कश्मीर में बाढ़ में फंसे लोगों की मदद करते हुए फौजी के साथ ऐसा कुछ हुआ जिसे देख उसकी आंखें आंसुओं से

वर्दी का रिश्ता – कश्मीर की बाढ़ में जन्मी इंसानियत की अमर गाथा
क्या होता है जब धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर जल प्रलय की चपेट में आ जाता है? क्या होता है जब झेलम का शांत पानी एक गुस्सैल अजगर की तरह फुफकारता हुआ सब कुछ निगल जाने पर आमादा हो जाता है? और उस खौफ, तबाही और बेबसी के आलम में, जब मीडिया के चकाचौंध देश के दूसरे हिस्सों पर होती है और कश्मीर का दर्द खामोशी में डूब जाता है, तब कौन बनता है उन बेबस लोगों का सहारा?
यह कहानी किसी सियासत या सरहद की नहीं बल्कि इंसानियत की उस सबसे पाक डोर की है जो वर्दी के सख्त धागों से बुनी जाती है। यह कहानी है भारतीय सेना के एक ऐसे ही जांबाज सिपाही की, जो दिन-रात अपनी जान की परवाह किए बिना जिंदगियों को बचा रहा था। उसने कई लोगों को मौत के मुंह से निकाला, लेकिन एक दूर-दराज के गांव में एक अकेले डूबे हुए घर में उसे जो मिला, उसने उस फौलादी सिपाही को अंदर तक झंझोर कर रख दिया।
भाग 1: कश्मीर की बाढ़ – तबाही का मंजर
अगस्त का महीना अपने अंतिम पड़ाव पर था। मानसून ने इस साल पूरे उत्तर भारत में अपना रौद्र रूप दिखाया था। हिमाचल और पंजाब की बाढ़ की खबरें हर टीवी चैनल और अखबार की सुर्खियां बनी हुई थी। देश भर से मदद के हाथ उठ रहे थे, राहत सामग्री के ट्रक दौड़ रहे थे, सोशल मीडिया पर दुआओं का सैलाब उमड़ रहा था।
लेकिन इसी उथल-पुथल के बीच एक और स्वर्ग खामोशी से डूब रहा था – कश्मीर की घाटी। यहां भी आसमान कई दिनों से लगातार बरस रहा था। जैसे उसे धरती की प्यास बुझाने की नहीं बल्कि उसे डुबो देने की जिद हो। पहाड़ों से पिघलती बर्फ और मूसलाधार बारिश ने मिलकर झेलम और उसकी सहायक नदियों को पागल कर दिया था। नदी का पानी गांव में, शहरों में, खेतों में और लोगों के घरों में घुस चुका था। श्रीनगर की मशहूर डल झील और झेलम नदी के बीच का फर्क मिट गया था। सड़कें नदियों में तब्दील हो चुकी थी और घर टापू बन गए थे।
लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में इस त्रासदी को उतनी जगह नहीं मिल रही थी जितनी मिलनी चाहिए थी। शायद कश्मीर की फिजाओं में गूंजता दर्द अब देश के बाकी हिस्सों के लिए आम हो चला था। लेकिन एक जमात थी, जो इस खामोशी में भी अपना फर्ज निभा रही थी – भारतीय सेना। सेना के जवान किसी प्रचार या प्रशंसा की परवाह किए बिना दिन को दिन और रात को रात ना समझते हुए बचाव और राहत कार्यों में जुटे हुए थे।
भाग 2: फौजी जज्बा – रविंद्र और जस्सी की ड्यूटी
घाटी ने जब भी कोई दर्द झेला था, सेना के जवान हमेशा पहली कतार में खड़े मिले थे। इसी बचाव दल का एक हिस्सा था – राइफल मैन रविंद्र सिंह चौहान। 25 साल का यह नौजवान उत्तराखंड के एक छोटे से गांव का रहने वाला था। उसकी रगों में फौजी खून दौड़ता था। उसके दादा और पिता दोनों ने देश की सेवा की थी। रविंद्र के लिए उसकी वर्दी सिर्फ एक नौकरी नहीं बल्कि उसकी पहचान, उसका स्वाभिमान और उसका धर्म थी।
पिछले एक हफ्ते से वह सोया नहीं था। उसकी आंखों में थकान थी, शरीर दर्द से टूट रहा था लेकिन उसके इरादे फौलाद की तरह मजबूत थे। वो और उसकी यूनिट के साथी दिन भर अपनी नावों में घूमते, बाढ़ में फंसे लोगों को निकालते, उन्हें राहत शिविरों तक पहुंचाते और रात को राहत सामग्री के पैकेट तैयार करते। उसने इस दौरान बहुत कुछ देखा था – अपने पूरे जीवन की कमाई को बहते हुए देखकर रोते हुए लोग, अपने मवेशियों को बचाने की नाकाम कोशिश करते किसान और भूख से बिलखते बच्चे। हर एक चेहरा, हर एक आंसू उसके दिल पर एक बोझ की तरह पड़ता, लेकिन वो अपने जज्बात को अपने फर्ज पर हावी नहीं होने देता था।
उसका सबसे अच्छा दोस्त और साथी था जसविंदर सिंह, जिसे सब प्यार से जस्सी कहते थे। पंजाब का रहने वाला जस्सी अपनी जिंदादिली और बहादुरी के लिए जाना जाता था। इस मुश्किल घड़ी में वे दोनों एक दूसरे की हिम्मत थे।
भाग 3: मिशन पामपोश – उम्मीद और फर्ज
एक शाम जब वह अपने बेस कैंप पर लौटे तो उनके कमांडिंग ऑफिसर मेजर वर्मा ने उन्हें बुलाया। मेजर वर्मा एक अनुभवी और सुलझे हुए अफसर थे। उन्होंने मैप पर एक जगह की ओर इशारा करते हुए कहा, “रविंद्र, जस्सी, हमारे पास एक बहुत ही अस्पष्ट सूचना आई है। अनंतनाग से काफी दूर संगम इलाके के पास एक बहुत ही छोटा अलग पड़ा गांव है – पामपोश। गांव लगभग पूरा डूब चुका है। लेकिन एक स्थानीय व्यक्ति ने बताया है कि गांव के आखिरी छोर पर नदी के बिल्कुल पास एक घर है, जहां एक बुजुर्ग दंपत्ति अकेले रहते हैं। उनसे पिछले तीन दिनों से कोई संपर्क नहीं हो पाया है।”
रविंद्र ने मैप को ध्यान से देखा। वह इलाका बहुत खतरनाक था, नदी का बहाव वहां सबसे तेज था और पानी में पेड़ों और घरों का मलवा तैर रहा था। वहां नाव ले जाना जान को जोखिम में डालने जैसा था।
मेजर वर्मा ने आगे कहा, “मैं जानता हूं कि यह मिशन खतरनाक है। रात होने वाली है और मौसम भी बिगड़ रहा है। लेकिन अगर उस सूचना में जरा भी सच्चाई है, तो वे दो जाने सिर्फ हमारे भरोसे हैं।” रविंद्र और जस्सी ने एक दूसरे की तरफ देखा। उनकी आंखों में कोई डर नहीं था, बस एक दृढ़ निश्चय था। रविंद्र ने सैल्यूट करते हुए कहा, “हम जाएंगे सर।” मेजर वर्मा ने उनकी पीठ थपथपाई, “मुझे तुम दोनों पर गर्व है।”
कुछ ही मिनटों में रविंद्र और जस्सी अपनी छोटी मजबूत इनफ्लेटेबल मोटर बोट में सवार थे। उनके पास कुछ टॉर्च, रस्सियां, फर्स्ट एड किट और खाने-पीने के पैकेट थे। जैसे ही उनकी नाव ने बेस कैंप को छोड़ा, बारिश फिर से तेज हो गई। अंधेरा घिर रहा था और ठंडी हवाएं हड्डियों तक को कंपा रही थी। पानी का बहाव इतना तेज था कि नाव को सीधा रखना भी एक चुनौती थी। उन्हें तैरते हुए पेड़ों की टहनियों, मलबे और कभी-कभी तो मरे हुए जानवरों के शवों से बचकर निकलना पड़ रहा था। हर तरफ तबाही और मौत का मंजर था। जस्सी नाव को संभाल रहा था और रविंद्र अपनी शक्तिशाली टॉर्च की मदद से रास्ता तलाश रहा था।
लगभग 2 घंटे के जानलेवा सफर के बाद वे उस इलाके के पास पहुंचे जिसका जिक्र मेजर वर्मा ने किया था। पूरा गांव पानी के नीचे था, बस कुछ घरों की छतें ही दिखाई दे रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे कोई कब्रिस्तान हो।
भाग 4: जिंदगी की जंग – उम्मीद की आखिरी सांस
रविंद्र टॉर्च की रोशनी को चारों तरफ घुमा रहा था, किसी भी तरह के जीवन के संकेत को तलाश रहा था। तभी उसे थोड़ी दूर पर कुछ पेड़ों के झुरमुट के पीछे एक छोटे से लकड़ी के घर की ऊपरी मंजिल दिखाई दी। वो घर बाकी गांव से काफी अलग, बिल्कुल अकेला खड़ा था। रविंद्र ने चिल्लाकर कहा, “जस्सी, वो देखो शायद वही घर है।” जस्सी ने नाव को बहुत सावधानी से उस घर की ओर बढ़ाया।
घर का निचला हिस्सा पूरी तरह से पानी में डूबा हुआ था। ऐसा लग रहा था कि घर किसी भी पल ढह सकता है। रविंद्र ने अपनी पूरी ताकत से आवाज लगाई, “कोई है अंदर? हेलो! हम फौज से हैं, मदद के लिए आए हैं।” उनकी आवाज बारिश और पानी के शोर में खो गई। कोई जवाब नहीं आया। जस्सी ने निराश होकर कहा, “लगता है बहुत देर हो गई भाई।” लेकिन रविंद्र ने हिम्मत नहीं हारी। उसने फिर से आवाज लगाई, “दरवाजा खोलो! हम मदद के लिए आए हैं।”
कुछ पल की खामोशी के बाद उन्हें ऊपरी मंजिल की एक छोटी सी खिड़की से एक बहुत ही कमजोर, कांपती हुई सी आवाज सुनाई दी। एक ऐसी आवाज जिसमें दर्द और निराशा के सिवा कुछ नहीं था। इस जवाब ने उनके अंदर एक नई ऊर्जा भर दी। वे जिंदा थे!
उन्होंने अपनी नाव को घर की दीवार से सटाया। अंदर जाने का कोई रास्ता नहीं था, दरवाजा पानी के नीचे था। रविंद्र ने फैसला किया कि वह खिड़की के रास्ते अंदर जाएगा। उसने अपनी कमर में रस्सी बांधी और जस्सी को नाव को मजबूती से पकड़ के रखने को कहा। वो एक कुशल पर्वत आरोही भी था। उसने दीवार पर अपनी पकड़ बनाई और धीरे-धीरे उस छोटी सी खिड़की तक पहुंच गया।
जैसे ही उसने खिड़की से अंदर झांका, उसके रोंगटे खड़े हो गए। अंदर का दृश्य किसी भी दिल को दहला देने के लिए काफी था। कमरा छोटा और अंधेरा था, सारा सामान पानी में तैर रहा था या कीचड़ में सना हुआ था। कमरे के एक कोने में एक लकड़ी के पुराने संदूक के ऊपर एक बुजुर्ग जोड़ा एक दूसरे से लिपट कर बैठा हुआ था। वे इतने कमजोर लग रहे थे कि शायद उनमें हिलने की भी ताकत नहीं थी। उनकी आंखें धंसी हुई थी, चेहरे पर कई दिनों की भूख और बेबसी साफ छलक रही थी। उनके कपड़े गीले और फटे हुए थे, वे सिर्फ कांप रहे थे ठंड और डर से।
रविंद्र खिड़की से कूद कर अंदर आ गया। उसके जूतों की आवाज से वह दोनों चौंक गए। उन्होंने डर और अविश्वास से उसकी तरफ देखा, जैसे उन्होंने कोई भूत देख लिया हो। रविंद्र धीरे-धीरे उनके पास गया, उसने अपनी आवाज को जितना हो सके नरम बनाते हुए कहा, “डरो मत बाबा, अम्मा, डरो मत। हम आपको यहां से निकालने आए हैं।”
यह सुनकर उस बुजुर्ग महिला जिनकी आंखों से आंसू बहने की ताकत भी शायद खत्म हो चुकी थी, उनके सूखे गए गालों पर आंसुओं की दो लकीरें बन गई। बुजुर्ग व्यक्ति ने अपने कांपते हुए हाथों को जोड़ने की कोशिश की। रविंद्र ने तुरंत अपने बैग से पानी की बोतल निकाली और उन्हें पीने के लिए दी। उन्होंने ऐसे पानी पिया जैसे सदियों से प्यासे हो। फिर उसने उन्हें एनर्जी बार दिए। उन्होंने कांपते हाथों से उन्हें पकड़ा और छोटे-छोटे टुकड़े खाने लगे।
उन्हें इस हालत में देखकर रविंद्र का दिल भर आया। उसने जस्सी को आवाज दी और रस्सी की मदद से उन्हें एक-एक करके नाव में उतारने की तैयारी करने लगा। पहले उसने बुजुर्ग महिला को सहारा दिया, वह इतनी कमजोर थी कि रविंद्र ने उन्हें लगभग अपनी गोद में उठा लिया। जैसे ही रविंद्र ने उन्हें छुआ, उस बूढ़ी अम्मा ने उसे कसकर पकड़ लिया और किसी बच्चे की तरह फूट-फूट कर रोने लगी। उनका पूरा शरीर हिचकियों से कांप रहा था। फिर उन्होंने जो कहा, उन शब्दों ने रविंद्र के फौलादी दिल को मोम की तरह पिघला दिया।
“बेटा, तुम आ गए। हम तो उम्मीद ही छोड़ चुके थे। हम तो बस मौत का इंतजार कर रहे थे। पिछले तीन दिन से हमने अन्न का एक दाना भी नहीं देखा। बस यह गंदा पानी पीकर जिंदा थे।”
रविंद्र ने उन्हें अपनी बाहों में भर लिया, जैसे कोई मां अपने डरे हुए बच्चे को भरती है। वो बोला, “अम्मा, अब कुछ नहीं होगा। अब हम आ गए हैं। सब ठीक हो जाएगा।”
भाग 5: दिल का रिश्ता – मां-बाप का प्यार
रविंद्र ने उन्हें बहुत सावधानी से रस्सी के सहारे नाव में उतारा, जहां जस्सी ने उन्हें संभाल लिया। अब बारी बुजुर्ग बाबा की थी। जब रविंद्र ने उन्हें उठाया तो उन्होंने भी रविंद्र का हाथ कसकर पकड़ लिया। उनकी आंखों से भी आंसू बह रहे थे। उन्होंने कांपती हुई आवाज में कहा, “बेटा, हम बेऔलाद हैं। हमारा इस दुनिया में कोई नहीं है। हमें लगा था कि हम यहीं सड़ गल कर मर जाएंगे, किसी को पता भी नहीं चलेगा। अल्लाह ने तुम्हें फरिश्ता बनाकर भेजा है। तुम हमारे बेटे हो।”
यह सुनना था कि रविंद्र के सब्र का बांध टूट गया। वो फौजी जिसने दुश्मनों की गोलियों का सामना किया था, जिसने अपने साथियों के शवों को अपने आंखों के सामने देखा था, जिसने कभी अपने चेहरे पर कमजोरी का कोई भाव नहीं आने दिया था, वो अपने आंसुओं को रोक नहीं पाया। उसकी आंखों से गरम-गरम आंसू बहने लगे और उस बुजुर्ग के हाथों पर टपकने लगे। उसका गला रुंद गया था। उसने बड़ी मुश्किल से कहा, “नहीं बाबा, आप भी औलाद नहीं हैं। हम हैं ना, हम हैं आपके बेटे। आज से हम दोनों आपके बेटे हैं और हम आपकी सेवा करेंगे।”
यह सुनकर वह बुजुर्ग उससे लिपट गया और दोनों बाप-बेटे की तरह रोने लगे। नाव में बैठी बुजुर्ग अम्मा और जस्सी की आंखें भी इस मंजर को देखकर नम थी। उस अंधेरी रात में तबाही और मौत के बीच इंसानियत का सबसे पवित्र रिश्ता जन्म ले रहा था – खून का नहीं, बल्कि दिल का रिश्ता।
भाग 6: फौजी सेवा – उम्मीद और इंसानियत की मिसाल
रविंद्र ने उस बुजुर्ग को भी सुरक्षित नाव में उतारा। जस्सी ने तुरंत उन दोनों को गर्म कंबलों में लपेटा। नाव वापस बेस कैंप की ओर चल पड़ी। पूरे रास्ते वह बुजुर्ग दंपत्ति बस अपने इन बेटों को देखे जा रहे थे। उनकी आंखों में कृतज्ञता, प्रेम और एक ऐसा सुकून था, जो शायद उन्हें सालों में महसूस नहीं हुआ था।
बेस कैंप पहुंचकर रविंद्र और जस्सी उन्हें सीधे मेडिकल टेंट में ले गए। उन्होंने खुद डॉक्टरों को उनकी हालत के बारे में बताया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उन्हें सबसे अच्छी देखभाल मिले। जब तक वे दोनों सो नहीं गए, रविंद्र और जस्सी उनके पास ही बैठे रहे, उनके हाथ सहलाते रहे।
उस रात जब रविंद्र अपने तंबू में लौटा तो बहुत देर तक सो नहीं पाया। उसकी आंखों के सामने बार-बार वही दृश्य घूम रहा था – उन बुजुर्गों की बेबसी, उनका दर्द और फिर उनके शब्दों की गहराई। उसे एहसास हुआ कि उसने आज सिर्फ दो जाने नहीं बचाई थी, बल्कि उसने दो निराश हृदयों में जीने की उम्मीद फिर से जगाई थी। और बदले में उसे वह मिल गया था, जो दुनिया की कोई दौलत या कोई मेडल उसे नहीं दे सकता था – मां-बाप का प्यार।
अगले कई दिनों तक जब भी रविंद्र और जस्सी को अपनी ड्यूटी से फुर्सत मिलती, वे उन दोनों के पास चले जाते। वे उन्हें अपने हाथों से खाना खिलाते, उनसे बातें करते, उन्हें अपने घर और परिवार के बारे में बताते। वे दोनों बुजुर्ग भी अब उन्हें अपने सगे बेटों की तरह ही मानने लगे थे। उन्होंने बताया कि उनका नाम गुलाम रसूल और जोहरा बेगम है। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी उसी छोटे से घर में गुजारी थी। वे हमेशा एक बच्चे के लिए तरसते रहे, लेकिन उनकी यह ख्वाहिश कभी पूरी नहीं हुई।
एक दिन जब जोहरा बेगम थोड़ी ठीक हो गई तो उन्होंने रविंद्र का हाथ पकड़ कर कहा, “बेटा, जब बाढ़ का पानी हमारे घर में घुस रहा था तो मैंने तुम्हारी सलामती के लिए दुआ मांगी थी।” रविंद्र हैरान रह गया, “अम्मा, आप तो मुझे जानती भी नहीं थी!” जोहरा बेगम ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं तुम्हें नहीं जानती थी, पर मैं तुम्हारी वर्दी को जानती थी। मुझे पता था कि तुम जैसे बेटे कहीं ना कहीं हमारी हिफाजत के लिए लड़ रहे होंगे।”
यह सुनकर रविंद्र का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। उसे अपनी वर्दी पर, अपने देश पर और अपनी इंसानियत पर इतना गर्व पहले कभी महसूस नहीं हुआ था।
समाप्ति और संदेश
दोस्तों, यह कहानी हमें सिखाती है कि भारतीय सेना के जवान सिर्फ सरहदों की ही रक्षा नहीं करते, वे इंसानियत के भी रक्षक हैं। वे धर्म, जाति या राज्य नहीं देखते, वे बस एक बेबस इंसान को देखते हैं जिसे मदद की जरूरत होती है। रविंद्र और जस्सी की यह कहानी हमें यह भी याद दिलाती है कि रिश्ते खून के नहीं, बल्कि भावनाओं और सेवा के होते हैं। जब एक बेऔलाद मां-बाप को फौजी बेटों का सहारा मिला, तो यह सिर्फ एक बचाव अभियान नहीं था – यह उम्मीद, प्यार और निस्वार्थ सेवा की एक अमर गाथा थी।
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