कंपनी के मलिक ने लड़की को सबके सामने डांटकर ऑफिस से निकाला लेकिन जब सच पता चला

रआत्मसम्मान की जीत

शहर की भीड़-भाड़ के बीच एक ऊँची बिल्डिंग की सातवीं मंजिल पर रोज की तरह कंपनी में काम चल रहा था। उस दिन काम का दबाव ज़्यादा था। क्लाइंट की फाइल जमा करने की आखिरी तारीख थी। संध्या जल्दी-जल्दी रिपोर्ट तैयार कर रही थी। तभी एक कॉल आया और दूसरी फाइल का अलर्ट। भागदौड़ में उसने ईमेल भेजा, लेकिन गलती से गलत डॉक्यूमेंट अटैच हो गया। उसे महसूस हुआ कि कुछ गड़बड़ हुई है, मगर ईमेल जा चुकी थी। उसने सोचा कि अभी सुधार लूंगी, पर उसे पता नहीं था कि अगले कुछ मिनट उसकी ज़िंदगी का सबसे कठिन पल बन जाएंगे।

थोड़ी देर में आरव, मालिक का बेटा जो हाल ही में विदेश से पढ़कर लौटा था, ऑफिस में दाखिल हुआ। उसके आते ही माहौल बदल गया। वो संध्या के पास गया और बोला, “संध्या, वो काम हुआ क्या जो आपको कल दिया था?” संध्या बोली, “सर, उसमें थोड़ा टाइम लगेगा। मुझसे गलती हो गई है, क्लाइंट को गलत फाइल चली गई है। मैं अभी ठीक कर देती हूं।” आरव की आवाज़ तेज हो गई, “यह क्या किया संध्या?” पूरे ऑफिस में सन्नाटा छा गया। संध्या ने माफी मांगी, मगर आरव ने उसे सबके सामने बेइज्जत कर दिया, “हमारी सबसे बड़ी गलती है जो तुम जैसों को नौकरी पर रखा।”

संध्या के हाथ कांप गए। कंप्यूटर स्क्रीन धुंधली लगने लगी। किसी ने उसकी ओर सहानुभूति से देखा, मगर कोई कुछ बोला नहीं। उसने सिर झुका लिया। शाम तक उसने बिना किसी से बात किए अपना सारा काम समेट लिया। डेस्क पर फाइलें करीने से रखी, कंप्यूटर शटडाउन किया और सफेद लिफाफा निकाला—रिजाइन लेटर। वह सीधा आरव के केबिन में गई, इस्तीफा टेबल पर रख दिया और बाहर चली गई। उसकी चाल धीमी थी, हर कदम जैसे उस इमारत से दूर जा रहा था जिसमें उसने अपने जीवन के साल लगाए थे। लिफ्ट के शीशे में उसने खुद को देखा, वह वही संध्या नहीं रही जो हर चुनौती का सामना मुस्कान से करती थी। अब वह एक ऐसी संध्या थी जिसका आत्मसम्मान किसी के शब्दों से चकनाचूर हो चुका था।

अगले दिन ऑफिस का माहौल बदला-बदला था। सबको पता था कल क्या हुआ था। कुछ ही देर बाद आरव के पिता मलिक साहब ऑफिस पहुंचे। उन्होंने पूछा, “अरे संध्या दिख नहीं रही आज?” रिसेप्शन पर खड़ी नेहा ने घबराकर कहा, “सर, वो कल अपना रिजाइन दे गई।” मलिक साहब ठिटक गए, “ऐसी तो कोई बात नहीं थी कि संध्या रिजाइन देकर जाए और वह भी बिना मुझे बताए।” उन्होंने तुरंत अपने बेटे को बुलवाया।

आरव ने कहा, “उससे एक बड़ी गलती हो गई थी। क्लाइंट को गलत फाइल चली गई थी। मैंने उसे समझाया, लेकिन शायद वो इमोशनल होकर रिजाइन दे गई।” मलिक साहब बोले, “समझाया या अपमान किया? तुझे मालूम भी है वह लड़की कौन है?” आरव ने उलझकर कहा, “एक सीनियर एंप्लई थी जो सालों से यहां थी।” मलिक साहब ने टेबल पर हाथ मारा, “वो वही लड़की है जिसने 3 साल पहले इस कंपनी को डूबने से बचाया था। जब तू बाहर पढ़ाई करने गया था तब इस कंपनी के पास एक भी क्लाइंट नहीं बचा था। संध्या ही थी जिसने ना सिर्फ इस कंपनी को बचाया बल्कि हमें फिर से खड़ा किया। अगर वो नहीं होती तो आज यह कंपनी, यह इमारत, यह नाम कुछ भी नहीं होता।”

आरव का चेहरा उतर गया। मलिक साहब ने कहा, “गलती हर किसी से होती है लेकिन जो दूसरों को नीचा दिखाकर खुद को बड़ा समझे वो इंसान नहीं अहंकारी होता है।” आरव ने कहा, “डैड, मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी।” मलिक साहब बोले, “अब वही गलती तुझे सुधारनी होगी। जा माफी मांग उससे।”

आरव संध्या के घर पहुंचा। दरवाजे पर हल्की दस्तक दी। कुछ देर बाद दरवाजा खुला। संध्या सामने थी। आरव ने धीमे स्वर में कहा, “संध्या, मैं माफी मांगने आया हूं।” संध्या ने बस एक पल के लिए उसे देखा, “क्यों आए हैं आप?” आरव बोला, “यह कहने की गलती मुझसे हुई। मुझे अफसोस है।” संध्या हंसी, मगर वह हंसी दर्द में डूबी थी। “अफसोस तब होता है जब किसी को एहसास हो कि उसने इंसान को नहीं उसके आत्मसम्मान को तोड़ा है।” आरव ने सिर झुका लिया, “मुझे एहसास है, सच में। आप चाहे तो मुझे सजा दे दीजिए पर माफ कर दीजिए।” संध्या बोली, “माफी आसान है आरव साहब। लेकिन सम्मान वो जब एक बार टूट जाए तो फिर कभी वापस नहीं मिलता।”

आरव चुप रहा। उसने मुड़कर कदम बढ़ाए और वापस घर की ओर चल पड़ा। उसका हर कदम भारी था। दरवाजे की हल्की आवाज हुई और दोनों के बीच एक खामोश दरार रह गई। वह रात आरव के लिए बहुत लंबी थी। पिता की बातें, संध्या की आवाज और खुद की गलती तीनों एक साथ दिमाग में घूमते रहे। नींद आंखों में आई भी तो अपराध बोध के साथ महसूस हुई। सिर्फ एक गलती ने किसी का करियर नहीं, किसी की आत्मा को तोड़ा था।

दिन बीतते गए मगर कंपनी का माहौल अब पहले जैसा नहीं रहा। संध्या के जाने के बाद ऑफिस की दीवारों में एक अजीब सी खामोशी बस गई थी। लोग काम पर आते तो थे पर मन से नहीं। क्लाइंट्स के कॉल आने बंद हो गए थे। रिपोर्ट्स में गलतियां बढ़ने लगी थी। हर मीटिंग अधूरी रह जाती थी। जैसे किसी ने दिशा ही छीन ली हो। आरव के चेहरे से अब घमंड की जगह बेचैनी झलकती थी। वह खुद को काम में झोंक देता। रात-रात जागकर कोशिश करता कि सब ठीक कर दे। लेकिन जैसे ही किसी प्रोजेक्ट में दिक्कत आती उसे याद आता, अगर संध्या होती तो शायद सब संभल जाता।

एक दिन कंपनी का एक पुराना क्लाइंट मीटिंग में आया। उसने कहा, “आपके पास वह पुरानी टीम नहीं रही। वह लड़की कहां है जो काम संभालती थी? संध्या?” आरव चुप रहा। क्लाइंट ने सिर हिलाया, “उसके बिना यह कंपनी कुछ अधूरी लगती है।” वो वाक्य आरव के दिल में गूंजता रह गया। मलिक साहब ने मीटिंग खत्म होने के बाद कहा, “देख लिया बेटा, जब इज्जत खो जाती है तो काम अपने आप गिर जाता है।” आरव ने धीरे से बोला, “डैड, अब सिर्फ एक ही रास्ता बचा है। माफी।”

अगले ही दिन सुबह आरव और उसके पिता संध्या के घर के बाहर खड़े थे। दरवाजा खुला। संध्या के पिता सामने थे। उन्होंने दोनों को देखा और उनके चेहरे की झिझक भांप ली। “आइए अंदर आइए।” संध्या अंदर आई। साड़ी के पल्लू को हल्के से ठीक करते हुए जैसे ही उसने मलिक साहब को देखा, नमस्ते किया। मलिक साहब ने नमस्ते ली और झट से हाथ जोड़ दिए, “बेटी, गलती हमसे हुई है। हमें माफ कर दो।” संध्या ने कुछ नहीं कहा, बस चुपचाप सुनती रही। आरव आगे बढ़ा और कांपते स्वर में बोला, “संध्या, मुझे नहीं पता मैं अपनी बात कैसे कहूं। लेकिन मैं सिर्फ अपनी गलती नहीं, अपने अहंकार के लिए भी शर्मिंदा हूं। अगर मैं वक्त वापस ला पाता तो कभी वह शब्द नहीं कहता।”

संध्या ने शांत स्वर में कहा, “गलतियां सुधारी जा सकती है आरव। लेकिन जख्म तभी भरते हैं जब माफी सच्ची हो।” मलिक साहब ने कहा, “हम सिर्फ माफी नहीं, एक विनती लेकर आए हैं। कंपनी डूबने के कगार पर है। लोगों की नौकरी दांव पर लगी है। तुम्हारे बिना वह चल नहीं सकती। कृपया वापस आ जाओ।” संध्या की आंखों में आंसू आ गए। वो पल दोराहे जैसा था। एक तरफ उसका आत्मसम्मान, दूसरी तरफ उसका कर्तव्य। कुछ देर बाद उसने धीरे से कहा, “मैं किसी कंपनी के लिए नहीं, अपने आत्मसम्मान के लिए जीती हूं। लेकिन अगर मेरी मेहनत से कई परिवारों की रोजी जुड़ी है तो मैं लौटूंगी।”

मलिक साहब मुस्कुराए। आंखें भीग चुकी थी, “बस यही तो हमें चाहिए बेटी। हमारी कंपनी को तुम्हारे जैसे सोच की जरूरत है।” आरव ने सिर झुकाकर कहा, “धन्यवाद और वादा करता हूं। इस बार मैं सिर्फ नाम नहीं, दिल से सम्मान करूंगा।” संध्या ने हल्की मुस्कान दी। वो मुस्कान पहली बार थी जिसमें गुस्सा नहीं बल्कि क्षमा की झलक थी।

कुछ हफ्तों बाद संध्या ने कंपनी दोबारा जॉइन की बतौर सलाहकार। पहले दिन ही उसने देखा, हर कोई अब ज्यादा विनम्र था, ज्यादा सुनने वाला। धीरे-धीरे कंपनी फिर उठ खड़ी हुई। क्लाइंट्स लौटने लगे, प्रोजेक्ट्स सफल होने लगे, कर्मचारियों में ऊर्जा लौट आई। लेकिन अभी एक ऐसा पल संध्या की जिंदगी में आना बाकी था जिसकी कल्पना उसने कभी नहीं की थी।

दिनों के साथ सब कुछ सामान्य होने लगा था। आरव अब पहले जैसा नहीं रहा था। उसकी आवाज में अब अहंकार नहीं बल्कि विनम्रता थी। वो हर मीटिंग से पहले संध्या की राय जरूर लेता और हर फैसले से पहले उसकी बात सुनता। धीरे-धीरे दोनों के बीच वह दूरी जो कभी अपमान की वजह से बनी थी, अब समझ की वजह से मिटने लगी थी। देर रात तक प्रोजेक्ट्स पर काम करते हुए दोनों के बीच बातें बढ़ने लगी। कभी किसी क्लाइंट के रिपोर्ट पर चर्चा होती तो कभी जिंदगी पर। वह दोनों अब साथ बैठकर बातें करते, हंसते और कई बार चुप भी रहते। मगर उस चुप्पी में भी एक गहराई थी। हर गुजरते दिन के साथ दोनों के बीच एक ऐसा रिश्ता बनने लगा था जिसकी नींव सम्मान पर रखी गई थी और दीवारें भरोसे की थी।

मलिक साहब दूर से यह सब देखते रहते। वह जानते थे कि उनका बेटा अब वही आरव नहीं रहा जो दूसरों की गलती पर चिल्लाता था, बल्कि अब वो इंसान बन चुका था जो दूसरों की भावनाएं समझता है। एक शाम वो मुस्कुराए और बोले, “अब इस कंपनी को नहीं, हमारे घर को भी संध्या जैसी समझदार बहू की जरूरत है।” आरव थोड़ा मुस्कुराया मगर उसकी आंखों में झिझक थी। “डैड, अगर वह मना कर दे तो?” मलिक साहब ने हंसते हुए कहा, “अगर तेरी नियत सच्ची है तो वह तुझे जरूर समझेगी।”

कुछ दिनों बाद आरव ने हिम्मत जुटाई। शाम का वक्त था। ऑफिस में सब जा चुके थे। संध्या मीटिंग रूम में अपनी फाइलें समेट रही थी। आरव धीरे से अंदर आया। थोड़ा घबराया हुआ मगर नजरों में सच्चाई थी। “संध्या?” संध्या ने ऊपर देखा, “हां, आरव, कुछ काम था?” “हां, काम तो है लेकिन वह इस कंपनी का नहीं, मेरा है।” संध्या ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “क्या मतलब?” आरव ने एक पल रुक कर कहा, “मैं अब वो आदमी नहीं रहा जिसने तुम्हें रुलाया था। अब मैं वो बनना चाहता हूं जो तुम्हारे चेहरे पर मुस्कान लाए।” संध्या कुछ पल उसे देखती रही। उसकी आंखों में वह पुराना दर्द अब बीते कल की तरह था। धीरे से बोली, “रिश्ते इज्जत से शुरू हो तो ही टिकते हैं, आरव। और तुमने वह इज्जत लौटा दी है।”

आरव की आंखें नम हो गई। वो हल्के स्वर में बोला, “तो क्या मैं इसे यहां समझूं?” संध्या मुस्कुरा दी और वही मुस्कान, वही पल उनकी नई शुरुआत बन गया। शादी साधारण थी मगर उसमें सच्चाई की गर्माहट थी। ऑफिस में सब खुश थे और मलिक साहब की आंखें गर्व से भीगी थी। उन्होंने कहा, “आज मुझे गर्व है कि मेरे बेटे ने ना सिर्फ एक लड़की से बल्कि उसके आत्मसम्मान से भी रिश्ता जोड़ा है।”

कुछ महीनों बाद मलिक साहब ने कंपनी का स्वामित्व दोनों के नाम कर दिया। उन्होंने कहा, “अब यह सिर्फ कंपनी नहीं, एक परिवार है और इस परिवार की नींव सम्मान पर टिकी है।” आरव और संध्या ने झुककर उनके पैर छुए। संध्या की आंखों में आंसू थे, पर वह आंसू दुख के नहीं गर्व के थे।

शाम का वक्त था। दोनों ऑफिस की बालकनी में खड़े थे। आरव ने धीरे से कहा, “काश मैंने उस दिन वह गलती ना की होती।” संध्या ने कहा, “कभी-कभी जिंदगी हमें गिरा कर ही सिखाती है कि कैसे उठना है।” आरव ने उसकी ओर देखा और पहली बार बिना कुछ कहे सब समझ गया। कुछ पल की चुप्पी के बाद संध्या ने आसमान की ओर देखते हुए कहा, “जब इज्जत लौट आती है तो जिंदगी भी लौट आती है।” आरव ने उसका हाथ थाम लिया और दोनों वही खड़े रहे जैसे वक्त भी रुक गया हो और दुनिया ने आखिरकार अपनी सबसे खूबसूरत कहानी पूरी कर ली हो।

समाप्त