एक वाचमैन ने एक जज की बेटी को छेड़ने वाले अमीरजादों से बचाया तो उसे बुरी तरह डांटा गया, फिर जज ने

“बहादुर सिंह: इंसानियत की मिसाल”

चंडीगढ़—सिटी ब्यूटीफुल। चौड़ी सड़कें, हरे-भरे पार्क, अनुशासित माहौल। लेकिन हर चमकते शहर के अंधेरे कोने होते हैं, जहां रात के सन्नाटे में कभी-कभी हैवानियत इंसानियत पर भारी पड़ जाती है।

इसी शहर के सेक्टर आठ में जस्टिस आलोकनाथ कुलकर्णी का सरकारी बंगला था। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के सख्त, ईमानदार और बेहद सम्मानित जज। उनकी दुनिया थी उनकी इकलौती बेटी—रिया कुलकर्णी। रिया, 18 साल की, लॉ कॉलेज की पहली साल की छात्रा, अपने पिता की तरह ही जज बनना चाहती थी। खूबसूरत, लेकिन जमीन से जुड़ी। अपनी स्कूटी पर कॉलेज जाती, क्योंकि पिता ने उसे सादगी और आत्मनिर्भरता सिखाई थी।

कहानी शुरू होती है नवंबर की एक सर्द रात से। रिया अपनी लॉ एंट्रेंस की कोचिंग से लौट रही थी। रात के साढ़े नौ बजे, कोहरे की चादर में लिपटा शहर, सुनसान सड़कें। घर से कुछ ही दूर, एक अंधेरे मोड़ पर एक काली SUV ने उसका रास्ता रोक लिया। चार लड़के उतरे—शहर के बड़े बिल्डर के बेटे, शराब के नशे में चूर। वे कई दिनों से रिया का पीछा कर रहे थे। आज उसे अकेला पाकर उन्होंने अपनी हैवानियत दिखाने की कोशिश की।

एक लड़के ने स्कूटी की चाबी निकाल ली, दूसरा उसका हाथ पकड़ने बढ़ा। रिया डरी नहीं। उसने ताकत से धक्का दिया, चीखी—”हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?” लड़के हंसे, बोले—”शेरनी में गुस्सा बहुत है, आज सारी हैकड़ी निकाल देंगे।” उन्होंने रिया को घेर लिया। रिया मदद के लिए चीखने लगी, लेकिन सड़क सुनसान थी।

उसी वक्त पास की कोठी के गेट पर अपनी ड्यूटी पर आया था बहादुर सिंह—50 साल का गोर्खा, नेपाल का सीधा-साधा, ईमानदार वॉचमैन। दुबला-पतला शरीर, लेकिन फौजी जैसी दृढ़ता। 20 साल से इसी शहर में काम कर रहा था। पहचान—खाकी वर्दी, भारी टॉर्च, मजबूत बांस की लाठी।

बहादुर सिंह ने लड़की की चीख सुनी। एक पल ठिटका—अमीर लड़कों का मामला, खुद मामूली गार्ड। चाहता तो अनदेखा कर सकता था। लेकिन उसे अपनी बेटी याद आ गई। उसके अंदर का पिता और गोर्खा की बहादुरी जाग उठी। उसने लाठी उठाई और दौड़ पड़ा।

वहां पहुंचा तो देखा—चारों लड़के रिया को दबोचने ही वाले थे। बहादुर सिंह का खून खौल उठा। घायल शेर की तरह उन पर टूट पड़ा। लाठी से दो लड़कों को गिरा दिया। लेकिन चार थे, वो अकेला। वे उस पर टूट पड़े। सिर पर लात, पेट में घूंसा, लाठी छूट गई, मुंह से खून बहने लगा, वर्दी फट गई। लेकिन बहादुर सिंह ने हार नहीं मानी। उसने रिया को अपनी पीठ के पीछे कर लिया, एक ढाल की तरह खड़ा हो गया।

तभी दूर से पुलिस की पेट्रोलिंग वैन का सायरन सुनाई दिया। लड़के घबरा गए। बहादुर सिंह के सिर पर आखिरी वार किया और भाग गए। बहादुर सिंह जमीन पर गिर पड़ा, लगभग बेहोश। रिया दौड़कर उसके पास आई, चुन्नी फाड़कर उसके सिर से खून रोकने लगी। पुलिस पहुंची, घटना सुनी, बहादुर सिंह को अस्पताल ले जाने लगे। लेकिन बहादुर सिंह ने कहा—”पहले बिटिया को घर पहुंचाओ, मेरी चिंता मत करो।”

घायल हालत में बहादुर सिंह रिया की स्कूटी पर पीछे बैठा, उसे उसके घर तक छोड़ने गया। जस्टिस कुलकर्णी ने बेटी को उस हालत में और खून से लथपथ वॉचमैन को देखा तो उनके होश उड़ गए। रिया ने रोते हुए सब बताया। जस्टिस कुलकर्णी की आंखें कृतज्ञता से भर आईं। उन्होंने खुद बहादुर सिंह को अच्छे अस्पताल में भर्ती कराया, बेहतरीन इलाज दिलाया।

अगली सुबह चंडीगढ़ ने कानून का वो रूप देखा जो पहले कभी नहीं देखा था। जस्टिस कुलकर्णी ने पुलिस कमिश्नर को अपने चेंबर में बुलवाया। रिया की एफआईआर और SUV के नंबर के आधार पर चारों लड़कों को गिरफ्तार किया गया। उनके अमीर पिताओं ने बचाने की कोशिश की, वकीलों की फौज खड़ी कर दी। लेकिन इस बार उनका सामना खुद जस्टिस कुलकर्णी से था।

उन्होंने केस को फास्ट ट्रैक कोर्ट में चलवाया। खुद सुनवाई करने के लिए विशेष अनुमति ली। कोर्ट रूम खचाखच भरा था। जस्टिस कुलकर्णी बोले—”कानून की नजर में हर इंसान बराबर है। औरत की इज्जत पर हमला पूरे समाज और कानून की आत्मा पर हमला है।” चारों को अपहरण, छेड़छाड़, जानलेवा हमला में दोषी पाया। 10-10 साल की सश्रम कारावास और 1-1 करोड़ का जुर्माना लगाया। आदेश दिया—आधा जुर्माना रिया को, आधा बहादुर सिंह को।

फैसला सुनकर शहर में मिसाल कायम हो गई। लेकिन जस्टिस कुलकर्णी यहीं नहीं रुके। उन्होंने कहा—”इस कहानी का असली हीरो कानून की किताबों में नहीं, हमारी सड़कों पर खड़ा है।” बहादुर सिंह को कोर्ट में बुलाया गया, पट्टियों में लिपटा, लेकिन चाल में गर्व। जस्टिस कुलकर्णी अपनी कुर्सी से नीचे उतरे, हाथ जोड़कर बोले—”बहादुर सिंह जी, मैं आपको सलाम करता हूं। आपने हमें याद दिलाया कि इंसानियत जिंदा है।”

उन्होंने 2 करोड़ का चेक देने की कोशिश की, लेकिन बहादुर सिंह ने विनम्रता से मना कर दिया—”मैंने जो किया, इनाम के लिए नहीं किया। यह मेरा फर्ज था। अगर उस दिन बिटिया की जगह मेरी बेटी होती, तो भी यही करता।” उसकी निस्वार्थता और आत्मसम्मान देखकर जस्टिस कुलकर्णी की आंखों में आंसू आ गए। बोले—”मैं जानता था कि तुम मना कर दोगे। इसलिए मैंने तुम्हारे लिए कुछ और सोचा है।”

चंडीगढ़ पुलिस के डीजीपी से सिफारिश की—”श्री बहादुर सिंह जैसे बहादुर और ईमानदार इंसान की जगह हमारी पुलिस फोर्स में है। इन्हें विशेष नियुक्ति देकर हवलदार बनाया जाए।” कोर्ट रूम तालियों से गूंज उठा। बहादुर सिंह की आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे। उसने कभी सपने में भी इतना सम्मान नहीं सोचा था।

उस दिन के बाद बहादुर सिंह की जिंदगी बदल गई। वह अब प्राइवेट वॉचमैन नहीं, चंडीगढ़ पुलिस का सम्मानित हवलदार था। उसने परिवार को नेपाल से बुला लिया, उन्हें इज्जत की जिंदगी दी। रिया कुलकर्णी और उसका परिवार बहादुर सिंह को कभी नहीं भूला। वे अब एक ही इंसानियत के रिश्ते में बंधे थे।

सीख:
बहादुरी किसी हैसियत या पद की मोहताज नहीं होती। एक साधारण इंसान भी जब अपने फर्ज के लिए खड़ा हो जाता है, तो सबसे असाधारण नायक बन सकता है। नेकी का छोटा सा निस्वार्थ कर्म भी कभी बेकार नहीं जाता, एक दिन लौटकर आपकी जिंदगी को सम्मान और खुशियों से भर देता है।

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