अपनी बेटी को लेने गया पिता — ससुराल पहुंच कर जो देखा, रूह काँप गई

टूटे रिश्ते और एक बेटी की नई उड़ान

भाग 1: सफेद हवेली के सामने की जंग

सफेद रंग की आलीशान हवेली के सामने एक साधारण सी टैक्सी आकर रुकी। अविनाश शर्मा टैक्सी से उतरे। उन्होंने सादा कुर्ता पजामा पहना था, पर उनकी आँखों में एक अटल संकल्प और गहरा गुस्सा था। हवेली का गेट इतना बड़ा था कि वह अविनाश के साधारण व्यक्तित्व के सामने अहंकार की तरह खड़ा लग रहा था।

गेट पर नौकर ने झिझकते हुए कहा, “मालिक, मालकिन अंदर हैं, क्या आप इंतज़ार करेंगे?”

अविनाश ने शांत, पर दृढ़ स्वर में जवाब दिया, “ज़रूरत नहीं। बात यहीं होगी।”

ऊपर की बालकनी से शालिनी देवी उतरीं। वह काली साड़ी पहने थीं, जो उनकी कठोरता को और भी उभार रही थी। उन्होंने नीचे आते ही अविनाश को देखते हुए सीधे पूछा, “तो बेटी को लेने आए हैं?”

अविनाश ने धीमे स्वर में कहा, “हाँ। क्योंकि अब वो यहाँ बहू नहीं, बल्कि कैदी लगती है।”

उनकी आवाज़ सुनकर आन्या हवेली के दरवाज़े से बाहर आई। उसकी आँखें सूजी हुई थीं, उनमें दर्द और अपमान भरा था। उसके पीछे-पीछे उसका पति, अर्जुन भी आया। अर्जुन के चेहरे पर एक गहरी झिझक थी, वह अपनी माँ और ससुर के बीच फँसा हुआ महसूस कर रहा था।

अविनाश ने अर्जुन से सीधे पूछा, “बोलो बेटा, क्या आन्या के साथ इतना बुरा सुलूक किया गया?”

अर्जुन चुप रहा। वह नज़रे नहीं मिला पाया।

शालिनी तुरंत बीच में बोलीं, “सुलूक नहीं, सिखाना पड़ा है। इसे घर की रीति नहीं आती।”

अविनाश ने एक पल शालिनी की आँखों में देखा और धीमे से कहा, “रीति अगर बहू का अपमान करे, उसे कैद करे, तो वह संस्कार नहीं, अपराध है।”

यह सुनकर आन्या की हिम्मत बंधी। उसकी आवाज़ काँप रही थी, पर उसने पहली बार हिम्मत की, “मुझे… मुझे कमरे में बंद कर दिया गया था, क्योंकि मैंने कहा था कि मैं नौकरी जारी रखना चाहती हूँ।”

अविनाश ने अपनी बेटी का हाथ पकड़ा। “चलो बेटी, अब बस।”

शालिनी चीख़ पड़ीं, “अगर आज गई, तो कभी मत लौटना!

अविनाश क्षण भर के लिए रुक गए। वह मुड़े और कहा, “मैं बेटी को ले जा रहा हूँ, पर दरवाज़ा बंद नहीं कर रहा। शायद कभी आपको भी सच नज़र आ जाए।”

आन्या ने एक बार पीछे मुड़कर हवेली को देखा, फिर सिर झुका लिया। अर्जुन की आँखों से पहली बार आँसू गिरे, पर उसके कदम नहीं हिले। टैक्सी धीरे-धीरे हवेली से दूर चल पड़ी।

सड़क पर खामोशी थी। अविनाश ने धीरे से आन्या के सिर पर हाथ फेरा, “बेटी, कुछ घर इज़्ज़त से नहीं, दिल से बचाए जाते हैं।” आन्या की आँखों से गिरे आँसू इस बार दर्द के नहीं, राहत के थे।

भाग 2: डर से राहत तक

रात को मल्होत्रा हाउस में आन्या अपनी माँ की गोद में चुपचाप सो गई। दूसरी ओर, अविनाश बालकनी में खड़े थे। उनके मन में सिर्फ एक विचार था: अब लड़ाई इंसानियत की होगी, न दहेज की, न अहम (अहंकार) की।

उसी रात, अर्जुन अपनी माँ के कमरे के बाहर बैठा था। उसके हाथ में फ़ोन था, पर वह कॉल करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। उसने धीरे से टाइप किया: “माफ़ कर दो, आन्या। अब मैं डरूँगा नहीं।” मैसेज भेजा और फ़ोन रख दिया। उस रात किसी ने खाना नहीं खाया, न सोया। पर तीनों की ज़िंदगी बदलने की घड़ी शुरू हो गई थी।

भाग 3: काउंसलिंग सेंटर में सच का सामना

सुबह आन्या की नींद टूटी। टेबल पर रखे फ़ोन की स्क्रीन जल रही थी — दस मिस कॉल, सब अर्जुन के। उसने उँगली रखी, पर कॉल नहीं उठाया।

अविनाश दरवाज़े पर आकर धीरे से बोले, “बेटी, आज एक मीटिंग रखी है। तुम्हें चलना होगा। ससुराल वालों के साथ। बिना लड़े, बिना बदले, बस बात करनी है।”

दो घंटे बाद, एक काउंसलिंग सेंटर के छोटे कमरे में चार कुर्सियाँ थीं। आन्या, अविनाश, अर्जुन और शालिनी। काउंसलर ने कहा, “यहाँ कोई बहस नहीं होगी। सिर्फ सुनना होगा।”

शालिनी ने तुरंत कुर्सी पीछे धकेल दी। “हमारे घर की बहू काउंसलिंग सेंटर में बैठेगी? यह शर्म की बात है।”

अविनाश ने धीरे से कहा, “कभी-कभी शर्म सच्चाई सुनने में नहीं, गलत किया मानने में होती है।”

काउंसलर ने आन्या से पूछा। वह धीरे-धीरे बोली, “हर दिन कहा गया कि मेरे पापा ने परवरिश में कमी की है। मेरा फ़ोन छीन लिया गया, मुझे जॉब छोड़ने को कहा गया। मैं हँसना भूल गई, बस घर में कैद होकर रह गई।”

शालिनी उपहास में हँसी, “नौकरी करने की हठ थी, तो घर टूटना ही था।”

अविनाश शांत स्वर में बोले, “घर विश्वासघात से टूटता है, नौकरी से नहीं।”

अर्जुन जो अब तक चुप था, उसने पहली बार सिर उठाया। “माँ, मैं जानता हूँ आप ग़लत नहीं सोचतीं, पर तरीका ग़लत था। आन्या से मैं प्यार करता हूँ, पर मैं डरता रहा कि आप क्या कहेंगी।”

शालिनी चिल्लाई, “तो अब मुझसे सवाल उठ रहा है?”

अर्जुन शांत स्वर में बोला, “नहीं माँ, बस अब सही-ग़लत पहचान रहा हूँ।”

काउंसलर ने कहा, “समाधान तभी होगा, जब ग़लती मानी जाए।” शालिनी ने कंधे झटक दिए। “हमने कुछ नहीं किया।”

तभी अविनाश ने एक कागज़ निकाला। “यह आपके घर के सीसीटीवी फुटेज से है। दरवाज़ा बंद करते वक़्त आपकी आवाज़ साफ़ आई है। अब इसे बताएँ, क्या यह ‘सुधार’ था?”

कमरे में सन्नाटा छा गया। शालिनी की निगाहें नीचे झुक गईं।

अविनाश ने धीरे से कहा, “मैं पुलिस या अदालत नहीं लाया, क्योंकि मुझे रिश्ता बचाना था। अगर आप बदलने को तैयार हैं, तो हम भी माफ़ करने को तैयार हैं।”

आन्या ने धीरे से कहा, “मैं सिर्फ़ इतना चाहती हूँ कि मुझे अपना निर्णय ख़ुद लेने की आज़ादी मिले।”

अर्जुन ने सामने देखकर कहा, “मैं उसके सपनों के साथ खड़ा रहना चाहता हूँ। माँ, अगर आप इजाज़त दे सकें, तो हम फिर से शुरू कर सकते हैं।”

शालिनी कुछ नहीं बोली। सिर्फ़ कहा, “मुझे समय चाहिए।”

आन्या उठ गई। दरवाज़े तक पहुँचकर धीरे से कहा, “मैं भी यही कहना चाहती थी… समय चाहिए।”

अविनाश ने अर्जुन की पीठ पर हाथ रखा। “समय अगर सच्चा हो, तो रिश्ते बच जाते हैं।”

भाग 4: सखी का उदय और अहंकार का टूटना

घर लौटते वक़्त आन्या की आँखों में डर कम, सुकून ज़्यादा था। वह टूटी नहीं थी, बल्कि अपने सच के साथ सामने खड़ी थी।

तीन हफ़्ते बाद, अविनाश ने आन्या को उसके पुराने प्रोजेक्ट की कंपनी में वापस जाने को कहा।

पर आन्या ने शांत स्वर में कहा, “मैं वहाँ नहीं जाऊँगी। मैं ‘सखी’ नाम से एक नई पहल शुरू करना चाहती हूँ। ऐसी औरतों के लिए, जो शादी के बाद अपना करियर खो देती हैं।”

अविनाश मुस्कुराए। “अब लग रहा है, मेरी बेटी वापस आ गई है।”

तीन हफ़्ते बाद, ‘सखी’ का पहला सेमिनार हुआ। आन्या ने मंच पर खड़ी होकर कहा, “जो रिश्ता आज़ादी छीन ले, वो रिश्ता नहीं, क़ैद है।”

अर्जुन ने सोशल मीडिया पर यह वीडियो देखा और तुरंत मैसेज किया, “मुझे तुम पर गर्व है।”

उसी रात हवेली में शालिनी के पास पड़ोस की काकी आईं। उन्होंने कहा, “बहुओं पर हुकूमत चलाकर कोई घर नहीं चलता बेटी। दिल खोलो, तो बेटा भी लौट आएगा।” शालिनी ने कोई जवाब नहीं दिया। पर पहली बार उन्हें अपनी चुप्पी भारी लगी।

अगले दिन अर्जुन ने माँ से कहा, “मैं ‘सखी’ के प्रोग्राम से जुड़ना चाहता हूँ। हमारी कंपनी वहाँ की महिलाओं को ट्रेनिंग दे सकती है।”

शालिनी चौंकी। “वो लड़की अब हमारे घर की नहीं।”

अर्जुन ने शांत स्वर में कहा, “लेकिन वह मेरे दिल में अब भी है।

शालिनी कुछ पल चुप रहीं। फिर धीमे से बोलीं, “अगर वह तुम्हारे ज़रिए कुछ अच्छा कर रही है, तो शायद मैं ग़लत नहीं, बस देर से सही समझी।”

भाग 5: मां और बेटी

उसी शाम शालिनी ने पहली बार आन्या को कॉल किया।

शालिनी की आवाज़ काँप रही थी, “अगर तुम इजाज़त दो, तो कल मिलना चाहती हूँ।”

कुछ पल सन्नाटा रहा। फिर आन्या ने कहा, “कल सुबह दस बजे, सखी ऑफ़िस में आ जाइए।”

अगली सुबह, हवेली में हलचल थी। शालिनी पहली बार बिना नौकर के निकलीं। सादा सूती साड़ी और आँखों में सच्चा पछतावा

‘सखी’ ऑफ़िस के बाहर गाड़ी रुकी। रिसेप्शन पर बैठी लड़की ने कहा, “मैडम मीटिंग में हैं।”

शालिनी ने धीरे से कहा, “कह दो, कोई माँ मिलने आई है।

दरवाज़ा खुला। शालिनी ने कुर्सी नहीं ली। बस खड़ी रहकर बोलीं, “मैंने तुम्हारे साथ बहुत ग़लत किया, आन्या। मैंने तुम्हें सिर्फ़ बहू समझा और वही मेरी सबसे बड़ी हार थी।”

आन्या ने कुछ पल सोचा। फिर कुर्सी से उठी। “माफ़ी से ज़्यादा ज़रूरी है, बदलावमाँ।”

शालिनी ने चौंककर देखा। पहली बार आन्या ने उन्हें ‘माँ’ कहा था, बिना किसी मजबूरी के। अर्जुन भी उसी वक़्त अंदर आया। शालिनी मुस्कुराईं, “तू सही था, बेटा। प्यार डर से नहीं चलता।

भाग 6: इंसानियत की जीत

कुछ महीनों बाद, हवेली में फिर रोशनी थी। पर इस बार सजावट किसी रस्म के लिए नहीं, बल्कि ‘सखी’ की नई शाखा के उद्घाटन के लिए थी। हवेली का आंगन अब एक ट्रेनिंग सेंटर बन चुका था। बीच में एक बोर्ड लगा था: “मल्होत्रा हाउस: अब हर बेटी का घर।”

शालिनी मंच पर खड़ी होकर बोलीं, “मैंने एक बहू से सीखा कि इज़्ज़त उम्र या पद से नहीं, इंसाफ़ से मिलती है। आज मैं अपनी हर ग़लती का परिणाम सुधार में दिखा रही हूँ।”

तालियाँ गूँज उठीं। आन्या और शालिनी ने गले लगाया। एक लंबे समय की दूरी उसी पल मिट गई।

अर्जुन ने कहा, “माँ, अब यह घर सच में घर लग रहा है।”

अविनाश ने मुस्कुराते हुए कहा, “जिस दिन सास बहू नहीं, माँ-बेटी बन जाए, उसी दिन इंसानियत जीत जाती है।”

रात को हवेली की सीढ़ियों पर आन्या और शालिनी बैठी थीं। शालिनी ने उसका हाथ थामा, “जब लौटो, तो ससुराल नहीं, घर कहकर आना।”

आन्या मुस्कुराई, “अब यह घर है, माँ, और आप मेरी पहचान।

घर के बाहर एक नया बोर्ड लगा था: इस घर में औरत का सम्मान किसी रस्म से नहीं, उसके अधिकार से तय होगा। आन्या की आँखों में अब ख़ुशी के आँसू थे।