किराने वाला गरीब बेसहारा बूढी महिला को सस्ते में दे देता था सामान , फिर जब सच्चाई सामने आयी तो लोग

“ऊपर वाले का खाता: सरदार वल्लभ सिंह की खामोश नेकी”

प्रस्तावना

क्या होता है जब इंसानियत वही खातों के हिसाब-किताब से ऊपर उठ जाती है? क्या नेकी का कोई मोल होता है या यह एक ऐसा खामोश सौदा है जो इंसान सीधे ऊपर वाले से करता है?
यह कहानी प्रयागराज की तंग गलियों में बसे एक साधारण किराने वाले और एक स्वाभिमानी बूढ़ी मां की है, जिसमें सेवा, सम्मान और इंसानियत की वो खुशबू है जो पूरे मोहल्ले को महका देती है।

प्रयागराज की पुरानी गली

गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम की पवित्र धरती प्रयागराज अपने मध्यमवर्गीय जीवन के लिए भी जानी जाती है। इसी शहर की तुलसी चौराहा नामक गली में एक पुरानी सी किराने की दुकान थी—सरदार वल्लभ सिंह एंड सन्स।
दुकान के मालिक थे सरदार वल्लभ सिंह—करीब 60 साल के, जिनके चेहरे पर जितनी झुर्रियां थीं, उससे कहीं ज्यादा संतोष और नेकी उनकी आंखों में चमकती थी। वल्लभ सिंह जी ने यह दुकान अपने पिता से विरासत में पाई थी और पिछले 40 सालों से वह उसी ईमानदारी और अपनेपन के साथ इसे चला रहे थे।

उनकी दुनिया बहुत सरल थी—दुकान, ऊपर बना छोटा सा घर, पत्नी परमजीत और इकलौता बेटा धर्मेंद्र। धर्मेंद्र कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर चुका था और अब दुकान पर पिता का हाथ बंटाता था।
धर्मेंद्र चाहता था कि दुकान को मॉडर्न सुपरमार्केट जैसा बना दिया जाए, जहां हर चीज का पक्का बिल कटे और कोई उधार न हो। लेकिन वल्लभ सिंह जी कहते—”बेटा, यह दुकान सिर्फ दुकान नहीं, परिवार है। परिवार में सिर्फ मुनाफा नहीं, रिश्ते भी देखे जाते हैं।”

शांति अम्मा की कहानी

मोहल्ले के आखिरी छोर पर एक जर्जर मकान था, जिसमें रहती थीं शांति अम्मा—करीब 80 साल की बेसहारा विधवा। उनके पति मामूली चपरासी थे, सालों पहले गुजर चुके थे, और कोई औलाद भी नहीं थी।
शांति अम्मा बहुत स्वाभिमानी थीं। पेंशन और खुद के हाथों से बनी डलियां-बेंत बाजार में बेचकर जो थोड़ी कमाई होती, उसी से गुजर-बसर करती थीं।
अब शरीर बूढ़ा हो चला था, आंखें कमजोर, हाथ कांपते थे। कई दिन ऐसे गुजरते जब खाने को सिर्फ मुट्ठी भर चावल ही होता।
फिर भी उनके चेहरे पर शिकन नहीं थी। वह अपनी गरीबी को एक खामोश मुस्कान के पीछे छिपा कर रखती थीं।

महीने का आखिरी दिन

शांति अम्मा हमेशा सरदार वल्लभ सिंह की दुकान से ही राशन खरीदती थीं।
एक दिन, महीने की आखिरी तारीख थी। शांति अम्मा ने अपनी कमाई गिनी—₹100।
आंखों में आंसू थे—इतने पैसों में महीने भर का राशन कैसे आएगा?
फिर भी, उन्होंने हिम्मत जुटाई, लाठी उठाई, साड़ी के पल्लू में ₹100 बांधे और दुकान की ओर चल पड़ीं।

दुकान पर भीड़ थी। वह चुपचाप एक कोने में खड़ी हो गईं।
जब भीड़ छटी, वल्लभ सिंह जी ने उन्हें देखा—”अरे अम्मा, आप इतनी देर से खड़ी हैं, आवाज तो दी होती। आइए, बैठिए।”

शांति अम्मा ने झिझकते हुए एक पुरानी मुड़ी पर्ची दी—”बेटा, ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। बस 5 किलो आटा, 1 किलो चावल, आधा किलो दाल, थोड़ी सी हल्दी-मिर्च, एक पाव तेल।”

वल्लभ सिंह जी ने पर्ची देखी।
“धर्मेंद्र, अम्मा का सामान निकाल दे।”
धर्मेंद्र ने सामान तोलना शुरू किया।

वल्लभ सिंह जी बोले—”अम्मा, सेहत कैसी है अब? घुटनों का दर्द कैसा है?”
शांति अम्मा ने गहरी सांस ली—”अब तो दर्द जिंदगी का हिस्सा बन गया है बेटा।”

“आपको चीनी और बिस्किट भी रख दूं क्या? चाय के साथ काम आएंगे।”
“नहीं बेटा, जरूरत नहीं,” शांति अम्मा घबरा गईं—पैसे नहीं थे।

“अरे कैसी बात कर रही हैं अम्मा? आज दुकान की सालगिरह है, पुराने ग्राहकों के लिए खास छूट है। चीनी और बिस्किट कंपनी की तरफ से मुफ्त हैं।”
उन्होंने खुद चीनी और बिस्किट रख दिए।

धर्मेंद्र नाराज था—”दुकान की कोई सालगिरह नहीं है, बाबूजी झूठ बोल रहे हैं।”

सामान बंद गया। धर्मेंद्र हिसाब लगाकर बोला—”₹250 हुए।”
वल्लभ सिंह जी मुस्कुराए—”तू पागल हो गया क्या? आजकल आटे-दाल के भाव कितने गिर गए हैं।”
उन्होंने दूसरा कागज उठाया, कुछ जोड़-घटाया—
“5 किलो आटा ₹50, 1 किलो चावल ₹10, आधा किलो दाल ₹15…”
धर्मेंद्र हैरान—यह तो 20 साल पुराने भाव हैं!

“चुप कर, तुझे नहीं पता तो बीच में मत बोल,” वल्लभ सिंह जी ने डांटा।
“अम्मा, आपके हुए कुल ₹80।”
शांति अम्मा को यकीन नहीं हुआ—इतना सारा सामान सिर्फ ₹80 में!

“हां अम्मा, आजकल मंदी चल रही है, ऊपर वाले की बड़ी कृपा है।”
शांति अम्मा की आंखों में खुशी के आंसू थे। उन्होंने ₹100 दिए, वल्लभ सिंह जी ने ₹20 वापस किए।

सामान उठाते हुए शांति अम्मा मन ही मन ऊपर वाले को लाखों धन्यवाद दे रही थीं—जैसे खुद ऊपर वाले ने उनकी मदद की हो।

सच्ची नेकी का खाता

शांति अम्मा के जाने के बाद धर्मेंद्र अपने पिता पर बरस पड़ा—”बाबूजी, घाटे में सौदा क्यों किया? और दुकान की सालगिरह का झूठ क्यों बोला?”

वल्लभ सिंह जी ने बेटे को पास बिठाया—
“बेटा, वो स्वाभिमानी औरत है। अगर मैं मुफ्त में सामान देता तो वो कभी नहीं लेती। अगर सही दाम बताता तो बस नमक-रोटी खरीदती।
कभी-कभी किसी की इज्जत बचाने के लिए बोला गया झूठ, सौ सच से बड़ा होता है।
यह सौदा मैंने उस अम्मा से नहीं, ऊपर वाले से किया है।
मैंने उसे ₹80 में सामान दिया, उसने मुझे लाखों की दुआ दी।
बता, कौन सा सौदा ज्यादा फायदे का है?”

उन्होंने भाई खाते के नीचे से एक पुरानी डायरी निकाली।
आज की तारीख डाली—शांति अम्मा के नाम के आगे लिखा—₹250 का सामान दिया, ₹80 जमा, ₹170 ऊपर वाले के खाते में उधार।

धर्मेंद्र ने डायरी देखी—पिछले कई सालों से हर महीने ऐसा ही हिसाब लिखा था।
वल्लभ सिंह जी सालों से चुपचाप उस बूढ़ी मां की मदद कर रहे थे, किसी को खबर नहीं थी।

विरासत की कहानी

सालों तक यह सिलसिला चलता रहा।
शांति अम्मा हर महीने आतीं, वल्लभ सिंह जी मंदी और छूट का बहाना बनाकर कम दामों में सामान देते।
शांति अम्मा हमेशा समझती रहीं—यह ऊपर वाले की कृपा है।

समय बीतता गया। वल्लभ सिंह जी अब और बूढ़े हो गए थे, लेकिन सेवा बंद नहीं की।
धर्मेंद्र भी बदल चुका था, अब पिता के नेक काम में साथ देता।

एक दिन अचानक वल्लभ सिंह जी की तबीयत बिगड़ गई। अस्पताल में भर्ती हुए, कुछ दिनों के संघर्ष के बाद दुनिया से चले गए।
पूरे मोहल्ले में मातम छा गया।
शांति अम्मा को लगा—उनके सिर से किसी अपने का साया उठ गया।

वह लाठी टेकते हुए रोती-बिलखती दुकान पहुंचीं—नेक दिल इंसान का आखिरी बार चेहरा देखना चाहती थीं।

सच्चाई का खुलासा

वल्लभ सिंह जी के जाने के बाद दुकान की जिम्मेदारी धर्मेंद्र पर आ गई।
महीने की आखिरी तारीख आई।
शांति अम्मा भारी मन से दुकान पहुंचीं।
गल्ले पर अब धर्मेंद्र था।

“आओ अम्मा,” धर्मेंद्र ने उदास मन से कहा।
शांति अम्मा ने वही पुरानी पर्ची दी—”बेटा, वही सामान दे दे।”

धर्मेंद्र ने सामान निकाला, सही हिसाब लगाया—”अम्मा, आपके ₹300 हुए।”

शांति अम्मा सन्न रह गईं—”₹300? लेकिन लाला जी तो हमेशा ₹80 या ₹90 ही लेते थे। तू मुझे लूट रहा है। तेरे पिता कितने अच्छे थे…”

धर्मेंद्र को पिता की डायरी याद आई।
वह चुपचाप उठा, गल्ले के नीचे से डायरी निकाली, अम्मा के सामने रख दी।

“देखिए अम्मा, यह है असली हिसाब।”

शांति अम्मा ने चश्मा लगाया, डायरी देखी—पिछले 10 सालों का हर महीने का हिसाब।
हर हिसाब के नीचे एक लाइन—बाकी रकम ऊपर वाले के खाते में उधार।

शांति अम्मा वहीं बोरी पर बैठ गईं।
आंखों से झरझर आंसू बहने लगे—”तो ये ऊपर वाले की कृपा नहीं थी, ये तो मेरे उस बेटे की कृपा थी। वो सालों से चुपचाप मेरी मदद करता रहा…”

वह फूट-फूटकर रोने लगीं।
दुकान के बाकी ग्राहक भी रो पड़े।
आज उन्हें पता चला—सरदार वल्लभ सिंह सिर्फ दुकानदार नहीं, संत थे, जो खामोशी से इंसानियत की पूजा करते थे।

धर्मेंद्र ने अम्मा को सहारा दिया, उनके पैर छुए—”अम्मा, मुझे माफ कर दीजिए। बाबूजी ने तो आपकी मदद की, लेकिन मैंने आज आपका दिल दुखा दिया।”

धर्मेंद्र ने डायरी में आग लगा दी—”आज से यह उधार का खाता बंद। अम्मा, आज से आपका बेटा जब तक जिंदा है, आपके घर का पूरा राशन हर महीने आपके दरवाजे पर पहुंचाएगा। यह कोई एहसान नहीं, यह आपके बेटे का हुक्म है जो आज यहां नहीं है।”

शांति अम्मा ने उसे सीने से लगा लिया।
दुकान में हर कोई रो रहा था—इंसानियत की उस महानता पर, जिसके वे आज गवाह बने थे।

अंतिम संदेश

उस दिन के बाद धर्मेंद्र ने सिर्फ शांति अम्मा ही नहीं, बल्कि मोहल्ले के हर गरीब और जरूरतमंद की उसी खामोशी से मदद करना शुरू कर दिया जैसे उसके पिता करते थे।
वह दुकान अब सिर्फ दुकान नहीं, पूरे मोहल्ले के लिए उम्मीद का केंद्र बन गई।

शिक्षा

यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची नेकी और सेवा कभी दिखावे या शोरशराबे की मोहताज नहीं होती। वह उस अगरबत्ती की तरह होती है जो खामोशी से जलती है, लेकिन अपनी खुशबू से पूरी दुनिया को महका देती है।

सरदार वल्लभ सिंह ने अपनी पूरी जिंदगी इसी खामोशी से इंसानियत की इबादत की।

अगर लाला जी की इस खामोश नेकी ने आपके दिल को छुआ है, तो इस कहानी को शेयर करें।
दुनिया में सबसे बड़ा धर्म—इंसान की सेवा है।

धन्यवाद।