एक अनाथ बच्चे ने मंदिर के बाहर जो किया, भगवान भी रो पड़े…फिर जो हुआ… इंसानियत रो पड़ी।

मंदिर की सीढ़ी से आश्रय तक: आरव की कहानी
प्रस्तावना
धर्मपुर शहर की पहचान उसके करुणेश्वर महादेव मंदिर से थी। लोग कहते थे, इस दरबार में कोई खाली नहीं लौटता। किसी को नौकरी चाहिए, किसी को संतान, किसी को बीमारी से राहत या सफलता—हर कोई अपनी मनोकामना लेकर आता था। मंदिर की सीढ़ियों पर फूल बिखरते, दूध बहता, धूप की खुशबू तैरती और पंडित जी की आवाज लाउडस्पीकर में गूंजती रहती। लेकिन इन सब के बीच एक बच्चा था, जिसे न कोई देखता, न कोई पहचानता—ना ही कोई उसकी जरूरतों की तरफ ध्यान देता।
उस बच्चे का नाम था आरव। उम्र लगभग दस साल। कोई घर नहीं, कोई स्कूल नहीं, कोई पहचान नहीं। मंदिर के आसपास के दुकानदार उसे नाम से नहीं, ‘छोटू’ या ‘ओए हट’ कहकर पुकारते। कोई सिक्का डाल जाता, कोई तिरस्कार कर देता। आरव वह सिक्का उठाता भी नहीं था। वह जानता था कि भूख का इलाज शायद मिल जाए, लेकिन अकेलेपन का नहीं।
भाग 1: मंदिर के बाहर की दुनिया
आरव का दिन मंदिर के बाहर शुरू होता और वहीं खत्म होता। सुबह जब पुजारी झाड़ू लगाते, आरव अपने थैले में पत्थर भरकर तकिया बना लेता और झपकी ले लेता। दोपहर में भीड़ के बीच अदृश्य सा हो जाता। शाम की आरती में घंटे बजते, लोग हाथ जोड़ते और आरव उन घंटियों की आवाज में अपने अंदर का शोर दबा देता। रात को मंदिर के बाहर बने छोटे शेड में बोरे का टुकड़ा ओढ़कर सो जाता। बारिश में मंदिर की दीवार से सटकर बैठ जाता ताकि पानी कम लगे।
उसकी भूख सिर्फ पेट की नहीं थी। यह वह भूख थी, जो हर उस बच्चे के अंदर होती है जिसे कोई बेटा कहकर नहीं बुलाता, कोई घर ले जाने को नहीं कहता। उसकी भूख अपनापन पाने की थी।
भाग 2: सोमवार की सुबह
एक सोमवार की बात है। मंदिर में भीड़ सबसे ज्यादा थी। लोग मानते थे, सोमवार को शिव की पूजा से मनोकामना जल्दी पूरी होती है। मंदिर के बाहर लंबी लाइन थी—कोई दूध, कोई बेलपत्र, कोई फूल, कोई नारियल, कोई अगरबत्ती लेकर आया था। दान पेटी में नोट डाल रहे थे। आरव अपनी जगह पर बैठा था। उसकी आंखों के नीचे काले घेरे थे। दो दिन से उसने ठीक से कुछ नहीं खाया था। पहले दिन किसी ने आधी रोटी दी थी, जिसे रात में एक कुत्ता ले गया। दूसरे दिन भंडारे में लाइन लगाने की कोशिश की, लेकिन एक आदमी ने धक्का देकर कहा, “पहले हाथ-मुंह धोकर आ। बदबू आती है।” पानी की टंकी पर ताला था। जब लौटा, लाइन खत्म हो चुकी थी।
उस सोमवार की सुबह उसकी भूख शरीर को तोड़ रही थी। पेट में जलन थी। उसकी आंखें मंदिर के शिवलिंग पर टिक गईं। वह देखता रहा—दूध बह रहा था, जल चढ़ रहा था, फूल गिर रहे थे। उसने होंठ हिलाए, “भगवान, आप इतना दूध पीते हो, थोड़ा सा मुझे दे सकते हो क्या?” खुद को बचकाना लगा, हंसना चाहा, हंसी नहीं आई।
भीड़ बढ़ती गई। आरव की आंखें लोगों के हाथों की तरफ देखती रही—किसी के हाथ में मिठाई, किसी के हाथ में फल, किसी के हाथ में प्रसाद। और उसके हाथ खाली थे।
भाग 3: एक भूल, एक मौका
भीड़ में एक महिला आई, करीब 35 साल की। उसके साथ एक छोटी बच्ची थी। महिला ने पूजा की, दान पेटी में नोट डाले, प्रसाद लिया और बाहर निकलते हुए अपना थैला सीढ़ियों के पास रख दिया। शायद बच्ची का हाथ पकड़ा या फोन आ गया, वह थैला वहीं भूल गई। कुछ कदम चलकर भीड़ में खो गई।
थैला वही पड़ा था। आरव ने देखा, उसकी आंखों में चमक आई, लेकिन डर भी था। उसने चारों तरफ देखा—कोई उसे देख तो नहीं रहा। मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे लोग आपस में बातें कर रहे थे, दुकानदार ग्राहक से पैसे ले रहा था, पुजारी व्यस्त था। कोई आरव को नहीं देख रहा था।
उसने हिम्मत करके थैला उठा लिया। मंदिर की दीवार के पास जाकर खोला—अंदर चार रोटियां, दो केले, एक छोटी डिब्बी में मिठाई। शायद महिला अपने घर के लिए लाई थी। आरव का गला भर आया। वह जानता था, अगर अभी रोटी का एक टुकड़ा भी खा ले तो दुनिया सीधी हो जाएगी। उसके हाथ कांप रहे थे। उसने रोटी उठाई, देखा, और अचानक उसकी आंखों से आंसू गिर पड़े। लेकिन उसने रोटी नहीं खाई। थैला बंद किया और सीधा मंदिर के अंदर चला गया।
भाग 4: भगवान के सामने सवाल
मंदिर के अंदर आमतौर पर बच्चे दौड़ते हैं, शोर करते हैं या डरते हैं। आरव ना दौड़ा, ना डरा। बस धीरे-धीरे चला। लोगों ने देखा, कुछ ने भौंहें चढ़ाई। पुजारी ने आवाज लगाई, “ए, तू अंदर क्यों आया? बाहर बैठ!” लेकिन आरव रुका नहीं। शिवलिंग के सामने जमीन पर बैठ गया, थैला खोला। सन्नाटा छा गया। कुछ लोग हंसने लगे, “देखो यह बच्चा क्या कर रहा है?” कोई बोला, “भूख से पागल हो गया है।”
पुजारी गुस्से में आगे बढ़ा, पर आरव की आंखें शिवलिंग पर थी। उसने रोटी निकाली, दोनों हाथों से तोड़ा, शिवलिंग के पास रख दी। फिर केला, फिर मिठाई का थोड़ा सा हिस्सा। सबके सामने बोला, “भगवान, यह सब मुझे मिला है। पर मैं अकेला हूं। आप भी तो अकेले हो। सब आते हैं, मांगते हैं और चले जाते हैं। कोई आपसे नहीं पूछता कि आप कैसे हो। आज पहले आप खाओ, फिर मैं खाऊंगा।”
लोग चौंक गए। पुजारी का हाथ हवा में रुक गया। किसी ने कहा, “नाटक कर रहा है।” कोई बोला, “इसको बाहर निकालो।” लेकिन आरव के चेहरे पर कोई चालाकी नहीं थी। वह सच में मान रहा था कि भगवान उसके सामने बैठे हैं।
भाग 5: इंसानियत का सवाल
आरव ने सिर झुका लिया। उसकी सांस तेज चल रही थी। भूख से शरीर में ताकत नहीं थी, लेकिन विश्वास था। उसने कहा, “मंदिर भगवान का घर है ना? घर में खाना रखा जाता है।” पुजारी चुप हो गया। भीड़ भी चुप हो गई। क्योंकि एक बच्चा जब सच्चाई बोल देता है तो बड़े अपने झूठ को पहचान लेते हैं।
आरव ने कहा, “आज मैं नहीं खाऊंगा। अगर भगवान ने खा लिया तभी खाऊंगा। अगर भगवान नहीं खाएंगे तो मैं भी नहीं खाऊंगा। हम दोनों साथ भूखे रहेंगे।” लोगों को यह बचकाना लगा, पर उसी बचकानेपन में एक चोट थी। मंदिर में बैठे कई लोगों को याद आया, वे कितनी बार भगवान से शिकायत करते हैं, “आपने मेरी नहीं सुनी।” लेकिन भगवान के सामने बैठे किसी भूखे बच्चे को किसने नहीं सुना?
भाग 6: गिरना और उठना
आरव वही बैठा रहा। लोग उसे घूरते रहे। पुजारी कुछ देर खड़ा रहा, फिर हटाने के लिए आगे बढ़ा। लेकिन उसकी आंखें भर आई। भीड़ में एक बूढ़ी औरत थी—शारदा अम्मा। वह हर सोमवार मंदिर आती थी। उसकी उम्र 70 के करीब थी। वह आरव को बहुत ध्यान से देख रही थी। जैसे उसके चेहरे में किसी पुरानी याद को खोज रही हो।
शारदा अम्मा आगे आई, पुजारी से बोली, “पंडित जी, इसे मत हटाइए।” पुजारी ने गुस्से में देखा, “अम्मा, यह नियम तोड़ेगा।” शारदा अम्मा की आंखें नम थी, “आज नियम नहीं, इंसानियत देखिए।”
आरव की सांस धीमी हो रही थी। भूख और कमजोरी उसे घेर रही थी। उसे चक्कर आया, दीवार का सहारा लेने की कोशिश की, लेकिन हाथ में ताकत नहीं थी। उसका सिर झुका और वह वहीं गिर पड़ा। अफरातफरी मच गई—“अरे बच्चा गिर गया!” पानी लाओ, डॉक्टर बुलाओ! भीड़ में किसी ने एंबुलेंस बुला ली। एक आदमी ने आरव को गोद में उठाया, मंदिर के बाहर छांव में लिटाया। उसकी सांस बहुत धीमी थी। शारदा अम्मा उसके पास बैठ गई, सिर पर हाथ फेरने लगी।
अचानक आरव की उंगलियां हिली। उसकी आंखें आधी खुली। उसने चारों तरफ देखा, फिर बहुत धीमे से बोला, “भगवान, आपने खा लिया?” वह बेहोश होकर भी अपने विश्वास को नहीं छोड़ा।
भाग 7: अस्पताल और सच का खुलासा
एंबुलेंस आ गई। आरव को अस्पताल ले जाया गया। डॉक्टर ने जांच की, “बहुत कमजोरी है, कुपोषण है, डिहाइड्रेशन है। अभी बच सकता है, लेकिन देखभाल चाहिए।” देखभाल—यह शब्द आरव ने शायद पहली बार अपने लिए सुना था। देखभाल कौन करेगा? उसका कोई नहीं था। अस्पताल के कागजों में अभिभावक के कॉलम में क्या लिखा जाएगा? मंदिर भगवान?
डॉक्टर ने पूछा, “इसके माता-पिता?” पुजारी चुप हो गया। दुकानदार ने कहा, “हम देखेंगे।” अस्पताल के एक वार्ड में आरव को रखा गया। उसके हाथ में ड्रिप लगी, होठ सूखे थे, माथे पर पसीना था। शारदा अम्मा उसके पास बैठी रही। उनका हाथ उसके बालों में था। वह बड़बड़ा रही थी, “मीरा, मेरी मीरा।”
पुजारी ने सुना तो चौंक गया, “अम्मा, आप क्या कह रही हैं?” शारदा अम्मा की आंखें भर आई। “पंडित जी, क्या आपको वो रात याद है? कई साल पहले जब मंदिर की सीढ़ियों पर एक लड़की दर्द में अकेली…” पुजारी का चेहरा बदल गया। उसे याद आया, एक रात बारिश में मंदिर बंद था। बाहर एक गर्भवती महिला पड़ी थी। शारदा अम्मा ने उसे अपने घर ले जाने की कोशिश की थी। बच्चा जन्मा और लड़की चली गई। बच्चा मंदिर के पास ही रहने लगा।
“उस लड़की का नाम मीरा था। उसकी आंखें भी ऐसी ही थी। यह बच्चा वही है। मुझे अब समझ आया। भगवान ने इसे अपने घर के बाहर रखा, पर हम लोगों ने इसे अपना नहीं बनाया।”
भाग 8: नया परिवार, नया जीवन
अगले दिन मंदिर में खबर फैल गई—मंदिर का बच्चा अस्पताल में है। लोग अस्पताल आने लगे। कोई फल, कोई दूध, कोई बिस्कुट, कोई कंबल लेकर आया। कोई बोला, “हम इसके स्कूल का खर्च उठाएंगे।” कोई बोला, “हम इसे घर ले जाएंगे।” कई लोग बस फोटो खिंचवाकर सोशल मीडिया पर डालना चाहते थे। शारदा अम्मा ने सबको रोका, “मदद दिखावे की नहीं होगी, निभाई जाएगी।”
तीन दिन बाद आरव की तबीयत सुधरी। उसकी आंखें खुलकर देखने लगी। वह बहुत देर तक कुछ नहीं बोला, बस लोगों के चेहरे देखता रहा। एक दिन उसने शारदा अम्मा का हाथ पकड़ लिया, “आप कौन हो?” शारदा अम्मा की आंखों में आंसू आ गए, “मैं तेरी अम्मा जैसी।” आरव ने सिर झुका लिया, पहली बार किसी के सामने रोया, बिना छिपे, बिना शर्म के।
अस्पताल से छुट्टी के बाद असली सवाल शुरू हुआ—आरव जाएगा कहाँ? मंदिर में रहना आसान था, पर सही नहीं। घर तो किसी के दिल में बनता है। शारदा अम्मा ने कहा, “आरव मेरे साथ रहेगा।” लोगों ने पूछा, “अम्मा, आपकी उम्र?” अम्मा ने कहा, “दिल जिंदा है तो काफी है। मेरा बेटा बाहर रहता है, कभी आता नहीं। मेरे घर में जगह है और मेरे दिल में भी।”
मदद के नियम बने—हर महीने एक निश्चित जिम्मेदारी। कोई उसकी पढ़ाई देखेगा, कोई कपड़े, कोई किताबें, कोई डॉक्टर। मंदिर ट्रस्ट ने बैठक बुलाई। पहली बार दान का हिसाब एक बच्चे के लिए लिखा गया।
भाग 9: पढ़ाई, पहचान और बदलाव
आरव को स्कूल में दाखिला मिला। यूनिफार्म पहनाई गई। आईने के सामने खड़ा था—नीली पट्टी, सफेद शर्ट, गले में टाई। बाल काटे गए, चेहरे पर साबुन लगा। खुद को पहचान नहीं पा रहा था। शारदा अम्मा ने सिर पर हाथ रखा, “देख, तू वही है, बस अब दुनिया तुझे देख रही है।”
स्कूल में बच्चे उसे घूरते, कुछ हंसते, कुछ फुसफुसाते, “यह वही है ना जो मंदिर में रहता था?” आरव चुप रहता, डरता था कि कहीं सब कुछ फिर छिन जाए। पढ़ाई में डूब गया, ताकि लोग उसे दया से नहीं, सम्मान से देखें। धीरे-धीरे उसका स्वभाव बदलने लगा। आंखों में सन्नाटा कम हुआ, चेहरे पर हल्की मुस्कान आने लगी। घर में शारदा अम्मा के लिए पानी भरता, दवा लाता, बाजार से सब्जी लाता। मंदिर भी जाता, पर अब अंदर जाकर घंटी बजाने और भगवान के सामने सिर झुकाने।
भाग 10: भाषण और नई सोच
एक दिन स्कूल में कार्यक्रम था—ईमानदारी और इंसानियत पर भाषण। मास्टर ने बच्चों से अनुभव साझा करने को कहा। आरव मंच पर गया, माइक पकड़ा, कुछ सेकंड चुप रहा। मास्टर ने कहा, “डर मत, बोल।” आरव ने सांस ली, “मैं पहले मंदिर के बाहर रहता था। लोग भगवान से बहुत कुछ मांगते थे, पर कोई मुझे नहीं पूछता था। एक दिन मुझे रोटी मिली, मैंने सोचा पहले भगवान खाए। क्योंकि अगर भगवान मेरे हैं तो मैं उनका हूं। मैंने रोटी रख दी और मैं गिर गया। फिर लोग मुझे देखने लगे। मैं कहना चाहता हूं कि भगवान मंदिर में नहीं, लोगों के अंदर होते हैं। अगर कोई भूखा है और आप उसे नहीं देखते, तो आप भगवान को भी नहीं देख रहे।”
पूरा स्कूल सन्न रह गया। तालियां बजने लगी। लेकिन यह तालियां प्रतियोगिता की नहीं थी, सच की थी।
भाग 11: संघर्ष और सपनों की उड़ान
समय बीतता गया। आरव 10 से 12 का हुआ, 12 से 15 का। मेहनत की, हमेशा पहला या दूसरा आता। अब लोग उसे मंदिर का बच्चा नहीं, आरव बेटा कहते थे। शारदा अम्मा के घर में उसके लिए छोटा कमरा बन गया—किताबें, टेबल, भगवान का चित्र। रात को पढ़ता, सुबह जल्दी उठकर अम्मा के पैर दबाता। शारदा अम्मा खुश रहती। घर अब सच में घर लगने लगा था।
पर जिंदगी हर कहानी को सिर्फ मिठास नहीं देती। एक साल ऐसा आया जब शारदा अम्मा बीमार रहने लगी। सांस फूलती, घुटनों में दर्द, बार-बार चक्कर। डॉक्टर ने कहा, “ध्यान रखना होगा।” आरव डर गया, लगा फिर सहारा छूट जाएगा। पढ़ाई के साथ-साथ काम भी शुरू कर दिया—शाम को स्टेशनरी की दुकान पर दो घंटे बैठने लगा ताकि घर के खर्च में मदद हो सके।
एक रात अम्मा की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई। आरव ने मोहल्ले के लोगों और डॉक्टर को बुलाया, अस्पताल ले गया। डॉक्टर ने कहा, “हम कोशिश कर रहे हैं।” आरव अस्पताल के बाहर मंदिर की तरफ बैठ गया, आंखें भीग गईं। मन में कहा, “भगवान, आपने मुझे मां दी, अब मत छीनो।” सुबह डॉक्टर ने कहा, “अब खतरा टल गया, पर देखभाल चाहिए।”
उस दिन आरव ने महसूस किया—भगवान रोते हों या न रोते हों, इंसान अगर किसी को अपना बना ले तो जिंदगी बच सकती है। उसी दिन उसने फैसला किया—बड़ा होकर डॉक्टर बनेगा।
भाग 12: डॉक्टर बनने का सफर
बोर्ड के एग्जाम आए, अच्छे नंबर आए। शहर के बड़े कॉलेज में दाखिला मिला। फीस की समस्या आई, मंदिर ट्रस्ट और शहर के लोगों ने मदद की। कॉलेज की दुनिया अलग थी—सबके पास घर, मां-बाप, पैसे, सपने थे। आरव के पास सपने थे, पर मां-बाप नहीं। शुरुआत में अकेला महसूस करता, दोस्त पूछते, “तेरे पापा क्या करते हैं?” मुस्कुरा कर कह देता, “मेरे पापा बहुत बड़े हैं।”
पढ़ाई के साथ-साथ अस्पताल में इंटर्नशिप की। मरीजों को करीब से देखा—गरीब, असहाय, डर से भरे हुए। लगा, खुद को देख रहा है। वह लोगों से नरमी से बात करता, कहता, “मुझे पता है दर्द कैसा होता है।”
समय ने करवट ली। आरव डॉक्टर बन गया। डिग्री हाथ में थी, आंखें भर आईं। सबसे पहले शारदा अम्मा याद आई। धर्मपुर भागा, मंदिर के सामने वही सीढ़ियां, वही घंटी, वही धूप, वही फूल। पर अब वह सीढ़ियों के कोने में बैठने नहीं आया था, अपने शहर को लौटाने आया था।
भाग 13: लौटना और लौटाना
शारदा अम्मा के घर गया। अम्मा कमजोर हो चुकी थी, आंखों की चमक वही थी। उन्होंने आरव को देखा, हाथ कांपने लगे, “आ गया मेरा डॉक्टर।” आरव ने उन्हें गोद में उठाया, “आपका बेटा लौट आया।”
मंदिर में आरती थी। पुजारी बूढ़े हो चुके थे, मोहन हलवाई की दुकान अब उसके बेटे ने संभाली थी, विनोद मास्टर के बाल सफेद हो चुके थे। जब आरव मंदिर में दाखिल हुआ, सबकी आंखें भर आईं। पुजारी ने माथा चूमा, “बेटा, तू लौट आया।” आरव ने शिवलिंग के सामने बैठकर आंखें बंद की, वही दिन याद आया जब रोटियां रखी थी, कहा था, “पहले आप खाओ।” आंखों से आंसू गिर गए। धीमे से कहा, “भगवान, आपने खा लिया था ना? उस दिन आपने नहीं, इंसानियत ने खाया।”
मंदिर की सीढ़ियों पर एक छोटा बच्चा बैठा था, गंदे कपड़ों में, कमजोर, उसी कोने में। बच्चा किसी के पीछे प्रसाद मांगने की हिम्मत नहीं कर रहा था। बस देख रहा था। आरव उसके पास गया, बच्चा डरकर सिर झुका लिया। आरव ने थाली रखी—रोटी, सब्जी, फल, दूध। बच्चा कांपते हाथों से थाली की तरफ बढ़ा, फिर रुक गया, पूछा, “पहले भगवान खाएंगे?” आरव का दिल फट गया। बच्चे को बाहों में भर लिया, “बेटा, भगवान आज तेरे सामने है, भगवान चाहते हैं कि तू खाए।” बच्चे की आंखों में आंसू आ गए, “तो क्या मैं अनाथ नहीं हूं?” “नहीं, आज से नहीं।”
भाग 14: आश्रय की शुरुआत
आरव ने मंदिर ट्रस्ट के सामने प्रस्ताव रखा—शहर के जितने बच्चे सड़क पर हैं, मंदिर के आसपास, स्टेशन पर, उनके लिए एक आश्रय बनेगा। सिर्फ खाना नहीं, स्कूल, दवा, कपड़े और सबसे जरूरी—एक नाम। कोई बच्चा ‘छोटू’ नहीं कहलाएगा, नाम से बुलाया जाएगा।
कुछ महीनों में एक छोटा केंद्र बना—मीरारव आश्रय। शारदा अम्मा ने उद्घाटन किया, पुजारी ने मंत्र पढ़े, मास्टर ने किताबें बांटी, मोहन हलवाई ने मिठाई। आरव ने बच्चों से कहा, “मैं तुम में से ही हूं। फर्क इतना है कि किसी दिन किसी ने मुझे देख लिया था। अब मेरी बारी है कि मैं तुम्हें देखूं।”
शारदा अम्मा ने कहा, “बेटा, उस दिन तूने रोटी भगवान को रखी थी, आज तूने रोटी इंसानियत को रख दी।”
“अम्मा, भगवान भी इंसानियत में ही रहते हैं।”
कुछ समय बाद शारदा अम्मा बहुत शांत हो गई। उनकी तबीयत कमजोर होने लगी। एक रात उन्होंने आरव का हाथ पकड़ा, “मैं तुझे मंदिर की सीढ़ी से उठाया था। अब तूने कितनों को उठाया। मेरा मन भर गया।”
आरव रो पड़ा, “अम्मा, मुझे छोड़कर मत जाओ।”
“मैं कहीं नहीं जा रही। मैं हर उस बच्चे की थाली में रहूंगी जो भूखा नहीं सोएगा।”
उस रात अम्मा की आंखें बंद हो गई। आरव का सिर उनके हाथ पर झुक गया। अगली सुबह आरव मंदिर गया, शिवलिंग के सामने बैठा, कोई बड़ी प्रार्थना नहीं की। बस इतना कहा, “भगवान, अगर आप रोते हो तो आज मत रोना। आज अम्मा आपके पास आई है, उन्हें अपने पास रख लेना।”
भाग 15: नई पीढ़ी, नया संदेश
मंदिर की सीढ़ियों पर वही बच्चा बैठा था, अब साफ कपड़ों में, किताब हाथ में। आरव को देखकर मुस्कुराया। जैसे सालों पहले का आरव उसे दूर से हाथ हिला रहा है।
अब धर्मपुर में सोमवार को मंदिर जाते हैं, दान पेटी में नोट डालते हैं, बेलपत्र चढ़ाते हैं। लेकिन मंदिर की पहली सीढ़ी पर एक बोर्ड लगा है—“यहां कोई बच्चा भूखा नहीं बैठेगा। अगर दिखे तो समझो भगवान तुम्हें पुकार रहे हैं।”
और जब कोई नया बच्चा आश्रय में आता है, डरा हुआ, टूटे कपड़ों में, आरव उसे वही बात कहता है जो उसने खुद से सीखी थी—“तू अनाथ नहीं है बेटा। बस अब तक कोई तुझे देख नहीं पाया था। अब तू दिख रहा है। अब तू हमारा है।”
समापन
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जय हिंद।
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