गरीब बच्ची भीख मांग रही थी , करोड़पति ने उसे 50 पेन खरीद कर दिए और कहा इन्हे बेचो , फिर जो हुआ देख

“भीख से व्यापार तक: कोमल और चौहान साहब की कहानी”

मुंबई की दो दुनिया

मुंबई, सपनों और विषमताओं का शहर। एक ओर अरब सागर के किनारे आलीशान अपार्टमेंट्स, दूसरी ओर उन्हीं इमारतों की छाया में बसी झुग्गी बस्तियां। इन्हीं दो दुनियाओं के बीच, ट्रैफिक सिग्नल की लाल बत्ती पर, रोज सुबह से शाम तक महंगी गाड़ियों का तांता लगता था। इसी सिग्नल के पास, दस साल की कोमल नंगे पैर, तपती सड़क पर दौड़ती, गाड़ियों के शीशे पर अपने छोटे-छोटे मैले हाथ फैलाती। उसकी आंखों में बेबसी और उम्मीद दोनों थी।

कोमल भीख अपनी मर्जी से नहीं मांगती थी। उसकी मां टीबी से पीड़ित थी, छह महीने से बिस्तर पर थी। छोटा भाई राजू, सिर्फ पांच साल का। कोमल दिन भर भीख मांगकर जो भी ₹10 कमाती, उससे मां की दवा और भाई के लिए रोटी खरीदती। खुद कई दिनों से पेट भर खाना नहीं खाया था, पर चिंता सिर्फ अपनी मां और भाई की थी।

पत्थर दिल करोड़पति

उसी शहर में एक और दुनिया थी—आर के चौहान की। आर के ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज के मालिक, सेल्फ मेड अरबपति। शून्य से शुरू कर हजारों करोड़ का साम्राज्य खड़ा किया। व्यापार में भावनाओं की कोई जगह नहीं, यही उनका नियम था। भीख मांगना उनके लिए सबसे बड़ा अपराध था। उनका ऑफिस नरिमन पॉइंट की सबसे ऊंची इमारत में था। रोज Rolls Royce में उसी सिग्नल से गुजरते, जहां कोमल भीख मांगती थी। कई बार उसे देखा, हमेशा नफरत और उपेक्षा से।

एक मुलाकात, एक बदलाव

एक उमस भरी दोपहर, आर के चौहान की गाड़ी उसी सिग्नल पर रुकी। कोमल उनके पास आई, “साहब ₹2 दे दो, भगवान आपका भला करेगा। मां बहुत बीमार है।”
आर के चौहान ने गुस्से से देखा, मन किया डांट दें। लेकिन उस दिन कोमल की आंखों में सिर्फ बेबसी नहीं, एक गहरी ईमानदारी दिखी। उन्हें अपनी बेटी की याद आ गई, जो कोमल की उम्र की होती, अगर जिंदा होती। बेटी की मौत का दर्द आज भी दिल में था।

अचानक उन्होंने फैसला लिया। ड्राइवर से बोले, “गाड़ी साइड में लगाओ।” कोमल से कहा, “मेरे साथ आओ।”
कोमल डर गई, लगा पुलिस के हवाले करेंगे। चौहान बोले, “डरो मत, बस मेरे साथ चलो।”

50 पेन और आत्मसम्मान का पाठ

वो कोमल को पास की स्टेशनरी की दुकान पर ले गए। दुकानदार से बोले, “50 अच्छे पेन चाहिए।”
पेन का पैकेट कोमल को दिया, बोले, “अब भीख नहीं मांगोगी, ये पेन बेचोगी। एक पेन ₹10 का। सारे बेच दिए तो ₹500 होंगे। खरीदने में ₹250 लगे, बाकी तुम्हारा मुनाफा। कल इसी वक्त यहीं मिलना, मेरे ₹250 वापस चाहिए, बाकी पैसे अपने पास रखना। अगर पेन नहीं बेच पाई, तो दोबारा मुझे इस सिग्नल पर नजर मत आना।”

कोमल के हाथ में पहली बार भीख नहीं, एक मौका था। डर और उम्मीद के बीच उसने फैसला किया—मां, भाई और आत्मसम्मान के लिए कोशिश करेगी।

पहला व्यापार, पहली हार, पहली जीत

कोमल ने पेन बेचने की कोशिश शुरू की। गाड़ियों के पास गई, सबने उसे भिखारी समझ कर नजरअंदाज किया। शाम तक एक भी पेन नहीं बिका। हार कर फुटपाथ पर बैठ गई, रोने लगी। तभी मां का चेहरा याद आया, चौहान साहब की बात याद आई—”हार नहीं मान सकती।”

इस बार उसने पैदल चलने वालों को चुना, कॉलेज के गेट पर जाकर छात्रों से बोली, “पेन ले लो, भीख नहीं मांग रही, मेहनत कर रही हूं।” उसकी ईमानदारी ने एक लड़की का दिल छू लिया। उसने पहला पेन खरीदा। कोमल को पहली कमाई मिली, आत्मविश्वास बढ़ गया। धीरे-धीरे सारे पेन बिक गए, ₹500 मिले। उस रात मां के लिए दवा, भाई के लिए दूध, और सबके लिए पेट भर खाना।

व्यापार का सफर

अगली शाम चौहान साहब आए, कोमल ने ₹250 लौटाए। चौहान बोले, “पैसे रखो, अब ₹500 से 100 पेन खरीदो, बेचो, फिर ₹1000 बनाओ। एक हफ्ते बाद मिलूंगा।”
कोमल को समझ आ गया, वो उसे व्यापार, आत्मनिर्भरता सिखा रहे हैं। अब उसकी जिंदगी बदल गई। हर दिन पेन, पेंसिल, रबर, कॉपियां बेचने लगी। फुटपाथ पर दरी बिछाकर ‘कोमल स्टेशनरी’ नाम से दुकान शुरू की। पढ़ाई भी शुरू की, नाइट स्कूल जाने लगी।

चौहान साहब कभी-कभी आते, दूर से मुस्कुरा कर चले जाते। उनकी मुस्कान कोमल के लिए सबसे बड़ा इनाम थी।

बीस साल बाद

समय बीता, 20 साल गुजर गए। कोमल की छोटी दुकान अब ‘कोमल एंटरप्राइजेज’ नामक देश की सबसे बड़ी स्टेशनरी कंपनी बन गई। हजारों स्टोर, हजारों कर्मचारी। मां स्वस्थ, भाई राजू लंदन से पढ़कर लौटा, कारोबार संभालने लगा। अब वे झुग्गी नहीं, जूह के बंगले में रहते थे।

कोमल ने अपनी कंपनी का बड़ा हिस्सा गरीब बच्चों की पढ़ाई के लिए समर्पित कर दिया। “मुझे जो मिला, वह समाज को लौटाना है,” वह कहती थी।

चौहान साहब की मुश्किल

इसी बीच चौहान साहब के जीवन में तूफान आया। बेटे ने धोखा दिया, कंपनी दिवालिया होने की कगार पर थी। बैंक ने नोटिस दिया। बचने का एक रास्ता—सरकारी स्कूलों में स्टेशनरी सप्लाई का टेंडर। लेकिन सप्लाई के लिए करोड़ों की स्टेशनरी चाहिए, बाजार में कोई उधार देने को तैयार नहीं। सिर्फ एक कंपनी मदद कर सकती थी—कोमल एंटरप्राइजेज।

चौहान साहब ने पहली बार किसी के सामने मदद मांगी। कोमल देवी से मिलने गए।

गुरु-दक्षिणा और इंसानियत

कोमल के ऑफिस पहुंचे, भव्यता देखकर हैरान रह गए। बोर्डरूम में कोमल आई, साधारण साड़ी में, आत्मविश्वास से भरी। चौहान साहब पहचान गए—वही कोमल जिसे कभी 50 पेन दिए थे।

शर्मिंदगी, ग्लानि, आंखों में आंसू। कोमल ने आगे बढ़कर हाथ पकड़ा, “अंकल, आप मेरे गुरु हैं। आपकी जगह यहां नहीं, इस कुर्सी पर है।”
कोमल ने कहा, “आपने मुझे भीख नहीं, आत्मसम्मान दिया था। मैं सालों से आपको ढूंढ रही थी, शुक्रिया कहना चाहती थी।”

उसने मैनेजर से कहा, “चौहान साहब को जितना माल चाहिए, आज ही पहुंचा दो, कोई एडवांस नहीं लिया जाएगा। यह आपके दिए हुए 50 पेन की पहली किस्त है।”

चौहान साहब फूट-फूटकर रो पड़े, “मेरी असली दौलत तुम हो बेटी। मेरा सबसे बड़ा निवेश वो 50 पेन थे।”

समाज सेवा और प्रेरणा

कोमल ने चौहान साहब को अपनी कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में शामिल कर लिया। दोनों ने मिलकर समाज सेवा शुरू की।
चौहान साहब कहते—”दान देना अच्छी बात है, लेकिन किसी को दान लेने के काबिल ना छोड़ना सबसे बड़ी इंसानियत है।”

कहानी का संदेश

यह कहानी सिखाती है कि मदद के लिए सिर्फ पैसा जरूरी नहीं, सही मार्गदर्शन और आत्मसम्मान का तोहफा किसी की पूरी जिंदगी बदल सकता है। नेकी का कोई भी काम बेकार नहीं जाता, वह एक इन्वेस्टमेंट की तरह सही समय पर भारी मुनाफे के साथ लौटता है।

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धन्यवाद।