अंकल मेरी बहन को खरीद लो ये बहुत भूखी है , बस इसे खाना खिला देना ,बच्चे की बात सुनकर पुलिस वाले के
भाई-बहन का त्याग और इंसानियत – राजू, प्रिया और साकेत सिंह की कहानी
क्या होता है जब एक भाई का प्यार अपनी बहन की भूख के सामने घुटने टेक देता है? क्या एक 12 साल का बच्चा अपनी 5 साल की मासूम बहन का सौदा करने पर मजबूर हो सकता है? और क्या होता है जब यह दिल दहला देने वाली पेशकश एक ऐसे पत्थर दिल और सख्त पुलिस वाले के सामने रखी जाती है, जिसने अपनी जिंदगी के जख्मों के चलते इंसानियत पर से भरोसा ही खो दिया हो?
यह कहानी है राजू और प्रिया की। दो ऐसे मासूम बच्चों की, जो किस्मत के एक क्रूर खेल में अपने मां-बाप से बिछड़कर लावारिस हो गए थे। यह कहानी है भूख, लाचारी और एक भाई के अपनी बहन के लिए अद्भुत त्याग की। और यह कहानी है सब इंस्पेक्टर साकेत सिंह की – एक ऐसे पुलिस वाले की, जिसके लिए वर्दी और नियम ही सब कुछ थे। पर उसे क्या पता था कि ये दो मासूम बच्चे उसकी जिंदगी में सिर्फ एक केस बनकर नहीं, बल्कि उसके अपने गहरे जख्मों पर मरहम लगाने और उसके अंदर के खोए हुए इंसान को फिर से जगाने के लिए भेजे गए हैं।
चलिए महाराष्ट्र की सड़कों पर घटी इस अविश्वसनीय और रोंगटे खड़े कर देने वाली दास्तान की हर धड़कन को महसूस करते हैं।
पुणे शहर की वसंत विहार कॉलोनी
पुणे शहर, जो अपनी संस्कृति और आधुनिकता के संगम के लिए जाना जाता था। इसी शहर की एक शांत और पॉश कॉलोनी थी – वसंत विहार। यहां ऊंची-ऊंची दीवारें थीं, बड़े-बड़े बंगले थे और हर घर के बाहर महंगी गाड़ियां खड़ी थीं। इस कॉलोनी के लोगों के लिए गरीबी और लाचारी सिर्फ अखबारों की खबरें थीं।
इसी वसंत विहार के गेट पर सब इंस्पेक्टर साकेत सिंह की ड्यूटी लगी थी। 42 साल का साकेत सिंह पुलिस महकमे में एक ऐसा नाम था जिससे अपराधी तो क्या, खुद उसके सहकर्मी भी खौफ खाते थे। उसकी आंखों में एक अजीब सी ठंडक थी। चेहरे पर कभी मुस्कान नहीं होती थी और उसकी आवाज हमेशा एक पुलिस वाले के रोब से भरी रहती थी। उसके लिए दुनिया में दो ही तरह के लोग थे – कानून तोड़ने वाले और कानून का पालन करने वाले। भावनाओं के लिए उसकी जिंदगी में कोई जगह नहीं थी। वह अपना काम पूरी सख्ती और ईमानदारी से करता था।
पर उसकी इस सख्ती के पीछे एक गहरा दर्द छिपा था। एक ऐसा अतीत था जिसने उसे पत्थर बना दिया था। 7 साल पहले एक सड़क हादसे में उसने अपनी पत्नी और अपनी 5 साल की बेटी पिंकी को हमेशा के लिए खो दिया था। उस दिन के बाद से साकेत की दुनिया उजड़ गई थी। उसने खुद को पूरी तरह से काम में डुबो दिया था। घर उसके लिए अब सिर्फ चार दीवारें थीं, जहां रात की खामोशी और अपनी बेटी की यादें उसे काटने को दौड़ती थीं। उसने हंसना छोड़ दिया था। लोगों से मिलना-जुलना छोड़ दिया था। उसकी वर्दी ही अब उसका एकमात्र कवच थी, जिसके पीछे वह अपने सारे गम छिपा लेता था।
भाई का त्याग – भूख के आगे मजबूरी
उस दिन भी साकेत अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद था। दोपहर का समय था। सड़कें लगभग सुनसान थीं। वह अपनी जीप में बैठा फाइलों पर नजर दौड़ा रहा था। तभी उसकी नजर कॉलोनी के गेट की तरफ बढ़ते दो बच्चों पर पड़ी। एक लड़का कोई 12-13 साल का और एक छोटी सी बच्ची, जो मुश्किल से 5 साल की होगी। लड़के ने बच्ची का हाथ कसकर पकड़ रखा था। उनके कपड़े मैले और फटे हुए थे। बाल बिखरे और चेहरे पर कई दिनों की थकान और भूख साफ झलक रही थी।
साकेत के माथे पर बल पड़ गए। उसे लगा ये झुग्गी बस्ती के बच्चे हैं, जो यहां भीख मांगने या कोई छोटी-मोटी चोरी करने आए होंगे। उसने जीप का दरवाजा खोला और अपनी भारी आवाज में उन्हें पुकारा, “ऐ लड़के, यहां क्या कर रहे हो? चलो भागो यहां से।”
वो लड़का, जिसका नाम राजू था, उसकी आवाज सुनकर एक पल के लिए डर गया। पर फिर उसने अपनी छोटी बहन प्रिया के सूखे हुए चेहरे की ओर देखा। प्रिया भूख और प्यास से प्रायः बेहोश होने वाली थी। उसके पेट में जैसे चूहे नहीं, बल्कि भूखे शेर दौड़ रहे थे। पिछले तीन दिनों से उन्होंने सिवाय पानी और मंदिर में मिले थोड़े से प्रसाद के कुछ नहीं खाया था। राजू के अंदर का सारा डर जैसे एक ही पल में गायब हो गया। उसे आज अपनी बहन को किसी भी कीमत पर खाना खिलाना था।
वो अपनी बहन को खींचता हुआ साकेत सिंह के पास पहुंचा। उसकी आंखों में आंसू थे, पर आवाज में एक अजीब सी दृढ़ता थी। उसने साकेत की वर्दी को नहीं, बल्कि उसकी आंखों में झांकने की कोशिश की। शायद वहां उसे कोई इंसान नजर आ जाए।
“अंकल…” राजू ने कांपती हुई आवाज में कहा।
साकेत ने उसे घूर कर देखा, “क्या है? मैंने कहा ना, जाओ यहां से। कोई भीख नहीं मिलेगी।”
राजू घुटनों के बल जमीन पर बैठ गया। उसने अपनी छोटी बहन प्रिया को आगे किया। प्रिया की आंखें आधी बंद थीं और वह मुश्किल से खड़ी हो पा रही थी।
“अंकल, भीख नहीं मांग रहा। एक सौदा करने आया हूं।”
साकेत को आश्चर्य हुआ। “सौदा? यह भिखारी सा लड़का मुझसे क्या सौदा करेगा?”
राजू ने अपनी बहन की ओर इशारा करते हुए जो शब्द कहे, उसे सुनकर साकेत सिंह के पैरों तले जमीन खिसक गई। उसे लगा जैसे किसी ने उसके कानों में पिघला हुआ शीशा डाल दिया हो।
“अंकल, मेरी बहन को खरीद लो। यह बहुत भूखी है। मुझसे इसका दर्द और नहीं देखा जाता। आप इसे खरीद लो। बदले में पैसे मत देना, बस इसे पेट भर खाना खिला देना।”
यह कहते-कहते राजू फूट-फूट कर रोने लगा। एक 12 साल का भाई, जो अपनी बहन का रक्षक था, आज अपनी ही बहन का सौदा करने पर मजबूर था।
साकेत का बदलता दिल
साकेत सिंह, वो सख्त पुलिस वाला, वो पत्थर दिल इंसान एक पल के लिए जैसे सुन्न हो गया। उसके हाथ-पैर कांपने लगे। उसे अपनी बेटी पिंकी का चेहरा याद आ गया। अगर आज वह जिंदा होती तो वह भी ठीक प्रिया जितनी ही बड़ी होती। उसे लगा जैसे उसकी अपनी बेटी उससे खाना मांग रही हो। उसकी आंखों की सारी सख्ती, सारी नफरत आंसुओं के सैलाब में बह गई। उसने अपनी जिंदगी में बड़े-बड़े अपराधियों को देखा था, पर आज इस बच्चे की मासूमियत और लाचारी के सामने वह खुद को अपराधी महसूस कर रहा था।
उसने नीचे बैठकर राजू को उठाया और उसे अपने सीने से लगा लिया। “नहीं बेटा, कोई अपनी बहन को ऐसे नहीं बेचता। तुम दोनों मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें खाना खिलाऊंगा।”
एक नई शुरुआत
उस दिन वसंत विहार के लोगों ने एक ऐसा नजारा देखा, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। सख्त और हमेशा गुस्से में रहने वाला सब इंस्पेक्टर साकेत सिंह उन दो मैले-कुचैले बच्चों को अपनी गोद में उठाए अपनी जीप की ओर ले जा रहा था। उसके चेहरे पर गुस्सा नहीं, बल्कि एक पिता की ममता और पीड़ा थी। यह एक ऐसे सफर की शुरुआत थी, जो सिर्फ दो खोए हुए बच्चों को उनके घर तक ही नहीं, बल्कि एक खोए हुए इंसान को उसकी इंसानियत तक पहुंचाने वाला था।
भूख की राहत और भाई का प्यार
साकेत सिंह उन दोनों बच्चों को लेकर पास के एक छोटे से साफ-सुथरे रेस्टोरेंट में पहुंचा। उसने राजू और प्रिया को एक टेबल पर बिठाया और वेटर को उनके लिए खाना लाने को कहा। जब तक खाना आया, उसने पास की दुकान से उनके लिए जूस और बिस्किट मंगवाए। प्रिया तो इतनी भूखी थी कि वह बिस्किट देखकर ही उन पर टूट पड़ी। राजू अपनी बहन को देख रहा था। उसकी आंखों में आंसू थे, पर यह राहत के आंसू थे कि आज उसकी बहन का पेट भरेगा।
साकेत चुपचाप उन्हें देख रहा था। उसके दिल के अंदर भावनाओं का एक ऐसा तूफान उठा था, जिसे उसने सालों से दबा रखा था। प्रिया के छोटे-छोटे हाथ, उसकी मासूम आंखें, सब कुछ उसे अपनी बेटी पिंकी की याद दिला रहा था।
जब गरमागरम खाना आया तो राजू ने पहले अपनी बहन को अपने हाथों से खिलाना शुरू किया। उसने अपने लिए एक भी निवाला नहीं लिया। वह बस यह सुनिश्चित करना चाहता था कि उसकी बहन का पेट भर जाए।
“बेटा, तुम भी खाओ,” साकेत ने नरम आवाज में कहा। यह पहली बार था जब कोई उसकी आवाज में इतनी नरमी सुन रहा था।
राजू ने झिझकते हुए एक रोटी तोड़ी। खाना खाते-खाते उन बच्चों के चेहरों पर जो सुकून और शांति आ रही थी, वह साकेत के लिए किसी भी मेडल या सम्मान से बढ़कर थी।
बिछड़ना और संघर्ष की कहानी
जब दोनों बच्चों का पेट भर गया और उनकी आंखों में थोड़ी जान आई, तब साकेत ने बहुत ही प्यार से उनसे पूछना शुरू किया, “बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?”
“जी, मेरा नाम राजू है और यह मेरी बहन प्रिया है।”
“तुम लोग यहां क्या कर रहे हो? तुम्हारे मां-बाप कहां हैं?”
यह सवाल सुनते ही राजू का चेहरा फिर से उतर गया। उसकी आंखों में डर और उदासी लौट आई। “पता नहीं,” उसने धीमी आवाज में कहा, “हम ट्रेन में थे मां-पापा के साथ, फिर हम खो गए…”
राजू ने अपनी लड़खड़ाती हुई आवाज में पूरी कहानी सुनाई। वे असल में मध्य प्रदेश के एक छोटे से कस्बे इटारसी के रहने वाले थे। अपने माता-पिता मनीष और अंजू लता के साथ पुणे में एक रिश्तेदार की शादी में शामिल होने के लिए जा रहे थे। उनके पिता मनीष एक सरकारी स्कूल में क्लर्क थे और मां गृहणी। वे एक साधारण पर खुशहाल मध्यम वर्गीय परिवार थे।
उन्होंने इटारसी से पुणे के लिए एक एक्सप्रेस ट्रेन पकड़ी। ट्रेन में बहुत भीड़ थी। उन्हें स्लीपर क्लास में कंफर्म सीट नहीं मिली थी, इसलिए वे जनरल डिब्बे में सफर कर रहे थे। रात का समय था। मनीष और अंजू बहुत थके हुए थे, इसलिए वे अपनी सीट पर सो गए। राजू और प्रिया जाग रहे थे।
रास्ते में भुसावल स्टेशन पर ट्रेन काफी देर के लिए रुकी। रात के करीब 1 बजे थे। स्टेशन पर बहुत चहल-पहल थी। राजू को प्यास लगी। उसने सोचा कि वह नीचे उतरकर पानी की बोतल ले आए। उसने सोते हुए मां-बाप को देखा और सोचा कि उन्हें जगाना ठीक नहीं होगा। उसने प्रिया से कहा, “तू यहीं रुक, मैं अभी पानी लेकर आया।” पर प्रिया जो अपने भाई से एक पल के लिए भी अलग नहीं होती थी, चुपके से उसके पीछे-पीछे ट्रेन से उतर गई।
राजू ने एक स्टॉल से पानी की बोतल खरीदी। जब वह पलटा तो उसने प्रिया को अपने पीछे खड़ा पाया। “तू नीचे क्यों आई? मैंने मना किया था ना।” उसने प्रिया को डांटा। वे दोनों वापस ट्रेन की ओर भागे, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। ट्रेन ने सीटी दे दी थी और धीरे-धीरे प्लेटफार्म छोड़ रही थी। राजू ने दौड़कर चढ़ने की कोशिश की, पर भीड़ इतनी थी और प्रिया उसके साथ थी, इसलिए वह हिम्मत नहीं कर पाया। वे दोनों असहाय होकर अपनी आंखों के सामने उस ट्रेन को, जिसमें उनके मां-बाप सो रहे थे, अंधेरे में गुम होते हुए देखते रहे। वे दोनों उस अनजान स्टेशन पर बिल्कुल अकेले रह गए थे। उनके पास ना पैसे थे, ना किसी का फोन नंबर। राजू को बस अपने पिता का नाम और अपने कस्बे इटारसी का नाम पता था। पर भुसावल से इटारसी कैसे जाए, यह उसे नहीं पता था।
पहले तो वे बहुत रोए। फिर राजू ने हिम्मत बांधी। उसने अपनी छोटी बहन को समझाया, “तू चिंता मत कर, मैं हूं ना। हम मां-पापा को ढूंढ लेंगे।” उस दिन के बाद उनके संघर्ष की एक ऐसी कहानी शुरू हुई, जिसे सुनकर साकेत का पत्थर दिल भी मोम की तरह पिघल गया।
वे दो दिनों तक भुसावल स्टेशन पर ही रहे, इस उम्मीद में कि शायद उनके मां-बाप उन्हें ढूंढते हुए वापस आएंगे। पर कोई नहीं आया। फिर किसी ने उन्हें बताया कि पुणे जाने वाली एक और ट्रेन है। शायद उनके मां-बाप पुणे में उनका इंतजार कर रहे हों। वे किसी तरह बिना टिकट के एक ट्रेन में चढ़ गए और पुणे पहुंच गए। पर पुणे स्टेशन पर हजारों की भीड़ में वे किसे ढूंढते? वे किससे पूछते? उनके पास अपने उस रिश्तेदार का भी कोई पता नहीं था, जिनकी शादी में वे जा रहे थे।
अगले तीन दिन उनके लिए नर्क जैसे थे। वे कभी स्टेशन पर सोते, कभी किसी मंदिर के बाहर। जो थोड़ा बहुत पैसा राजू की जेब में था, वह खत्म हो चुका था। वे लोगों से भीख नहीं मांगना चाहते थे, पर भूख इंसान को कुछ भी करने पर मजबूर कर देती है। राजू छोटे-मोटे काम की तलाश में भटकता, पर कोई भी एक 12 साल के बच्चे को काम पर रखने को तैयार नहीं था। प्रिया भूख से बेहाल हो रही थी और आज जब राजू से अपनी बहन की हालत देखी नहीं गई, तो उसने अपनी इज्जत, अपना स्वाभिमान सब कुछ दांव पर लगाकर अपनी बहन को बेचने का वह दिल दहला देने वाला फैसला ले लिया था।
इंसानियत की जीत
पूरी कहानी सुनकर साकेत सिंह की आंखों से आंसू बह रहे थे। वे उस बच्चे के साहस और उसकी मजबूरी को महसूस कर पा रहे थे। उसने सोचा, इस दुनिया में कितना दर्द है, कितनी लाचारी है और मैं अपनी ही छोटी सी दुनिया के गम में डूबा हुआ था। उसने राजू के सिर पर हाथ रखा, “बेटा, अब तुम्हें डरने की जरूरत नहीं है। मैं तुम्हें तुम्हारे मां-बाप से मिलवाऊंगा। यह मेरा वादा है।”
उस दिन साकेत सिंह ने सिर्फ एक वादा नहीं किया था, बल्कि अपनी जिंदगी को एक नया मकसद दे दिया था। अब उसे सिर्फ दो बच्चों को उनके परिवार से नहीं मिलाना था, बल्कि अपने अंदर के उस इंसान को भी वापस पाना था, जो सालों पहले कहीं खो गया था।
मां-बाप की तलाश
उधर सैकड़ों किलोमीटर दूर मनीष और अंजुलता की दुनिया जैसे थम सी गई थी। जब उनकी आंख खुली और उन्होंने अपने बच्चों को पास नहीं पाया, तो उनके पैरों तले जमीन खिसक गई। उन्होंने पूरी ट्रेन छान मारी, हर सहयात्री से पूछा, पर किसी को कुछ पता नहीं था। वे अगले स्टेशन पर उतर गए, रेलवे पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई, पर भीड़भाड़ वाली भारतीय ट्रेनों में बच्चों का खो जाना एक ऐसी दुखद सच्चाई थी, जिसका कोई आसान हल नहीं था। वे दोनों पागलों की तरह स्टेशन-बाय-स्टेशन अपने बच्चों की तस्वीरें लेकर भटक रहे थे। हर गुजरते पल के साथ उनकी उम्मीद टूटती जा रही थी।
साकेत के लिए भी यह केस आसान नहीं था। उसने राजू और प्रिया को फिलहाल अपने साथ अपने सरकारी क्वार्टर में रखने का फैसला किया। यह एक बहुत बड़ा फैसला था। सालों से उसके घर में सिर्फ खामोशी का राज था। आज वहां दो बच्चों की किलकारियां और उनकी मासूम बातें गूंजने वाली थीं। जब वह उन दोनों को लेकर अपने घर पहुंचा, तो उसका छोटा सा साफ-सुथरा और व्यवस्थित घर जैसे खिल उठा। उसने उनके लिए खाना बनाया, उन्हें अपने हाथों से नहलाया। जब वह प्रिया के बालों में कंघी कर रहा था, तो उसे लगा जैसे वह अपनी बेटी पिंकी को तैयार कर रहा हो। सालों बाद उसकी आंखों में पिता की ममता की नमी थी।
उसने बच्चों के लिए नए कपड़े खरीदे, खिलौने खरीदे। रात में जब प्रिया ने डरकर उसका हाथ पकड़ लिया, तो उसने उसे अपने पास ही सुला लिया। वह रात साकेत सालों बाद चैन की नींद सोया। उसके सपनों में आज कोई भयानक हादसा नहीं, बल्कि एक छोटी सी बच्ची की मुस्कान थी।
तलाश पूरी हुई
अगले दिन से साकेत ने अपनी पूरी ताकत और पुलिसिया दिमाग उन बच्चों के मां-बाप को ढूंढने में लगा दिया। उसने सबसे पहले भुसावल और पुणे के रेलवे पुलिस स्टेशनों से संपर्क साधा। उसने मनीष और अंजुलता द्वारा लिखवाई गई गुमशुदगी की रिपोर्ट निकलवाई। रिपोर्ट में बच्चों का जो हुलिया और कपड़ों का विवरण था, वह राजू और प्रिया से पूरी तरह मेल खाता था। अब यह तो तय हो गया था कि ये बच्चे उन्हीं के हैं। पर अब सबसे बड़ी चुनौती थी मनीष और अंजुलता को ढूंढना। रिपोर्ट में उनका इटारसी का पता तो था, पर उनका फोन नंबर नहीं था। और वे दोनों इस वक्त कहां भटक रहे होंगे, यह कोई नहीं जानता था।
साकेत ने इटारसी के स्थानीय पुलिस स्टेशन में फोन किया और उन्हें मनीष के घर जाकर पता करने को कहा। वहां से पता चला कि घर पर ताला लगा है और पड़ोसियों को भी नहीं पता कि वे कहां हैं। साकेत ने हार नहीं मानी। उसने रेलवे के अधिकारियों से बात करके उस दिन के ट्रेन के यात्रियों की लिस्ट निकलवाने की कोशिश की, पर जनरल डिब्बे की कोई लिस्ट नहीं होती थी।
दिन बीतते जा रहे थे। राजू और प्रिया अब साकेत के साथ काफी घुलमिल गए थे। वे उसे “साकेत अंकल” कहकर बुलाते थे। साकेत भी अपनी ड्यूटी के बाद सारा वक्त उन्हीं के साथ गुजारता। वे उन्हें घुमाने ले जाता, उनके साथ खेलता। वह भूल ही गया था कि वह एक सख्त पुलिस वाला है। अब वह सिर्फ एक पिता था।
एक दिन जब साकेत राजू से बात कर रहा था, तो उसने बातों-बात में अपनी मां के बारे में कुछ बताया, “मेरी मां हमेशा कहती थी कि पुणे में उनकी एक सहेली रहती हैं – विमला मौसी। वे उन्हें फोन करने वाली थीं, पर कर नहीं पाई।” साकेत को जैसे एक सुराग मिल गया। उसने राजू से उस विमला मौसी के बारे में और पूछने की कोशिश की, पर राजू को सिर्फ इतना ही पता था कि वे पुणे के शिवाजी नगर इलाके में रहती हैं।
शिवाजी नगर एक बहुत बड़ा इलाका था। वहां किसी विमला नाम की औरत को ढूंढना भूसे के ढेर में सुई खोजने जैसा था। पर साकेत के लिए यह एक उम्मीद की किरण थी। उसने अगले दो दिन अपनी ड्यूटी के बाद शिवाजी नगर की हर गली, हर मोहल्ले में घूम-घूम कर लोगों से विमला नाम की उस औरत के बारे में पूछताछ की, जिनके कोई रिश्तेदार इटारसी से आने वाले थे। कई लोगों ने मना कर दिया, कई ने उसे शक की निगाहों से देखा, पर साकेत लगा रहा और आखिरकार उसकी मेहनत रंग लाई।
एक किराने की दुकान वाले ने बताया कि हां, ऐसी एक महिला पास की ही एक सोसाइटी में रहती हैं और वह अक्सर इटारसी की बातें करती हैं। साकेत का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। वो उस पते पर पहुंचा। उसने दरवाजे की घंटी बजाई। एक अधेड़ उम्र की महिला ने दरवाजा खोला।
“जी, आप विमला जी हैं?”
“जी, कहिए।”
“आपके कोई रिश्तेदार इटारसी से आने वाले थे? मनीष और अंजुलता?”
यह सुनते ही विमला जी की आंखों में चिंता की लहर दौड़ गई। “हां, पर वे तो पहुंचे ही नहीं। हम लोग बहुत परेशान हैं। उनका कोई फोन भी नहीं लग रहा। क्या… क्या आप पुलिस से हैं? क्या कोई खबर है?”
साकेत ने एक गहरी सांस ली, “आप चिंता मत कीजिए। आपके रिश्तेदार तो नहीं, पर उनके बच्चे मेरे पास हैं, बिल्कुल सुरक्षित।”
उस दिन उस घर में जो भावनाओं का मंजर था, उसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है। विमला जी ने रोते हुए साकेत को धन्यवाद दिया। उन्होंने बताया कि मनीष और अंजु पिछले एक हफ्ते से पुणे और आसपास के शहरों में पागलों की तरह भटक रहे हैं। उनका फोन शायद कहीं गिर गया था, इसलिए संपर्क नहीं हो पा रहा था। विमला जी ने तुरंत अपने पति को फोन किया और उन्हें मनीष और अंजु को ढूंढकर लाने को कहा।
मिलन का पल
अगले दिन साकेत, राजू और प्रिया को लेकर विमला मौसी के घर पहुंचा। वहां का माहौल देखने लायक था। मनीष और अंजु, जो अब तक रो-रो कर और भटक-भटक कर आधे हो चुके थे, अपने बच्चों को सामने जिंदा और सही-सलामत देखकर जैसे अपनी सुधबुध खो बैठे। वो दौड़कर अपने बच्चों से लिपट गए। मां-बाप और बच्चों के आंसुओं ने मिलकर एक ऐसा संगम बनाया, जिसने हर देखने वाले की आंखों को नम कर दिया।
राजू और प्रिया भी अपने मां-बाप के सीने से लगकर ऐसे रो रहे थे, जैसे वे अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी जंग जीतकर लौटे हों।
जब भावनाओं का ज्वार कुछ शांत हुआ, तो मनीष और अंजु ने साकेत के पैर पकड़ लिए, “साहब, हम आपका यह एहसान सात जन्मों में भी नहीं चुका सकते। आपने हमारे बच्चों को नहीं, हमारी जिंदगियों को बचाया है।”
साकेत ने उन्हें उठाकर गले से लगा लिया, “यह मेरा फर्ज था। और सच कहूं, तो इन बच्चों ने मुझे जितना दिया है, उतना मैंने इन्हें नहीं दिया। इन्होंने मुझे फिर से जीना सिखा दिया।”
मनीष ने अपनी जेब से कुछ पैसे निकालकर साकेत को देने की कोशिश की, पर साकेत ने हाथ जोड़ दिए, “मेरे बच्चों की देखभाल की कीमत लगाकर मुझे शर्मिंदा मत कीजिए।”
नई रोशनी – इंसानियत की मिसाल
उस दिन के बाद साकेत सिंह की जिंदगी पहले जैसी नहीं रही। वह अब भी एक सख्त पुलिस वाला था, पर अब उसकी आंखों में वह पुरानी ठंडक नहीं, बल्कि एक अजीब सी नरमी और चमक थी। उसके घर की दीवार पर अब उसकी पत्नी और बेटी की तस्वीर के साथ-साथ राजू और प्रिया की भी एक मुस्कुराती हुई तस्वीर लगी थी।
राजू और प्रिया का परिवार वापस इटारसी लौट गया, पर वे हर हफ्ते साकेत अंकल को फोन करना कभी नहीं भूलते थे।
कहानी का संदेश
दोस्तों, यह कहानी हमें सिखाती है कि इंसानियत और फर्ज का कोई मोल नहीं होता। एक छोटी सी नेकी, एक छोटा सा प्यार भरा कदम ना सिर्फ किसी और की, बल्कि हमारी अपनी जिंदगी को भी एक नया मकसद और एक नई रोशनी दे सकता है। साकेत ने दो बच्चों को बचाया, पर असल में उन बच्चों ने साकेत के अंदर के उस अकेले और टूटे हुए इंसान को बचाया था।
अगर राजू के अपनी बहन के लिए त्याग या साकेत सिंह के इस अद्भुत बदलाव ने आपके दिल को छुआ है, तो इस कहानी को अपने दोस्तों और परिवार के साथ जरूर शेयर करें ताकि इंसानियत का यह संदेश हर किसी तक पहुंच सके।
धन्यवाद!
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