दो साल बाद पति विदेश से लौटा तो स्टेशन पर भीख मांगती हुई मिली पत्नी, फिर जो हुआ .
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दो साल बाद पति विदेश से लौटा तो स्टेशन पर भीख मांगती मिली पत्नी, फिर जो हुआ…
अंकित पिछले दो साल से खाड़ी देश में मजदूरी कर रहा था। उसका सपना था कि वह अपने परिवार को एक बेहतर जिंदगी दे सके। हर महीने वह बड़ी मेहनत से कमाए हुए पैसे भारत भेजता, ताकि उसके मां-बाप को इज्जत मिले, पत्नी सुषमा को किसी चीज की कमी न हो। उसे लगता था, जब वह लौटेगा तो घर खुशियों से भरा होगा, उसके मां-बाप और पत्नी के चेहरे पर मुस्कान होगी।
लेकिन किस्मत के आगे किसी की नहीं चलती। दो साल बाद जब अंकित भारत लौटा, दिल्ली से ट्रेन पकड़कर अपने शहर श्यामगढ़ की ओर रवाना हुआ। रास्ते में ट्रेन सोनपुर स्टेशन पर रुकी। अंकित ने सोचा, थोड़ा उतरकर चाय पी लूं। प्लेटफॉर्म पर उतरा तो उसकी नजर एक कोने में बैठे तीन लोगों पर गई—दो बूढ़े और एक औरत, जिनके सामने एक कटोरा रखा था। वे लोगों से मदद मांग रहे थे। अंकित ठिठक गया, दिल की धड़कन तेज हो गई। जब उसने गौर से देखा, तो पैरों तले जमीन खिसक गई—वो उसके अपने मां-बाप और पत्नी सुषमा थी!
अंकित पत्थर की तरह वहीं खड़ा रह गया। सुषमा ने उसे देखा तो फूट-फूटकर रो पड़ी। अंकित के गले से आवाज़ नहीं निकल रही थी। वह कांपती आवाज़ में बोला, “सुषमा, ये सब कैसे हुआ? मैं तो हर महीने पैसे भेज रहा था। मैंने तो तुम सबको मनोज भैया और रीमा भाभी के भरोसे छोड़ा था। आखिर ये दिन क्यों आया?”
सुषमा ने मां-बाप को सहारा देते हुए प्लेटफॉर्म के एक कोने में ले जाकर बैठाया और अपनी कहानी सुनाने लगी। “अंकित, जब तुम विदेश गए थे, तब सब ठीक था। लेकिन धीरे-धीरे भैया-भाभी का व्यवहार बदलने लगा। एक दिन रीमा भाभी ने मनोज भैया को समझाया कि मां-बाप की सारी जमीन-जायदाद अपने नाम कर लो, वरना कुछ नहीं मिलेगा। भैया ने मना किया, लेकिन भाभी के लालच ने उन्हें भी बदल दिया। मां-बाप से कहा गया कि सरकार की नई योजना में पेंशन मिलेगी, बस कागजों पर साइन कर दो। उन्होंने भरोसे में आकर दस्तखत कर दिए। असल में वे कागज जायदाद मनोज भैया के नाम करने के थे। अगले ही दिन हमें घर से निकाल दिया गया।”
अंकित की आंखों में आंसू थे और मुट्ठियां भींच गईं। सुषमा ने आगे बताया, “मेरे साथ भी वही हुआ। रीमा भाभी रोज ताने मारती, कभी खाना नहीं देती, कभी अपमानित करती। एक दिन मुझे भी घर से निकाल दिया। मैंने रिश्तेदारों के घर सहारा लिया, लेकिन वहां भी बोझ समझा गया। आखिर मैंने छोटे-मोटे काम शुरू किए—किसी के घर बर्तन धोए, कहीं झाड़ू-पोछा किया, लेकिन इतने पैसे नहीं मिलते थे कि पेट भर सके। एक दिन स्टेशन से गुजर रही थी, तभी मां-बाप को भीख मांगते देखा। मैं भी उनके पास बैठ गई। सोचा, चाहे कुछ भी हो जाए, इन्हें अकेला नहीं छोड़ूंगी।”
अंकित की आंखों से आंसू बहने लगे। उसे एहसास हुआ कि उसकी गैरमौजूदगी में उसकी पत्नी ने उसके मां-बाप का साथ दिया, उनके लिए भीख भी मांगी। उसने दृढ़ता से कहा, “अब बहुत हुआ। आज से हम सब साथ रहेंगे। चाहे मुझे फिर से शून्य से शुरुआत करनी पड़े, पर अब किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा।”
अंकित के पास खुद भी कुछ नहीं बचा था। विदेश में कमाया हर रुपया भाभी के खाते में जाता रहा। अब न घर था, न जमीन, न बैंक बैलेंस। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। सुषमा और मां-बाप को लेकर पास के शहर संतनगर पहुंचा। वहां एक छोटा सा कमरा किराए पर लिया और मंडी में पल्लेदारी का काम पकड़ लिया। सुबह से शाम तक बोरी उठाता, ठेलों में माल भरता, लेकिन दिल में सुकून था कि अब वह अपने परिवार के लिए ईमानदारी से रोटी कमा रहा है।
कुछ महीनों बाद सुषमा ने कहा, “अगर आप मुझे एक छोटी सी सब्जी की दुकान लगवा दें, तो मैं भी कमाई में हाथ बंटा सकती हूं।” अंकित ने जोड़ा हुआ पैसा लगाकर मंडी के बाहर सब्जी की दुकान लगवा दी। अब सुषमा, मां-बाप के साथ दुकान संभालती और अंकित मंडी से ताजी सब्जियां लाता। मेहनत रंग लाई, दुकान चल पड़ी। धीरे-धीरे पैसा बचने लगा। सबसे पहले कमरे का किराया चुकाया, फिर थोड़े-थोड़े पैसे जोड़कर एक छोटा सा प्लॉट खरीद लिया। अंकित ने ठान लिया था—अब हार नहीं मानूंगा।
समय बीता, अंकित ने प्लॉट पर पक्का घर बनवाया और मंडी में खुद की आढ़त खोल ली। कारोबार बढ़ा तो उसने मनोज भैया द्वारा छीनी गई संपत्ति से भी ज्यादा दौलत कमा ली। जिंदगी पटरी पर लौट आई थी। एक दिन मंडी में भीड़ के बीच दो थकी-हारी परछाइयां आईं—मनोज और रीमा। उनकी हालत खराब थी, कपड़े मैले, चेहरा थका हुआ। रीमा मां के पैरों में गिर पड़ी—“मां, बाबूजी, माफ कर दो। हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई।”
अंकित का गुस्सा भड़क उठा, “दूर रहो! याद है, तुमने क्या किया था? सिर्फ पैसों के लिए मां-बाप को भूखा मरने पर मजबूर कर दिया, मुझे मेरी पत्नी से दूर किया, मेरा घर, मेरा हक सब छीन लिया। अब जब तुम्हारे पास कुछ नहीं बचा तो यहां आ पहुंचे?”
मंडी में सन्नाटा छा गया। तभी अंकित की मां बोलीं, “बेटा, गलती का एहसास सबसे बड़ी सजा है। इन्हें माफ कर दे। अगर इनका सहारा बनेगा तो तेरी जीत पूरी होगी।” सुषमा भी बोली, “ये जैसे भी हैं, अपने हैं। अगर हम इन्हें ठुकरा देंगे तो लोग कहेंगे भाइयों में नफरत ने इंसानियत को मार दिया।”
अंकित चुप हो गया। कुछ देर बाद बोला, “ठीक है, लेकिन याद रखना—यह आखिरी मौका है। मेहनत करोगे तो खाओगे, वरना यहां से चले जाना।” उसने मनोज को छोटी सी दुकान खुलवा दी और काम सिखाया। धीरे-धीरे दोनों भाई अपने-अपने काम में लग गए। पुराना दर्द तो रहा, लेकिन घर में प्यार लौट आया।
यह कहानी सिर्फ रिश्तों की नहीं, बल्कि इस सच की है कि लालच के अंधेरे में गिरकर हम चाहे कितनी भी दूर निकल जाएं, इंसानियत का रास्ता हमें वापस ले आता है—अगर हम उसे चुन लें।
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