और फोन स्पीकर पर डाल दिया।

फोन की घंटी बजी। दूसरी तरफ से पेशेवर आवाज आई, “राष्ट्रपति भवन, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?”
जूनियर ने कहा, “हमें श्री अवस्थी जी से बात करनी है।”
“क्या मैं आपका नाम और बात करने का कारण जान सकता हूं?”
“एयरपोर्ट से शंकर नारायण जी बात करना चाहते हैं।”

जैसे ही ऑपरेटर ने शंकर नारायण का नाम सुना, उसकी आवाज में घबराहट आ गई। “1 मिनट सर, प्लीज होल्ड कीजिए।”
चंद सेकंड में फोन वरिष्ठ अधिकारी को ट्रांसफर हुआ।
“जी, मैं अवस्थी बोल रहा हूं। कौन?”
जूनियर कांपते हुए, “सर, शंकर नारायण जी…”
जैसे फोन के दूसरी तरफ भूचाल आ गया।
“गुरु जी! आचार्य शंकर नारायण जी आप एयरपोर्ट पर हैं और आपको कोई परेशान कर रहा है? हे भगवान, आप कहां हैं? मैं बस 5 मिनट में खुद पहुंच रहा हूं। आप कहीं मत जाइएगा।”

फोन कट गया, पर “गुरु जी” और “आचार्य” शब्द गूंजते रह गए।
हंसी थम गई, मजाक की जगह सन्नाटा छा गया।
विक्रम का चेहरा सफेद पड़ गया, भाटिया के माथे पर पसीने की मोटी बूंदें।
अब सब समझ चुके थे कि यह साधारण बुजुर्ग आखिर कौन हैं।

सच्चाई का खुलासा और सम्मान

अगले 20 मिनट उन लोगों के लिए सबसे लंबे और खौफनाक थे।
पूरा एयरपोर्ट हाई अलर्ट पर आ गया।
लाल बत्ती वाली गाड़ियों का काफिला एक के बाद एक आकर रुकने लगा।
कमांडो और अधिकारी तेजी से टर्मिनल के अंदर भागे।
फिर भीड़ को चीरते हुए श्री अवस्थी खुद अंदर आए।
उन्होंने शंकर नारायण जी को देखा, भागकर उनके पास पहुंचे और सबके सामने उनके पैरों पर गिर पड़े।

“गुरु जी, हमें क्षमा कर दीजिए। अगर हमें आपके आने की सूचना होती तो हम खुद लेने आते।”
शंकर नारायण जी ने उन्हें उठाकर गले से लगा लिया। “शांत हो जाओ, तुम्हारी कोई गलती नहीं।”

अवस्थी जी ने गुस्से से विक्रम और भाटिया की ओर देखा। “यहां क्या हुआ था? गुरुजी की हालत किसने की?”
पूजा ने हिम्मत करके सारी बात सच-सच बता दी।

अवस्थी जी ने कहा, “तुम्हें पता भी है कि तुमने किसके साथ बदसलूकी की है?”
फिर जो खुलासा किया, उसे सुनकर सबके पैरों तले जमीन खिसक गई।

“यह कोई साधारण बुजुर्ग नहीं हैं। यह पद्म विभूषण आचार्य शंकर नारायण हैं। देश के सबसे सम्मानित स्वतंत्रता सेनानी, महान दार्शनिक, लेखक और शिक्षाविद। और सबसे बड़ी बात, यह हमारे राष्ट्रपति जी के निजी गुरु हैं। राष्ट्रपति जी हर बड़े फैसले से पहले गुरुजी का आशीर्वाद लेते हैं। यह अपनी इच्छा से गुमनामी का जीवन जी रहे हैं। और जिस छड़ी को तुम हथियार बता रहे थे, मूर्ख! वह छड़ी इन्हें महात्मा गांधी ने भेंट की थी।”

विक्रम और भाटिया जमीन पर गिर पड़े, हाथ जोड़कर माफी मांगने लगे।
पर अब बहुत देर हो चुकी थी।

दया, शिक्षा और बदलाव

आचार्य शंकर नारायण जी के चेहरे पर कोई गुस्सा नहीं था। उनकी आंखों में दया थी।
उन्होंने अवस्थी जी से कहा, “इन्हें माफ कर दो। गलती इनकी नहीं, उस सोच की है जो इंसान को कपड़ों से पहचानती है, चरित्र से नहीं। इन्हें सजा मत दो, इन्हें शिक्षा दो। इन्हें बताओ कि इंसानियत क्या होती है।”

अवस्थी जी ने सुरक्षित फोन आचार्य जी को दिया। राष्ट्रपति जी खुद बात करने को व्याकुल थे।
सैकड़ों लोग देख रहे थे कि कैसे धोती-कुर्ता पहना एक साधारण सा बुजुर्ग देश के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति से ऐसे बात कर रहा था, जैसे पिता बेटे से।

बात खत्म होने के बाद आचार्य जी ने पूजा की ओर इशारा किया, “यह बच्ची बहुत अच्छी है, इसका ध्यान रखना।”
अवस्थी जी ने पूजा का नाम और नंबर नोट किया, उसे आगे की पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप मिली, और एयरपोर्ट पर तरक्की भी।

विक्रम और भाटिया को निलंबित कर दिया गया, उनके खिलाफ जांच बिठाई गई।
अवस्थी जी ने आचार्य जी के लिए चार्टर्ड प्लेन की पेशकश की, पर उन्होंने विनम्रता से मना कर दिया।
“नहीं, मैं उसी फ्लाइट से जाऊंगा जिसके लिए टिकट लिया है। मैं साधारण नागरिक हूं, साधारण ही रहना चाहता हूं। बस मेरी छड़ी मुझे वापस दिलवा दो।”

बुजुर्ग को पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनकी फ्लाइट तक ले जाया गया।
एयरपोर्ट का हर कर्मचारी, हर यात्री, हर अधिकारी उन्हें सम्मान में सिर झुकाए देख रहा था।
आज सबने एक बहुत बड़ा सबक सीखा था।

कहानी से सीख

तो दोस्तों, यह कहानी हमें सिखाती है कि किसी भी इंसान को उसकी वेशभूषा या बाहरी रूप से कभी नहीं आंकना चाहिए। सच्ची महानता कपड़ों में, पद में या दौलत में नहीं, बल्कि इंसान के चरित्र, सादगी और इंसानियत में होती है।

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