अपाहिज पिता की देखभाल के लिए होस्टल छोड़ आई बेटी, फाइनल इग्ज़ाम में मिला ऐसा इनाम कि देख कर सबके होश
एक बेटी का सपना और पिता का धर्म
एक बेटी का सबसे बड़ा सपना है – अपने पैरों पर खड़ा होना, कुछ बनना, माँ-बाप का नाम रोशन करना। इसी तरह एक पिता का सबसे बड़ा धर्म है – अपनी बेटी को उसके सपनों को उड़ान देने में मदद करना, चाहे उसके लिए खुद को आग में क्यों ना झोंकना पड़े। लेकिन अगर सपनों और कर्तव्य के बीच चुनाव करना पड़े, तो क्या होता है? यही कहानी है आंचल की।
मध्य प्रदेश के छोटे से शहर विदिशा, जहाँ बेतवा नदी के किनारे पुरानी कहानियाँ हर रोज़ रोज़ गूंजती रहती हैं, एक दो कमरे के मकान में रिटायर्ड पोस्ट मास्टर श्रीकांत शर्मा अपनी इकलौती बेटी आंचल के साथ रहते थे। श्रीकांत जी ने पूरी ज़िंदगी ईमानदारी से गुज़ारी थी, भले ही कई बार मजबूरी में सूखी रोटी ही क्यों न खानी पड़ी हो, पर बेटी को कभी किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं होने दी। उनकी पत्नी का निधन सालों पहले हो गया, अब पूरी दुनिया बस आंचल ही थी।
आंचल सुंदर थी, लेकिन उससे कहीं ज्यादा मेहनती थी। उसने अपने पिता के संघर्षों को करीब से देखा था। उसका सपना था – एक बड़ी सिविल इंजीनियर बनना। उसने राज्य की सबसे कठिन परीक्षा पास कर ली और भोपाल के प्रख्यात इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला मिल गया। श्रीकांत जी फूट-फूटकर रो पड़े, बेटी को हॉस्टल छोड़ते हुए बोले, “हर पुल ऐसा बनाना, बेटी, कि कोई तूफ़ान उसे हिला न सके।”
कॉलेज में आंचल ने दिन रात कड़ी मेहनत की। चार साल की मेहनत के बाद, फाइनल एग्जाम के दो महीने बाकी थे। भरोसा था – वो टॉप करेगी और शानदार नौकरी पाकर पिता को अपने पास बुला लेगी, उनके लिए सुंदर घर बनाएगी। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था।
अचानक आया संकट
एक रात आंचल पढ़ाई में डूबी थी, तभी फोन बजा। पड़ोसी शर्मा अंकल था – “बेटा जल्दी आ जाओ, तुम्हारे पापा छत से गिर गए हैं, रीढ़ की हड्डी में गहरी चोट है।” – आंचल की ज़मीन खिसक गई। भोपाल से विदिशा कब पहुँच गई, वह खुद नहीं जानती। पापा अस्पताल में बेजान पड़े थे और डॉक्टर ने कह दिया – “अब शायद ये कभी अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पाएंगे।”
श्रीकांत जी को घर लाया गया। पूरी तरह बिस्तर पकड़ लिए। शुरू में रिश्तेदार, पड़ोसी मदद को आए, फिर सब अपने-अपने जीवन में व्यस्त हो गए। आंचल के सामने कठिन सवाल था – फाइनल एग्जाम या पिता की सेवा? दिमाग कहता – “नर्स का इंतज़ाम कर, चार साल की मेहनत बर्बाद न कर।” दिल कहता – “जिस पापा ने सबकुछ दिया, उसे ज़रूरत के वक़्त अकेला कैसे छोड़ दूं?”
आंचल ने फैसला लिया – वह पापा के पास रहेगी। लंबे अवकाश के लिए आवेदन किया, कॉलेज नहीं गई। सुबह से रात तक पापा की सेवा में लगी रहती। नहलाना, खाना खिलाना, दवा और मालिश – सबकुछ माँ की तरह किया।
संघर्ष और परीक्षा
दिन-रात का तनाव, पड़ोसियों की फुसफुसाहटें – “बेचारी अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर रही है।” – आंचल ने परवाह नहीं की। पापा की एक मुस्कान उसके लिए दुनिया की सबसे बड़ी चीज थी। श्रीकांत जी अपनी लाचारी से टूट जाते, कहते – “मैं बोझ बन गया हूं।” – आंचल जवाब देती – “पापा, आप मेरी दुनिया हैं।”
एग्जाम के सिर्फ 15 दिन बचे थे, कोर्स अधूरा, घबराहट बढ़ती गई। परीक्षा के दिन आ गया। आंचल ने पापा को पड़ोसन के हवाले किया और एग्जाम देने पहुंची। उसकी आंखों के सामने बस पापा का चेहरा था। पेपर मिला – ज्यादातर सवाल मुश्किल। अंत में आया एक केस स्टडी – एक ऐसी बहुमंज़िला इमारत का डिजाइन जो विकलांगों और बुजुर्गों की ज़रूरतों को पूरा कर सके, कम लागत में।
बदलाव की शुरुआत
आंचल की आंखों में चमक आ गई। पिछले महीने का अनुभव – पिता की बेबसी, घर की हर सीढ़ी, हर दरवाज़ा, शौचालय की दिक्कत – सब याद आया। उसने केवल तकनीकी हल ही नहीं निकाला बल्कि हर बात का मानवीय दृष्टिकोण से हल लिखा। बटन से खुलने वाले दरवाज़े, व्हीलचेयर के लिए मोटर पट्टी, विशिष्ट बाथरूम, हर चीज़ का कम लागत में प्लान तैयार किया। जवाब के आखिर में लिखा – “यह सिर्फ एक इमारत का डिजाइन नहीं, मेरे पापा और लाखों लोगों के लिए उम्मीद का घर है।”
असली इनाम
महीने भर बाद रिजल्ट आया – आंचल ने यूनिवर्सिटी में टॉप किया। उस आखिरी सवाल में 100 में से 100 नंबर, इतिहास में पहली बार। एक दिन आंचल के घर पर शानदार कार आकर रुकी, थे श्री आर. के. डालमिया – देश के सबसे बड़े कन्स्ट्रक्शन ग्रुप के मालिक। उन्होंने बताया – वही यूनिवर्सिटी ट्रस्टी चेयरमैन हैं, वही सवाल उन्होंने सेट किया था। उनकी पत्नी भी एक्सीडेंट के बाद वीलचेयर पर थीं – वे समझते हैं उस दर्द को।
आंचल को दिया Appointment Letter – “डालमिया ग्रुप के Social Infrastructure Division Head” – लाखों का पैकेज, साथ ही जिम्मेदारी – पूरे देश में “Hope Homes” प्रोजेक्ट को लीड करो। और, ‘आपके पापा जर्मनी के सबसे अच्छे स्पाइन सेंटर में इलाज करवाएंगे, कल ही एयर एम्बुलेंस से भेजेंगे।’
आंचल की आखों से आंसू थम नहीं रहे थे। उसने करियर दांव पर लगाया था, बदले में मिला – ऐसा करियर, ऐसा सम्मान, जहां अब वह अपने पापा के लिए ही नहीं, बल्कि लाखों लोगों के लिए उम्मीद की नई सुबह बसा सके।
सीख
जब हम निस्वार्थ भाव से अपने कर्तव्य निभाते हैं, सेवा और त्याग करते हैं – किस्मत खुद झुकती है। असली शिक्षा किताबों में नहीं, सेवा और प्रेम में है।
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