मनहूस कहकर निकाली गई नेहा की कहानी

दिल्ली की एक हलचल भरी शाम थी। नेहा शर्मा, जो कभी अपने घर की रौनक थी, आज उसी घर में बदनसीबी की वजह बन गई थी। उसका पति अभिषेक, जो कभी बेहद सलीकेदार और समझदार माना जाता था, अब कारोबार में लगातार नुकसान झेलने के बाद अंदर से टूट चुका था। उसकी खामोशी अब कड़वाहट में बदल चुकी थी। हर नुकसान के साथ उसकी बातों में ताने और गुस्सा बढ़ता जा रहा था।

एक दिन जब फैक्ट्री का आखिरी ऑर्डर भी रद्द हुआ, अभिषेक गुस्से से घर आया। नेहा ने दरवाजा खोला, लेकिन अभिषेक बिना कुछ बोले टेबल पर रखी फाइलें फेंकता हुआ बोला,
“जब से तुम इस घर में आई हो, सब कुछ बर्बाद हो गया है। कारोबार, सुकून, और अब चैन की नींद भी चली गई है।”
नेहा ने सहमे हुए स्वर में कहा,
“अभिषेक, मैंने क्या किया है? मैं तो हमेशा आपके साथ खड़ी रही हूं।”
लेकिन अभिषेक ने उसकी बात बीच में ही काट दी,
“बस अब और झूठे दिलासे मत दो। तुम मनहूस हो। इस घर की तबाही की वजह तुम हो।”

इतना कहते ही उसकी मां सरोज भी कमरे में आ गई। उनके चेहरे पर तिरस्कार भरी मुस्कान थी।
“सही कहा मेरे बेटे ने। जब से यह औरत हमारे घर में आई है, सब कुछ उल्टा ही हो रहा है। पहले मेरे पति बीमार पड़े, फिर बिजनेस डूबा। अब वक्त आ गया है इसे निकलने का।”

नेहा की आंखों से आंसू गिर पड़े। उसने हाथ जोड़ते हुए कहा,
“मां जी, मैंने कभी किसी का बुरा नहीं सोचा। मुझसे गलती हो तो सजा दीजिए, पर मुझे घर से मत निकालिए।”
सरोज का चेहरा सख्त हो गया,
“यह घर अब तेरा नहीं है। औरतें अपने नसीब साथ लाती हैं। और तू अपने साथ बर्बादी लेकर आई है।”

नेहा कुछ पल तक दरवाजे के पास खड़ी रही। उसके शब्द किसी को सुनाई नहीं दे रहे थे। अभिषेक ने पास रखे कागज उठाए और उसकी तरफ फेंक दिए,
“यह है तलाक के पेपर। अब तू अपने रास्ते चली जा। मैं और बर्बादी नहीं चाहता।”

नेहा ने सिर झुकाया, कागजों को देखा और दरवाजे से बाहर निकल गई। रात का अंधेरा था। सड़क सुनसान। हाथ में बस एक छोटा बैग था और आंखों में नमी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि जाए तो जाए कहां। वह उसी शहर की गलियों में भटकती रही, जहां कभी दुल्हन बनकर आई थी।

आखिर थक कर एक मंदिर के पास बैठ गई। घंटों बाद जब सब कुछ शून्य हो गया, तो पास से गुजरती एक औरत ने उसकी हालत देखी और पानी का गिलास बढ़ाया।
“कहां से आई हो बहन?”
नेहा की आवाज कांप रही थी,
“कहीं नहीं, जाने को कोई नहीं मेरा।”
औरत ने कहा,
“आओ मेरे साथ, पास ही एक शेल्टर होम है।”

शेल्टर में उसे पहली बार किसी ने बिना सवाल पूछे जगह दी। वहां सब औरतें टूटी हुई थीं। कोई पति के जुल्म से, कोई समाज की ठोकरों से। पर वहां किसी ने किसी को मनहूस नहीं कहा। कुछ दिन बाद नेहा को नौकरी का मौका मिला। एक छोटी फैक्ट्री में जहां तौलिए बनते थे। सुपरवाइजर ने कहा,
“काम ईमानदारी से करना, तो आगे बढ़ सकती हो।”
नेहा ने सिर हिलाया। पहले दिन उसके हाथ कांपते रहे। सुई चुभती रही, कपड़ा फिसलता रहा, पर उसने हार नहीं मानी। धीरे-धीरे मशीन की आवाज उसकी साथी बन गई।

अब हर सुबह वो वक्त पर फैक्ट्री पहुंचती, पूरे दिन काम करती और शाम को थकी हुई लौट आती। उसे किसी चीज की चाह नहीं थी, बस सुकून चाहिए था। वह सुकून जो उसे अपने घर में कभी नहीं मिला था।

एक दिन फैक्ट्री मालिक रवि मेहरा ने दूर से उसे देखा। साफ साड़ी में बिना कोई दिखावा किए चुपचाप काम करती नेहा बाकी सबसे अलग थी। उसकी मेहनत देखकर रवि ने सुपरवाइजर से कहा,
“इस लड़की में कुछ अलग है। इसे संभालना।”

वक्त बीतने लगा। नेहा की मेहनत रंग लाने लगी। अब हर हफ्ते उसका काम सबसे बेहतरीन होता और उसकी इज्जत बढ़ने लगी। एक शाम जब फैक्ट्री बंद हो रही थी, रवि ने उसे ऑफिस बुलाया। नेहा अंदर आई तो रवि ने मेज पर रखा एक लिफाफा उसकी तरफ बढ़ाया।
“यह तुम्हारे लिए है।”
नेहा ने सर झुकाए कहा,
“सैलरी तो मिल चुकी है सर।”
रवि मुस्कुराया,
“सैलरी नहीं, कुछ और।”
नेहा ने लिफाफा खोला। अंदर एक छोटा सा नोट था—
“नेहा, तुमने मेहनत से नहीं, अपने सब्र से मुझे प्रभावित किया है। मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं।”

नेहा का चेहरा पड़ गया। उसके हाथ से लिफाफा नीचे गिर गया। कुछ पल तक वो चुप रही, फिर कांपती आवाज में बोली,
“आप मजाक कर रहे हैं क्या?”
रवि ने सिर हिलाया,
“नहीं, मैं गंभीर हूं। तुम जैसी औरतों को सहारा नहीं, सम्मान मिलना चाहिए।”

सम्मान की बातें सुनकर नेहा ने सर उठाकर उसकी आंखों में देखा। और एक पल के लिए सन्न रह गई। जिसे वह अब तक सिर्फ फैक्ट्री मालिक रवि मेहरा समझ रही थी, वो उसका देवर कबीर वर्मा था। वही कबीर जिसने एक दिन उसकी सास के ताने और अपने भाई अभिषेक के गुस्से के बीच उसका बचाव किया था। उसके शब्द अब भी कानों में गूंज रहे थे—
“भाभी, अब आप अकेली नहीं हैं।”

वो दिन जब उसे धक्का देकर घर से निकाला गया था, कबीर ही था जिसने कहा था,
“यह घर सिर्फ भैया का नहीं, मेरा भी है।”
लेकिन उस समय उसकी बात का कोई असर नहीं हुआ था। और अब वही इंसान उसके सामने था, उसका मालिक बनकर।

कमरे में खामोशी फैल गई। नेहा ने धीरे से कहा,
“कबीर, तुम…”
कबीर मुस्कुराते हुए जवाब दिया,
“हां नेहा, मैं ही हूं। तुमसे छुपाने का कोई इरादा नहीं था, बस सही वक्त का इंतजार था।”

नेहा की आंखों में सवाल तैर गए,
“तुम यहां कैसे?”
कबीर ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा,
“भाभी, जब तुम्हें घर से निकाला गया था, उसी दिन मैं भी वहां से चला गया था। मैंने मां को कहा था कि जिस औरत ने सिर्फ सहा है, उसके साथ रहना गुनाह नहीं, फर्ज है। लेकिन मां ने मुझे भी घर से निकाल दिया। तब से मैं बाहर था और मेहनत कर रहा था। कुछ सालों बाद यह फैक्ट्री खरीदी ताकि मैं साबित कर सकूं कि इज्जत किसी का उपहार नहीं, इंसान खुद कमाता है।”

नेहा की आंखों से आंसू गिर पड़े। उसने कहा,
“तुम्हें मुझ पर तरस आया है?”
कबीर ने सिर हिलाया,
“नहीं नेहा, तरस नहीं, सम्मान है। मैं तुम्हारे सब्र को देख चुका हूं। तुमने जो झेला, वो कोई औरत नहीं झेल सकती।”

नेहा ने पीछे कदम बढ़ाए,
“लेकिन लोग क्या कहेंगे? वही पुराना इल्जाम फिर लगेगा कि देवर और भाभी का रिश्ता पवित्र नहीं रहा।”
कबीर ने शांत स्वर में कहा,
“लोगों को कहने दो, इस बार जवाब वक्त देगा। इस बार इज्जत छीनेगा नहीं, लौट आएगा।”

नेहा ने उसकी तरफ देखा। कुछ पल की चुप्पी रही। फिर उसने कहा,
“कबीर, मैं अब किसी रिश्ते पर भरोसा नहीं कर सकती। मैंने अपने पति पर भरोसा किया था, अपनी सांस पर भरोसा किया था और सब टूट गया।”
कबीर ने कहा,
“मुझे तुम्हारा भरोसा नहीं चाहिए नेहा, बस एक मौका चाहिए खुद को सही साबित करने का।”
वो उठकर चला गया। नेहा वहीं खड़ी रही उस कमरे में, जहां अब उसका अतीत और वर्तमान आमने-सामने खड़े थे।

अगले दिन फैक्ट्री पहुंची तो माहौल थोड़ा बदला हुआ था। लोग धीरे-धीरे फुसफुसा रहे थे,
“लगता है मालिक उसे पसंद करता है।”
नेहा ने किसी से कुछ नहीं कहा। उसने काम पर ध्यान दिया, मगर अब उसका दिल उलझा हुआ था। कबीर ने उस दिन कुछ नहीं कहा, बस दूर से उसे देखा और एक मुस्कुराहट दी। ऐसी मुस्कुराहट जिसमें कोई लालच नहीं, बस भरोसा था।

रात को शेल्टर होम लौटी तो पल्लवी उसकी रूम पार्टनर ने पूछा,
“आज तुम बहुत चुप हो। सब ठीक है?”
नेहा ने सिर हिलाया,
“हां, सब ठीक है। बस वक्त ने फिर एक नया मोड़ दिखाया है।”
पल्लवी हंसी,
“कभी-कभी वक्त वही लौट आता है जो हमसे छीन लिया जाता है।”

दिन बीतते गए। कबीर ने नेहा को किसी तरह की मजबूरी में नहीं डाला। वो बस चुपचाप उसे बेहतर जिंदगी की तरफ बढ़ते देखता रहा। नेहा अब पहले से मजबूत दिखने लगी थी। उसके चेहरे पर वही आत्मविश्वास लौट आया था, जो बरसों पहले उसके शादी के दिन था।

एक शाम फैक्ट्री में बिजली चली गई। सब मशीनें बंद हो गईं। नेहा अकेली स्टॉक रूम में रह गई। हाथ में मोबाइल की रोशनी थी। कबीर अंदर आया और कहा,
“अंधेरा कभी डराता नहीं, जब मन में रोशनी हो।”
नेहा मुस्कुरा दी,
“कभी-कभी अंधेरा ही सिखाता है कि रोशनी की कीमत क्या होती है।”
कबीर ने कहा,
“शायद अब वक्त आ गया है कि तुम अपनी जिंदगी का नया अध्याय शुरू करो।”
नेहा ने कहा,
“अध्याय… क्या वो इतना आसान है?”
कबीर बोला,
“आसान नहीं है, पर सच है। और सच्चे रिश्ते मुश्किलों में ही बनते हैं।”

उस रात नेहा ने बहुत देर तक नींद नहीं ली। खिड़की से बाहर देखते हुए उसने सोचा,
“शायद भगवान देर करता है, पर इंसाफ जरूर देता है।”

अगली सुबह फैक्ट्री में एक घोषणा हुई। कबीर ने सबके सामने कहा,
“आज से मिस नेहा वर्मा हमारी नई सुपरवाइजर होंगी।”
सब तालियां बजाने लगे। नेहा के चेहरे पर चौक और गर्व दोनों थे। कबीर ने उसकी तरफ देखकर कहा,
“किसी और के लिए नाम से नहीं, अपने काम से पहचान बनाओ।”

फैक्ट्री के गेट के बाहर निकलते वक्त नेहा ने आसमान की तरफ देखा। सालों बाद उसे लगा कि उसके सिर से किसी बोझ का साया उतर गया है। अब उसकी जिंदगी बदल रही थी। शेल्टर की जगह उसने एक छोटा कमरा किराए पर ले लिया। नई साड़ी, नई पहचान और अब उसकी आंखों में एक नया आत्मविश्वास।

पर वक्त का पहिया वहीं नहीं रुका। एक दिन कबीर ने फिर उसे ऑफिस बुलाया। कमरे में वही पुरानी खामोशी थी। उसने कहा,
“नेहा, अगर मैं फिर वही बात दोहराऊं तो?”
नेहा ने धीरे से कहा,
“कौन सी बात?”
कबीर मुस्कुराया,
“शादी की।”
नेहा ने उसकी तरफ देखा। चेहरे पर ना गुस्सा था, ना डर। बस एक लंबी सांस ली और कहा,
“अगर यह रिश्ता इज्जत से शुरू होगा, तो शायद इस बार मैं थक जाऊं।”
कबीर ने सिर्फ इतना कहा,
“बस यही सुनना था।”
और उस लम्हे में पहली बार नेहा की आंखों से जो आंसू गिरे, उनमें दर्द नहीं, सुकून था।

अब कहानी उस मोड़ पर थी, जहां टूटे हुए इंसान फिर से जुड़ने की हिम्मत करते हैं। और नेहा ने उस हिम्मत का पहला कदम उठा लिया था। नेहा और कबीर की शादी सादगी से हुई थी। ना कोई बैंड बाजा, ना महंगे कपड़े। बस दो इंसान, जिन्होंने एक दूसरे की तकलीफ समझी थी और साथ चलने का वादा किया था।

कबीर ने कहा था,
“मैं तुम्हें सहारा नहीं दूंगा, तुम्हें बराबरी दूंगा।”
नेहा ने बिना कुछ बोले सिर झुका लिया था। क्योंकि वही एक वाक्य था, जो उसने सालों से सुनने की चाहत रखी थी।

शादी के बाद दोनों ने शहर के पुराने हिस्से में एक छोटा सा फ्लैट लिया। दीवारें नई थीं, लेकिन उस घर में सुकून था। नेहा हर सुबह तुलसी में दिया जलाती और कबीर हंसकर कहता,
“अब यह घर मनहूस नहीं, खुशकिस्मत हो गया है।”

नेहा मुस्कुराती, लेकिन उसके भीतर अब भी कुछ पुराना दर्द बचा हुआ था। वह जानती थी कि जिन लोगों ने उसे धक्का देकर निकाला था, उनके लिए वह अब भी मनहूस ही होगी। मगर वक्त का अपना खेल होता है।

जिस दिन नेहा को फैक्ट्री की नई ब्रांच का काम संभालना था, उसी दिन कबीर को एक चौंकाने वाला फोन आया। फोन के उस पार से आवाज आई,
“कबीर, मैं मां बोल रही हूं।”
कबीर कुछ पल चुप रहा। सालों से यह आवाज उसने नहीं सुनी थी। उसने धीमे से कहा,
“मां अब अचानक?”
सरोज की आवाज टूटी हुई थी,
“बेटा, सब खत्म हो गया। घर, बिजनेस, सब कुछ। अभिषेक जेल में है और मैं सड़क पर हूं।”

कबीर ने हैरानी से पूछा,
“जेल… पर क्यों?”
“वो जिस औरत के साथ रह रहा था, उसने सारा पैसा हड़प लिया और गायब हो गई। अब केस चल रहा है, मुझे समझ नहीं आ रहा मैं कहां जाऊं?”

कबीर ने गहरी सांस ली,
“मां, जहां ने कभी तुम्हारे लिए दरवाजा बंद नहीं किया, वहीं आ जाओ।”
सरोज रो पड़ी,
“पर मैं उस घर का सामना कैसे करूं, जहां नेहा रहती है?”
कबीर ने जवाब दिया,
“अब वही घर तुम्हारा सहारा बनेगा।”

शाम को कबीर ने जब यह बात नेहा को बताई तो कमरा कुछ पल के लिए बिल्कुल खामोश हो गया। नेहा ने सिर्फ इतना कहा,
“जिसने मुझे अपमानित किया, उसी को अब सहारा देना होगा।”
कबीर बोला,
“हां, शायद यही भगवान का इंसाफ है।”

नेहा कुछ देर तक सोचती रही। फिर बोली,
“कबीर, अगर मैं माफ कर दूंगी, तो क्या सच में सब ठीक हो जाएगा?”
कबीर ने उसका हाथ पकड़ा,
“कभी-कभी माफी दूसरों के लिए नहीं, खुद के लिए दी जाती है।”

अगले दिन दरवाजे पर दस्तक हुई। कबीर ने दरवाजा खोला। सामने वही चेहरा था, जिसने कभी नेहा को नीचा दिखाया था। सरोज के बाल बिखरे थे, आंखों में थकान, हाथ में सिर्फ एक पुराना थैला। उसने अंदर झांकते हुए धीरे से कहा,
“कबीर, मैं यहां रुक सकती हूं?”
कबीर ने कुछ नहीं कहा, बस साइड में हट गया।

नेहा कमरे से बाहर आई। उसकी नजरें कुछ पल के लिए ठहर गईं। सरोज ने उसकी तरफ देखा। होंठ कांपे,
“बहू, मैं… मैं शर्मिंदा हूं।”
नेहा ने एक गहरी सांस ली,
“अब बहू नहीं, बस इंसान समझिए। अंदर आइए, देर हो चुकी है।”

सरोज की आंखें भर आईं। वो झुककर जमीन पर बैठ गई,
“बेटी, मैंने तुम्हें मनहूस कहा था। लेकिन आज समझ आई कि मनहूस मैं खुद थी।”
नेहा ने उसे उठाया,
“नहीं मां, मनहूस कोई नहीं होता। बस वक्त बुरा होता है।”

उस शाम घर के कोने में एक दिया जल रहा था। नेहा ने वहीं जाकर हाथ जोड़ दिए,
“भगवान, आपने सच में देर की, लेकिन अंधेर नहीं किया।”

कबीर पीछे खड़ा मुस्कुरा रहा था।
“वो देखो, अब हमारे घर की रोशनी दो गुनी हो गई।”

नेहा ने पलट कर देखा। सरोज उस दिए के पास बैठी थी। आंखों से आंसू गिर रहे थे, पर चेहरे पर सुकून था। धीरे-धीरे सरोज की तबीयत सुधरने लगी। वो अब घर का हिस्सा बन गई और नेहा उनके लिए वही करने लगी, जो कभी उनसे चाहा था—देखभाल, सम्मान और प्यार।

कभी-कभी सरोज खुद कहती,
“तुमने तो मुझे वह सजा दी, जो माफी जैसी लगी।”

एक दिन कबीर घर आया तो देखा, सरोज और नेहा साथ में बैठकर पुराने एल्बम देख रही थीं। एक तस्वीर पर सरोज की नजर ठहर गई—अभिषेक और नेहा की शादी की फोटो।
“काश उस दिन मैंने तुम्हारे सिर पर आशीर्वाद दिया होता, तो शायद आज मेरा बेटा जेल में नहीं होता।”
नेहा ने शांत स्वर में कहा,
“मां, भगवान सब देखता है। गलती का जवाब बदले से नहीं, कर्म से मिलता है।”

उस रात जब सब सो गए, नेहा ने बरामदे में बैठकर आसमान देखा। हवा में वही ठंडक थी, लेकिन अब उसके भीतर कोई डर नहीं था। वो खुद को हल्का महसूस कर रही थी, जैसे सालों का बोझ उतर गया हो।

कबीर ने आकर पूछा,
“क्या सोच रही हो?”
नेहा मुस्कुराई,
“सोच रही हूं, कभी-कभी मनहूस कहलाने के बाद ही इंसान सबसे ज्यादा चमकता है।”
कबीर ने कहा,
“क्योंकि अंधेरा जब खत्म होता है, तभी रोशनी की कीमत समझ आती है।”

घर के भीतर अब तीन जिंदगियां थीं—एक जिसने अपमान झेला, एक जिसने साथ दिया और एक जिसने अपनी गलती से सीख ली। और तीनों के बीच अब सिर्फ एक चीज थी—शांति।

कई महीने बीत गए थे। नेहा और कबीर का घर अब खुशियों से भरा रहने लगा था। सरोज देवी भी अब पहले जैसी नहीं रही। ताने मारने वाली सास की जगह एक शांत और पश्चाताप से भरी मां रह गई थी।

कभी-कभी वे खुद कहतीं,
“नेहा, जब तू घर से निकली थी, तब लगा था सब खत्म हो गया। लेकिन अब समझ आई कि तू ही थी जिसने इस घर को बचाया।”

नेहा बस मुस्कुरा देती थी और फिर फैक्ट्री चली जाती। फैक्ट्री अब दो नहीं, पांच शाखाओं में चलने लगी थी। कबीर और नेहा मिलकर काम संभालते थे। एक मालिक, एक मैनेजर की तरह नहीं, बल्कि दो साथी बनकर।

नेहा ने अपने कर्मचारियों के लिए नया नियम बनाया था—यहां किसी औरत को उसकी अतीत से नहीं, उसके काम से पहचाना जाएगा। औरतें जो पहले सिर झुका कर आती थीं, अब मुस्कुरा कर लौटती थीं।

कबीर कहता,
“तुम्हारे अंदर किसी भगवान की छाया है नेहा।”
और नेहा जवाब देती,
“नहीं कबीर, बस दर्द से मिली ताकत है।”

लेकिन किस्मत का एक आखिरी इम्तिहान बाकी था। एक दिन दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोला तो सामने पुलिस थी। उनके साथ एक थका हुआ, कमजोर और टूटा हुआ इंसान खड़ा था—अभिषेक वर्मा। वह वही आदमी था जिसने एक दिन नेहा को मनहूस कहकर घर से निकाला था, अब वही आदमी अदालत से जमानत पाकर सिर झुकाए खड़ा था।

कंधों पर पुराने कपड़े, आंखों में पछतावा। सरोज ने उसे देखा और रो पड़ी,
“बेटा…”
अभिषेक ने बस इतना कहा,
“मां, अब मुझे मां कहने का हक नहीं।”

नेहा कुछ पल तक उसे देखती रही। वह चुप थी। उसके भीतर कोई गुस्सा नहीं था, बस एक लंबी खामोशी। कबीर ने आगे बढ़कर कहा,
“अंदर आ जाओ भैया। वक्त किसी का एक सा नहीं रहता।”

अभिषेक अंदर आया और सीधे नेहा के पैरों में गिर पड़ा,
“मुझे माफ कर दो नेहा। मैंने तुम्हारे साथ बहुत बुरा किया। जिसे घर की बदकिस्मती समझा, वह मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी बरकत निकली। जिसे मैंने मनहूस कहा, उसी ने मेरी मां को जीने की वजह दी।”

नेहा ने उसकी ओर देखा। चेहरे पर कोई अहंकार नहीं, बस शांति थी। उसने कहा,
“मैंने तुम्हें बहुत पहले माफ कर दिया था अभिषेक। क्योंकि अगर मैंने ना किया होता, तो आज इस घर में कोई रोशनी नहीं होती।”

कमरे में सन्नाटा छा गया। फिर सरोज ने जाकर नेहा को गले लगा लिया,
“बेटी, तूने सिर्फ हमें नहीं, खुद भगवान को जीत लिया है।”

कुछ दिन बाद अभिषेक वही रहने लगा। वो अब किसी बिजनेस की बात नहीं करता था, बस कबीर और नेहा के काम में मदद करता। नेहा ने उसकी आंखों में अब वह झुकाव देखा, जो कभी उसमें नहीं था—इज्जत का झुकाव।

धीरे-धीरे शहर में भी नेहा की कहानी फैलने लगी। लोग कहते,
“जिस औरत को घर से निकाल दिया गया था, उसने अपने कर्मों से इज्जत का घर खड़ा कर दिया।”

पत्रकार उसके पास आए। अखबार में छपी हेडलाइन थी—मनहूस कही जाने वाली नेहा बनी सैकड़ों औरतों की प्रेरणा। नेहा ने इंटरव्यू में बस इतना कहा,
“मैंने किसी से बदला नहीं लिया। मैंने सिर्फ खुद को साबित किया। भगवान के घर देर होती है लेकिन अंधेर नहीं।”

अब हर रविवार को नेहा फैक्ट्री की औरतों को इकट्ठा करती और कहती,
“अगर कोई तुम्हें कमतर कहे तो याद रखना, तुम्हारी कीमत उसके शब्द नहीं तय करते, तुम्हारे कर्म करते हैं।”

एक शाम जब सूरज ढल रहा था, सरोज बरामदे में बैठी नेहा से बोली,
“बेटी, तूने हमें वह सबक सिखाया जो मंदिर में भी नहीं सिखाया जाता। कभी किसी को उसकी किस्मत से मत आकना, वरना खुद की किस्मत रूठ जाएगी।”

नेहा ने उनके पैर छुए,
“मां, अगर मैं आज मुस्कुरा पा रही हूं, तो आपकी माफी ने मुझे हल्का कर दिया है।”

रात को कबीर छत पर आया। नेहा वहीं बैठी थी, आसमान देख रही थी।
“अब कुछ बाकी रह गया?”
नेहा ने मुस्कुराते हुए कहा,
“बस एक ख्वाहिश कि कोई और औरत अब मनहूस कहकर घर से ना निकाली जाए।”

कबीर ने उसका हाथ थाम लिया,
“और वह दिन आएगा, क्योंकि अब लोग नेहा वर्मा को जानते हैं, जो अंधेरे में भी रोशनी बन गई।”

नीचे सरोज दिया जला रही थी। हवा में शांति थी। वह घर जो कभी तानों से भरा था, अब दुआओं से गूंज रहा था। और उस दिए की लौ में जैसे भगवान खुद कह रहे थे—देर थी, पर अंधेर नहीं था