खोई हुई बेटी स्टेशन पर जूते पोलिश करते हुए मिली | फिर बच्ची ने अपने पिता से कहा जो इंसानियत रो पड़े

“पायल की पहचान – एक खोई बेटी की वापसी”

प्रस्तावना

भीड़भाड़ वाले रेलवे स्टेशन पर, रोज़ की तरह शोरगुल था। प्लेटफार्म नंबर तीन के एक कोने में एक छोटी सी बच्ची, सोनू, अपने पुराने से जूते पॉलिश करने वाले डिब्बे के साथ बैठी थी। उसके चेहरे पर धूल, पैरों में टूटी-फूटी चप्पलें, कपड़े मैले-कुचैले, मगर आंखों में मासूमियत और होंठों पर हल्की सी मुस्कान थी। वह हर आने-जाने वाले से विनती करती—”साहब, जूते पॉलिश करा लो, सिर्फ़ पाँच रुपये लगेंगे।” कोई उसे दुत्कार देता, कोई अनसुना कर आगे बढ़ जाता, तो कोई कभी-कभार दो-चार सिक्के फेंक देता।

भाग 1: सोनू की दुनिया

सोनू का बचपन स्टेशन की फर्श पर बीता था। उसे अपना असली नाम तक याद नहीं था, न घर, न मां-बाप। जब कोई पूछता, “बेटी, तेरा घर कहाँ है?” तो वह बस इतना कहती, “मुझे याद नहीं, बस यहाँ आ गई थी रोते-रोते।”
रात को जब स्टेशन सुनसान हो जाता, सोनू किसी कोने में सिकुड़कर आसमान की ओर देखती और फुसफुसाती—”माँ, पापा, आप कहाँ हो? मैं बहुत अकेली हूँ।” पर जवाब सिर्फ़ ट्रेन की सीटी होती।

भाग 2: अरुण मल्होत्रा की तन्हाई

इसी शहर में करोड़पति अरुण मल्होत्रा का बंगला था। उनके पास दौलत, शोहरत, सबकुछ था, बस दिल खाली था। सालों पहले एक बरसात की रात उनकी पाँच साल की बेटी अनाया मंदिर के बाहर भीड़ में खो गई थी। पुलिस, अखबार, टीवी—हर जगह खोज चली, पर अनाया का कोई सुराग नहीं मिला। उसी हादसे ने अरुण और उनकी पत्नी संध्या के रिश्ते में भी दरार डाल दी। दोनों अलग हो गए, लेकिन अरुण की हर शाम अब भी बेटी की तस्वीर के सामने दुआ करते हुए बीतती थी—”हे भगवान, मेरी बेटी को लौटा दे।”

भाग 3: पहली मुलाकात

एक दिन अरुण किसी मीटिंग के सिलसिले में रेलवे स्टेशन पहुँचे। उनकी नज़र सोनू पर पड़ी—वही मासूमियत, वही गोल-गोल आँखें, जो उनकी अनाया में थीं। सोनू उनके पास आई, “साहब, जूते पॉलिश करा लो, सिर्फ़ पाँच रुपये।”
अरुण की आँखें भर आईं। उन्होंने पूछा, “बेटी, ये काम क्यों करती हो? तेरे माँ-बाप कहाँ हैं?”
सोनू बोली, “मुझे नहीं पता साहब, जब से होश संभाला है, यहीं हूँ।”
अरुण ने पैसे देने चाहे, पर सोनू ने मना कर दिया—”मैं भीख नहीं लेती, मेहनत का पैसा चाहिए।”
अरुण के मन में एक उम्मीद की किरण जागी। उन्होंने अपने सहायक से कहा—”इस बच्ची पर नज़र रखो, मुझे इसके बारे में सब जानना है।”

भाग 4: बीते कल की परछाई

रात को अरुण ने फिर से अनाया की तस्वीरें देखीं—वही आँखें, वही मुस्कान। अगले कुछ दिनों तक वह बार-बार स्टेशन गए। एक दिन उन्होंने सोनू से उसका नाम पूछा। सोनू बोली, “सब मुझे सोनू ही कहते हैं, असली नाम नहीं पता।”
अरुण का दिल काँप उठा—अनाया को भी वह प्यार से सोनू बुलाते थे। उन्होंने सोनू से पूछा, “कोई निशानी है तुम्हारे पास?”
सोनू ने अपने पैरों की पायल दिखाई—”बस यह पायल है, बचपन से पहनी है।”
अरुण की आँखें फटी रह गईं—वही चाँदी की पायल, जो उन्होंने अनाया के पहले जन्मदिन पर खुद बनवाई थी।
अरुण फूट-फूटकर रो पड़े—”बेटा, तू मेरी अनाया है। देख, यह पायल मैंने पहनाई थी।”
पर सोनू डर गई, “नहीं साहब, आप गलती कर रहे हो। मैं सोनू हूँ, अनाया नहीं।”

भाग 5: दिल की पुकार

अरुण ने हाथ जोड़कर कहा—”बेटा, मैं तुझे अपनी रग-रग से पहचानता हूँ।”
लोग इकट्ठा हो गए, कोई कहता पागल हो गया है, कोई कहता सच में उसकी बेटी होगी। सोनू डरकर भीड़ में गुम हो गई।
अरुण रातभर सो नहीं पाए। सुबह होते ही फिर स्टेशन पहुँचे। सोनू को ढूँढा और कहा—”अगर तू मेरी बेटी नहीं निकली, तो दोबारा तुझे परेशान नहीं करूँगा। पर सच जानने दे।”
सोनू चुप रही, फिर बोली—”अगर आप झूठे निकले, तो मैं कहाँ जाऊँगी?”
अरुण ने कहा—”भगवान की कसम, अगर तू मेरी बेटी नहीं भी निकली, तो भी तुझे बेटी बनाकर रखूँगा।”

भाग 6: सच्चाई की खोज

अरुण सोनू को अस्पताल ले गए। डीएनए टेस्ट हुआ। रिपोर्ट आई—”मिस्टर अरुण, बधाई हो, यह बच्ची आपकी ही बेटी है।”
अरुण और सोनू दोनों फूट-फूट कर रो पड़े। अरुण ने सोनू को सीने से लगा लिया—”मेरी अनाया, मेरी गुड़िया!”
सोनू भी रोते हुए बोली—”पापा, आप सच में मेरे पापा हो?”
अरुण ने सिर चूमकर कहा—”अब कभी तुझे अकेला नहीं छोड़ूँगा।”

भाग 7: परिवार का पुनर्मिलन

अरुण ने तुरंत संध्या को फोन किया—”अनाया मिल गई है!”
संध्या अस्पताल पहुँची, बेटी को गले से लगा लिया। तीनों बरसों बाद एक साथ थे।
अनाया अपनी माँ की गोद में सिसक-सिसककर बोली—”मम्मा, मुझे लगा था आप मुझे छोड़ गईं।”
संध्या ने रोते हुए कहा—”नहीं गुड़िया, हम तो तुझे हर दिन ढूँढ रहे थे। भगवान ने हमें फिर से मिला दिया।”
अस्पताल में सबकी आँखें नम थीं। लोगों ने ताली बजाई, दुआएँ दीं।

भाग 8: नई शुरुआत

अरुण, संध्या और अनाया—अब तीनों फिर से एक परिवार थे। अरुण ने ऊपर देखकर भगवान को धन्यवाद दिया।
अनाया ने दोनों का हाथ पकड़ लिया—”अब हम कभी अलग नहीं होंगे, है ना पापा?”
अरुण और संध्या बोले—”कभी नहीं बेटा, कभी नहीं।”

सीख

कभी-कभी ज़िंदगी हमें बिछड़ाकर आज़माती है, मगर सच्चा प्यार और अपनापन वक्त के साथ फिर से मिल जाता है।
अरुण, संध्या और अनाया की कहानी यही साबित करती है कि खून का रिश्ता और दिल का प्यार किसी भी दूरी से बड़ा होता है।

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