अरबपति की खोई हुई बेटी मंदिर की सीढ़ियों पर फूल बेचती मिली | फिर बेटी ने पिता से जो कहा इंसानियत..
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कहानी: मंदिर की सीढ़ियों पर मिली अरबपति की बेटी
सूरज की हल्की किरणें मंदिर की सीढ़ियों पर बैठी उस छोटी सी बच्ची के चेहरे पर पड़ रही थीं। उम्र मुश्किल से ग्यारह साल, नाम सबको बस “आरू” पता था। अपनी टूटी बाल्टी और झोली में फूल सजाती, हर सुबह सबसे पहले मंदिर पहुँच जाती। “भैया फूल ले लो, देवी माँ को चढ़ा देना। मैं सस्ता दे दूंगी,” उसकी आवाज़ में मासूमियत भी थी और दर्द भी। लोग कभी दया दिखाते, कभी तिरस्कार से देखते, मगर आरू हमेशा मुस्कुरा देती, जैसे उसने दर्द को भी आदत बना लिया हो।
एक बुजुर्ग महिला, जिसे सब “अम्मा” कहते थे, रोज़ उसके पास आती, “आरू जल्दी कर, आज मेला है, ज्यादा फूल बिकेंगे।” आरू मुस्कुरा कर कहती, “हाँ अम्मा, अभी कर रही हूँ।” अम्मा ने ही बरसों पहले रेलवे स्टेशन के पास उसे रोते हुए पाया था, तब से वही उसकी माँ, वही उसका घर। मगर आरू की असली कहानी इससे कहीं गहरी थी—वह अरबपति राजवीर सिंघानिया की खोई हुई बेटी थी, जिसे उसकी खुद की माँ ने मजबूरी में सड़क पर छोड़ दिया था। पिता राजवीर को उसकी कोई खबर नहीं थी।
आरू ने कम उम्र में ही भूख, अपमान और अकेलेपन के सबक सीख लिए थे। मंदिर के भक्त कभी उसे धक्का देते, दुकानदार चिल्लाते, मगर वह हर बार मुस्कुरा देती, “कोई बात नहीं भगवान, सब देखते हैं।” एक दिन मंदिर की सीढ़ी से एक बच्ची गिर गई, आरू दौड़कर उसे उठाती है, घाव साफ करती है, फूल मुफ्त में देती है। जिसने कभी प्यार नहीं पाया, वही सबसे ज्यादा प्यार बाँटता है—शायद आरू भी यही कर रही थी।
शाम को वह अपनी कमाई गिनती है—कुछ सिक्के, थोड़े नोट, और एक टूटा हुआ ब्रेसलेट, जो उसकी इकलौती याद थी। उस पर धुंधले अक्षर थे—बस “प्रिण” पढ़ा जा सकता था। अम्मा से पूछती, “क्या भगवान कभी किसी को ढूंढने में मदद नहीं करता?” अम्मा कहती, “क्यों पूछ रही है?” आरू बस इतना बोलती, “कभी-कभी लगता है कोई मुझे ढूंढ रहा है।”
अगले दिन मंदिर में एक बड़ा उद्योगपति आया—राजवीर सिंघानिया। पूजा के लिए रुका, मगर उसकी नजर सीढ़ियों पर बैठी आरू पर अटक गई। वही मासूम चेहरा, वही आँखें, जैसे कोई भूली हुई याद अचानक सामने आ गई हो। राजवीर उसके पास गया, “तेरा नाम क्या है?” आरू बोली, “सब आरू कहते हैं मुझे।” राजवीर का दिल धड़कना भूल गया—वह नाम, वह चेहरा, सब कुछ उसकी बेटी आर्या जैसा था।
राजवीर ने नोट दिए, मगर आरू ने लौटा दिए, “इतने पैसे नहीं चाहिए भैया, बस फूल ले लो।” राजवीर ने उसके ब्रेसलेट के बारे में पूछा। आरू बोली, “मुझे नहीं पता, जब से याद है, ये मेरे पास है। अम्मा कहती है किसी ने साथ छोड़ा होगा।” राजवीर ने ध्यान से देखा—वही टूटा सिल्वर ब्रेसलेट, जिस पर उसने कभी अपनी बेटी का नाम खुदवाया था—”प्रिंसेस आर्या”। अब अक्षर मिट चुके थे, बस “प्रिण” बचा था। राजवीर की आँखों से आँसू बह निकले। वह कुछ बोल नहीं पाया, बस फूल लेकर चला गया।
रात भर राजवीर सो नहीं सका। बार-बार वही चेहरा, वही मुस्कान, वही अंदाज उसकी आँखों के सामने घूमता रहा। बरसों पहले एक हादसे में उसकी गाड़ी नदी में गिर गई थी। पत्नी नीलिमा वहीं मर गई थी, बेटी आर्या लापता हो गई थी। सालों तक खोज की, अखबारों में इश्तिहार दिए, मगर कोई सुराग नहीं मिला। सबने मान लिया वह नहीं रही, मगर राजवीर ने कभी हार नहीं मानी।
अगली सुबह फिर मंदिर पहुँचा। आरू फूल सजा रही थी, वही मुस्कान। राजवीर ने पूछा, “तुम्हारे साथ कोई नहीं रहता?” आरू बोली, “अम्मा है, उन्होंने ही मुझे पाला है।” “तुम्हारे माँ-बाप?” राजवीर ने कांपती आवाज़ में पूछा। आरू मुस्कुराई, “शायद कभी थे, अब याद नहीं।” राजवीर का दिल टूट गया। वह बोला, “क्या मैं तुम्हारी अम्मा से मिल सकता हूँ?” आरू उसे उस छोटे स्टॉल पर ले गई, जहाँ अम्मा बैठी थी।
राजवीर ने अम्मा से पूछा, “यह बच्ची कहाँ मिली थी आपको?” अम्मा बोली, “बरसों पहले, रेलवे स्टेशन के पास, बारिश में रोती हुई। पास में एक टूटा ब्रेसलेट था। तब से यही मेरी बेटी है।” राजवीर की आँखों से आँसू बह निकले, उसने कांपते हाथों से एक पुरानी फोटो निकाली—वही मुस्कान, वही चेहरा। अम्मा ने देखा, फिर आरू को देखा, “हे भगवान!” आरू कुछ समझ नहीं पाई, “अम्मा, यह अंकल रो क्यों रहे हैं?” राजवीर ने उसे सीने से लगा लिया, “क्योंकि अब मुझे मिल गई मेरी दुनिया। मेरी बेटी—आर्या।”
राजवीर ने अम्मा का हाथ थामा, “आपने मेरी बेटी को जीवन दिया है, अब आप भी मेरे साथ चलेंगी।” अम्मा मुस्कुरा दी, आँखों में राहत थी। मंदिर की घंटियाँ फिर बजने लगीं। आरू ने सिर झुकाया, “माता रानी, आपने सच में चमत्कार कर दिया।” अब आरू, आर्या सिंघानिया बन चुकी थी। सालों की जुदाई के बाद राजवीर की दुनिया फिर से रोशनी से भर गई। वह उसे अपने आलीशान बंगले में ले आया। महंगे कपड़े, बड़ा कमरा, खिलौने—सब कुछ मिला, मगर आर्या को अम्मा के छोटे घर की मिट्टी की खुशबू याद आती रही।
राजवीर ने अच्छे डॉक्टर बुलाए, काउंसलर रखे, ताकि आर्या अपनी पुरानी यादें वापस पा सके। मगर जब कोई पूछता, “तुम्हें कुछ याद है?” वह चुप रह जाती। कुछ हफ्ते बीते। एक शाम राजवीर के पास अनजान नंबर से कॉल आया, “आपकी बेटी आर्या जिस हादसे में खोई थी, वह कोई हादसा नहीं था। आपकी पत्नी उतनी मासूम नहीं थी जितना आप सोचते हैं।” कॉल कट गया। राजवीर सन्न रह गया। अगले दिन उसने पुराने केस की फाइल निकाली, हर रिपोर्ट, हर सबूत दोबारा देखा। ड्राइवर रामेश्वर हादसे की रात गायब हो गया था।
राजवीर ने पुलिस से संपर्क किया, मगर केस पुराना था। उसी रात आर्या अपने कमरे में थी। ब्रेसलेट की धूल साफ करने पर नीचे बारीक अक्षरों में लिखा था—”If lost, find Meera Ashram, Varanasi.” आर्या घबरा गई, “मीरा कौन?” उसने राजवीर को दिखाया। राजवीर ने सुना, चेहरा पीला पड़ गया—मीरा उसकी पत्नी की दोस्त थी, जो हादसे से एक हफ्ते पहले ही घर छोड़कर चली गई थी। राजवीर ने वाराणसी के हर आश्रम में मीरा को खोजने को कहा। तीन दिन बाद खबर आई—मीरा मिली है, मगर किसी से बात नहीं करती।
राजवीर तुरंत वाराणसी पहुँचा। मीरा पूरी तरह बदल चुकी थी, सफेद कपड़े, आँखों में खालीपन। “मीरा, याद है मुझे?” मीरा बोली, “तुम अब भी जिंदा हो?” राजवीर हैरान। मीरा ने कहा, “वो रात हादसा नहीं था, सब प्लान किया गया था। तुम्हारी पत्नी नीलिमा को शक था कि तुम किसी और से प्यार करते हो। उसने ड्राइवर को पैसे देकर एक्सीडेंट करवाया, मगर गाड़ी पलट गई और सब कुछ उसके खिलाफ हो गया। मैंने बच्ची को बाहर निकाला, नीलिमा बेहोश थी। बच्ची को स्टेशन के पास छोड़ दिया ताकि कोई बचा ले, क्योंकि पुलिस मुझे फंसा देती।”
राजवीर सन्न रह गया, “मतलब मेरी बेटी सालों तक मंदिर के बाहर रही, क्योंकि उसकी माँ के गुस्से ने मेरी दुनिया तोड़ दी।” मीरा बोली, “भगवान ने तुम्हें फिर से बेटी दे दी, अब उसे कभी अकेला मत छोड़ना।” राजवीर गंगा किनारे बैठा, आँखों से आँसू बह रहे थे, मगर उनमें सुकून था—क्योंकि सच कितना भी दर्दनाक हो, झूठ से ज्यादा पवित्र होता है।
रात को उसने आर्या को गले लगाकर कहा, “अब कोई तुझे मुझसे नहीं छीन पाएगा।” आर्या बोली, “माता रानी ने तो कहा था ना पापा, हर चमत्कार के पीछे एक परीक्षा होती है।” राजवीर ने सोचा, अब सब खत्म हो गया। लेकिन किस्मत फिर एक मोड़ पर लाई। आर्या को पुराने बक्से में एक पत्र मिला—”मेरे राजवीर के लिए”—नीलिमा की लिखावट थी। कांपते हाथों से राजवीर ने पत्र पढ़ा—
“प्रिय राजवीर, जब तुम यह पत्र पढ़ रहे होगे, शायद मैं इस दुनिया में नहीं रहूंगी। तुम सोचोगे कि मैं गलत थी, लेकिन सच यह है कि वह रात मेरी सबसे बड़ी कुर्बानी थी। मुझे पता चला था कि तुम्हारे बिजनेस पार्टनर मल्होत्रा तुम्हें खत्म करने की साजिश रच रहे हैं। मैंने ड्राइवर को कहा था कि गाड़ी उस रास्ते से ना ले जाए, पर उसने मल्होत्रा का साथ दे दिया। जब सब खत्म होने वाला था, मैंने आर्या को अपनी गोद में लिया और गाड़ी से बाहर फेंक दिया ताकि वह बच जाए, भले मैं ना रहूं। अगर कभी आर्या मिल जाए तो उसे बताना, उसकी मां बुरी नहीं थी, बस मजबूर थी। तुम्हारी नीलिमा।”
पत्र पढ़ते ही राजवीर फूट-फूट कर रो पड़ा। जिस औरत को उसने गुनहगार समझा, वह उसकी रक्षक थी। आर्या ने अपने नन्हे हाथों से उसके आँसू पोंछे, “पापा, मां ने तो हमारी जान बचाई थी ना?” राजवीर ने उसे सीने से लगाकर कहा, “हाँ बेटा, तुम्हारी मां ने हमें मौत से छीना था।”
अगले दिन राजवीर ने उस मंदिर के बाहर एक छोटा सा स्कूल बनवाया, “नीलिमा आश्रय”—जहाँ कोई भी बच्चा अकेला ना रहे। आर्या हर सुबह वहाँ जाती, बच्चों के बीच बैठती, फूल बांटती—अब वह फूल बेच नहीं रही थी, बल्कि जिंदगी बांट रही थी।
कभी-कभी जिंदगी हमें भटकाती नहीं, बल्कि सिखाती है कि जो खो गया लगता है, वह सही वक्त का इंतजार कर रहा होता है। और जब वह वक्त आता है, हर टूटा सपना, हर बिछड़ा रिश्ता फिर लौट आता है। ठीक उसी जगह, जहाँ पहली बार किसी ने “माँ” कहा था या किसी ने बेटी को गले लगाया था।
अगर आपको यह कहानी अच्छी लगी हो, तो इंसानियत और प्यार को जरूर आगे बढ़ाइए।
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