किसान ने जमीन दान देकर स्कूल बनवाया था , 20 साल बाद उसी स्कूल के छात्र ने डॉक्टर बनकर उसकी जिंदगी बच
कहानी: एक बीज का बलिदान – अमर गुरु-शिष्य की प्रेरक गाथा
जब कोई बीज अपनी मिट्टी में दफनाया जाता है, तो उस एक पल का त्याग, समय के साथ हजारों फलों और छाया का कारण बनता है। लेकिन क्या होगा, जब एक गरीब किसान अपनी रोज़ी-रोटी का अकेला सहारा – सबसे उपजाऊ जमीन – एक ऐसे मकसद के लिए दान कर दे, जो समाज के बच्चों के भविष्य को रोशन कर दे? क्या उसके इस त्याग का कोई फल उसे लौटकर आएगा? यह कहानी है बलराम की। एक ऐसे किसान की, जिसका छोटा सा त्याग, समय के साथ न सिर्फ उसके गांव, बल्कि पूरे इलाके के लिए वरदान बन जाता है।
सूरजपुर – उजाले से दूर एक अंधेरा गांव
उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र का सूरजपुर गांव विकास से दूर था। यहां ना बिजली थी, ना पक्की सड़कें, न अस्पताल और न ही स्कूल। सौ झोपड़ियों वाला यह गांव हर बरसात में अपनी बदहाली पर आंसू बहाता था। यहां के बच्चों के भविष्य की राह या तो साहूकार की दहलीज पर रुकी थी या फिर खेतों की मिट्टी में गुम हो जाती थी। उन्हीं झोपड़ियों के अंतिम सिरे पर था – बलराम का मिट्टी से बना छोटा सा, लेकिन हमेशा साफ-सुथरा घर।
बलराम, 40 वर्षीय, मेहनती और ईमानदार किसान; उसकी पत्नी सावित्री और 8 साल की बेटी राधा ही उसके परिवार थे। बलराम ने बचपन से ही यही देखा था कि शिक्षा के बिना गांव पिछड़ गया है। बच्चे या तो मजदूरी करने लगते या फिर भविष्य का सपना देखना ही छोड़ देते। उसका सबसे बड़ा सपना था – गांव में स्कूल बनाना।
भाग्य की चोट – सावित्री का सपना, बलराम का वचन
सावित्री, बलराम की पत्नी, हमेशा कहती थी, “जिस दिन गांव में स्कूल खुलेगा, उस दिन लगेगा कि हमारे आंगन में सच में दिवाली मनी है।” उसकी यही इच्छा उसकी मौत के बाद बलराम के कंधों का बोझ बन गई। एक दिन अचानक सावित्री बीमार पड़ी, इलाज के अभाव में उसकी जान चली गई। जाते-जाते बोली, “मेरी राधा और गांव के बच्चों के लिए स्कूल जरूर बनवाना।”
अपने इस वचन को निभाने के लिए बलराम ने फैसला किया – वह अपनी पांच बीघा जमीन में से सर्वाधिक उपजाऊ तीन बीघा जमीन स्कूल के लिए दान कर देगा। गांव की पंचायत में यह सुन हर कोई हैरान रह गया। साहूकार और रिश्तेदारों ने ताना मारा – “बेटी की शादी और खुद का गुजारा कैसे होगा?” लेकिन बलराम अडिग रहा, उसका चेहरा दृढ़ संकल्प और आंखें आंसुओं से भरी थीं।
सावित्री देवी स्मारक विद्यालय – अंधेरे में उम्मीद की लौ
बलराम ने अपनी जमीन, बची-खुची पूंजी और ग्रामीणों की मदद से चार कमरों वाला स्कूल बनवाया – “सावित्री देवी स्मारक विद्यालय”। सरकारी दफ्तरों के बार-बार चक्कर लगाकर उसने मास्टरजी की नियुक्ति और स्कूल की मान्यता भी करवायी। स्कूल खुला, गांव में दिवाली की तरह दीयों की रोशनी फैल गई।
राधा, बलराम की बेटी, उसी स्कूल में पढ़ने वाली पहली बच्ची बनी। उसी बैच में था – 10 साल का सूरज; गरीब मजदूर का बेटा, तेज दिमाग, पढ़ाई के लिए भूखा-प्यासा। बलराम को सूरज में वह जुनून दिखता था, जो किसी चमत्कार की कहानी बन सकता था। वह स्वयं उसे अनाज-किताबें दी, प्यार-दुलार दिया। सूरज के लिए बलराम सिर्फ एक किसान नहीं, बल्कि पिता समान गुरु था।
बीस साल बाद – हरियाली किसी और रंग में
समय बढ़ता गया। सूरज ने मेहनत से पढ़ाई की – गांव के स्कूल से निकलकर जिले की परीक्षा में टॉप किया, फिर स्कॉलरशिप पर शहर में कॉलेज और मेडिकल में चुन लिया गया। इसी बीच बलराम की जिंदगी संघर्ष में ही उलझ गई – दो बीघा जमीन सूखा-बाढ़ में बर्बाद, बेटी की शादी, कर्ज का बोझ, साहूकार की तानाशाही… गांव वाले जो कभी उसे हीरो मानते थे, अब उसे बेवकूफ समझने लगे। लेकिन बलराम का मन केवल उस स्कूल, वहां खिलखिलाते बच्चों और सूरज में ही ढाढस पाता था।
किस्मत की परीक्षा – बलराम की बीमारी, सूरज की वापसी
एक दिन बखेड़ा खड़ा हो गया – बलराम खेत में ही गिर गया, दिल का दौरा पड़ा। पैसों और साधनों के अभाव में गांव का कंपाउंडर इलाज से हाथ जोड़ लिए। बेटी राधा पैसों के लिए रो पड़ी, गांव वाले बेबस – जिसने सबको शिक्षा दी, उसे ही बचाने का कोई रास्ता नहीं था।
ऐसे में एंबुलेंस की आवाज़ और अचानक गांव में सफेद कोट पहने सूरज का आना, किसी देवदूत से कम नहीं था। सूरज ने दिल्ली के टॉप कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. अस्थाना को अपनी टीम के साथ गांव बुलाया, स्कूल के सबसे बड़े कमरे को अस्थायी ऑपरेशन थिएटर में बदल दिया। ऑपरेशन हुआ – कई घंटे चले जद्दोजहद के बाद बलराम की जान बच गई।
त्याग का प्रतिफल – नया सूरज, नया सपना
बलराम के बचते ही स्कूल में पंचायत और इलाके के अफसर, मंत्री, और मीडिया जुट गए। सूरज ने मंच से कहा, “आज जो कुछ भी हूं, बलराम काका की वजह से हूं। मैं अपना जीवन और पूरी कमाई गांव को और इस स्कूल को समर्पित करता हूं। आज से यहां 12वीं तक पढ़ाई होगी, विज्ञान व मेडिकल की तैयारी होगी, बलराम और सावित्री के नाम पर 30-बेड का आधुनिक अस्पताल खुलेगा।
मैं (डॉक्टर सूरज) यहां नौकरी करूंगा, हर गरीब का इलाज फ्री होगा।”
गांव में आंखें नम थीं, बलराम के चेहरे पर गर्व और तृप्ति के आंसू थे। बीज का बोया गया त्याग अब विशाल पेड़ बनकर छांव और फल सभी के लिए बन गया था।
सीख और संदेश
यह कहानी हमें सिखाती है कि शिक्षा में किया गया निवेश, सबसे अमर और फायदेमंद निवेश है। असली धन-दौलत इंसानियत, शिक्षा और संस्कार है। बलराम के बीज की फसल 20 साल बाद सूरज बनकर लौटी, और उसकी छांव में पूरे गांव का भविष्य महफूज हो गया।
अगर बलराम और सूरज की यह कहानी आपको दिल से छू गई हो, तो इसे ज़रूर ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाएं, और यह भी सीखें कि शिक्षा ही समाज की असली रोशनी है।
धन्यवाद!
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