गरीब मजदूर ने एक अनाथ बच्चे को पढ़ाया लिखाया , जब वो डॉक्टर बना तो उसने जो किया देख कर सब हैरान रह
कहानी: वसीम और समीर – इंसानियत का अनमोल रिश्ता
क्या होता है जब दो तन्हा रूहें, जिन्हें किस्मत ने लावारिस छोड़ दिया हो, एक-दूसरे का सहारा बन जाती हैं? क्या खून का रिश्ता ही दुनिया का सबसे मजबूत बंधन होता है या इंसानियत का एक अनदेखा धागा सारे रिश्तों से बढ़कर हो सकता है?
यह कहानी है अजमेर के वसीम खान और समीर की। एक गरीब मजदूर, जिसकी अपनी जिंदगी में कोई नहीं था, और एक अनाथ बच्चा, जिसकी दुनिया दरगाह की सीढ़ियों तक ही सीमित थी। जब वसीम ने समीर की आंखों में ईमानदारी की छोटी सी लौ देखी, तो उसने उसे सिर्फ भीख नहीं, बल्कि अपनी पूरी जिंदगी का मकसद बना लिया।
अजमेर की दरगाह
अजमेर अरावली की पहाड़ियों से घिरा, सूफी रवायतों और गंगा-जमुनी तहजीब में डूबा हुआ शहर है। यहां हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है – एक ऐसी पाक जगह, जहां मजहब की दीवारें पिघल जाती हैं और सिर्फ दुआएं, मन्नतें ही सुनाई देती हैं।
दरगाह की संगमरमरी सीढ़ियों पर रोज हजारों लोग अपनी-अपनी मुरादें लेकर आते हैं। इन्हीं चेहरों के बीच दो लोग थे – वसीम और समीर।
वसीम की तन्हाई
करीब 30 साल का वसीम खान, हट्टा-कट्टा लेकिन खामोश। वह शहर की कंस्ट्रक्शन साइट्स पर मजदूरी करता – पत्थर ढोता, सीमेंट की बोरियां उठाता। शाम को जो भी 100-200 रुपये की दिहाड़ी मिलती, उससे अपना पेट पालता।
बचपन में एक रेल हादसे में वसीम ने अपने पूरे परिवार को खो दिया था। तब से वह अकेला ही था। दरगाह के पास एक पुरानी बस्ती में किराए के एक कमरे में रहता था। उसकी जिंदगी में ना कोई रंग था, ना कोई सपना। बस जीता था क्योंकि उसे मरना नहीं आता था।
हर जुमेरात को वह काम से लौटकर दरगाह पर आता, एक कोने में चुपचाप बैठ जाता और घंटों कव्वाली सुनता, जो उसकी रूह को सुकून देती थी।
समीर – दरगाह का अनाथ बच्चा
दूसरा चेहरा था समीर का। आठ साल का दुबला-पतला, मासूम सा बच्चा। उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में उम्र से ज्यादा दर्द और समझदारी थी। समीर को यह भी नहीं पता था कि उसके मां-बाप कौन हैं। जब से उसने होश संभाला, खुद को दरगाह की सीढ़ियों पर पाया। यहीं के लंगर में खाता, यहीं के बरामदे में सो जाता और दिनभर दरगाह के बाहर बैठकर आने-जाने वाले जायरीनों के सामने हाथ फैलाता।
लेकिन समीर की भीख मांगने में एक अजीब सी खुद्दारी थी। वह किसी के पीछे नहीं दौड़ता था, किसी का पैर नहीं पकड़ता था। बस चुपचाप एक कोने में बैठा रहता। अगर कोई कुछ दे देता तो दुआ देता, वरना खामोश रहता। उसकी आंखों में एक ऐसी ईमानदारी थी जो किसी को भी अपनी तरफ खींच लेती।
पहली मुलाकात – ईमानदारी की परीक्षा
वसीम ने समीर को कई बार देखा था। उसे उस बच्चे में अपना बचपन नजर आता था। कभी-कभी जब वसीम के पास कुछ ज्यादा पैसे होते, तो वह समीर के लिए खाने को खरीद देता। समीर खुशी-खुशी ले लेता, लेकिन उसकी आंखों में एहसान नहीं, बल्कि अपनेपन का हक होता।
रमजान का महीना था। वसीम दिनभर की मेहनत के बाद 500 रुपये की दिहाड़ी लेकर घर लौट रहा था। उसने सोचा आज दरगाह पर इफ्तारी करेगा और समीर के लिए भी कुछ अच्छा ले जाएगा।
वह दरगाह के बाहर वाली गली से गुजर रहा था। तभी उसकी नजर पड़ी – समीर एक अमीर सेठ के सामने खड़ा रो रहा था। सेठ उस पर चिल्ला रहा था, “हरामखोर चोर! मेरी जेब काटता है, आज तुझे पुलिस के हवाले करता हूं।”
वसीम दौड़कर गया, “क्या हुआ सेठ जी, क्यों इस बच्चे पर जुल्म कर रहे हैं?”
सेठ बोला, “यह बच्चा चोर है! इसने मेरी जेब से बटुआ निकाला है।”
समीर रोते हुए बोला, “साहब, मैंने चोरी नहीं की। आपका बटुआ तो जमीन पर गिरा था, मैं आपको देने जा रहा था।”
वसीम ने समीर की आंखों में देखा, वो जानता था यह बच्चा झूठ नहीं बोल सकता।
वसीम ने सेठ से कहा, “सेठ जी, अपनी जेब देखिए, शायद बटुआ आपकी जेब से गिर गया हो।”
सेठ ने जब अपनी शेरवानी की अंदर वाली जेब में हाथ डाला, बटुआ वहीं था। उसे अपनी गलती का एहसास हुआ लेकिन शर्मिंदगी मिटाने के लिए बोला, “तो क्या हुआ? यह जरूर चोरी करने की फिराक में होगा। तुम जैसे लोग होते ही ऐसे हो।”
वह बिना माफी मांगे चला गया।
समीर वहीं जमीन पर बैठकर सिसक-सिसक कर रोने लगा। उसकी ईमानदारी पर इल्जाम लगा था।
नया रिश्ता – पिता और बेटे का
वसीम का दिल उस बच्चे के लिए प्यार और हमदर्दी से भर गया। उसने समीर के सिर पर हाथ फेरा, “रो मत बेटे, दुनिया तेरी नेकी को नहीं समझेगी, लेकिन ऊपर वाला सब देखता है।”
फिर वसीम ने अपनी जेब से 500 का नोट निकालकर समीर को दिया, “यह रख ले, आज तेरी ईमानदारी की दिहाड़ी है।”
समीर ने नोट देखा, फिर वसीम की आंखों में देखा। नोट वापस करते हुए बोला, “नहीं चाचा, मैं यह नहीं ले सकता। यह भीख होगी।”
वसीम मुस्कुरा कर बोला, “तो तू क्या चाहता है?”
समीर ने एक पल सोचा, पास की किताबों की दुकान की तरफ इशारा किया, “अगर आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं, तो वह किताब खरीद दीजिए।”
वसीम हैरान रह गया। एक भिखारी बच्चा पैसे की जगह किताब मांग रहा था।
“तू पढ़ेगा?”
“हां, मुझे पढ़ना अच्छा लगता है। मैं बड़ा होकर अफसर बनना चाहता हूं।”
उस दिन वसीम को अपनी जिंदगी का मकसद मिल गया। उसने समीर का हाथ पकड़ा, “आज से तू भीख नहीं मांगेगा। आज से तू सिर्फ पढ़ेगा, तू मेरा बेटा बनकर मेरे साथ घर चलेगा।”
समीर अविश्वास और खुशी से देखता रहा, फिर दौड़कर वसीम के गले लग गया।
संघर्ष और बलिदान
उस शाम जब दोनों एक पुरानी किताब लेकर उस तंग बस्ती के एक कमरे में पहुंचे, तो वे सिर्फ मजदूर और अनाथ बच्चा नहीं थे – वे पिता और बेटा थे।
अब वसीम सिर्फ अपने लिए नहीं जीता था। उसकी हर सांस, हर मेहनत सिर्फ समीर के लिए थी। उसने समीर का दाखिला पास के सरकारी स्कूल में करवाया। लेकिन यह सफर आसान नहीं था – वसीम की दिहाड़ी से घर का खर्च और समीर की पढ़ाई का बोझ उठाना मुश्किल था।
वसीम अब और ज्यादा मेहनत करता। दिन में मजदूरी, रात में रेलवे स्टेशन पर कुली का काम। कई रातें भूखा सो जाता, लेकिन समीर के लिए दूध का गिलास रखना कभी नहीं भूलता। खुद सालों से नए कपड़े नहीं खरीदे, लेकिन समीर की यूनिफॉर्म हमेशा साफ-सुथरी होती थी।
बस्ती के लोग ताने देते, “वसीम पागल हो गया है क्या? खुद शादी नहीं की, पराया बच्चा पाल रहा है! कल को यह तुझे छोड़कर चला जाएगा।”
वसीम मुस्कुरा देता, जानता था कि समीर उसकी रूह का हिस्सा है।
उसने समीर की परवरिश के लिए अपनी जिंदगी के सारे सुख, यहां तक कि परिवार बसाने का सपना भी कुर्बान कर दिया।
समीर की मेहनत और वसीम का त्याग
समीर अपने अब्बू के तप और बलिदान को समझता था। वह दिन-रात पढ़ता, स्कूल में अव्वल आता, हर काम में हाथ बटाता। चाहता था जल्दी बड़ा होकर अब्बू के सारे दुख खत्म कर दे।
समय बीतता गया। समीर ने 10वीं और 12वीं की परीक्षा में पूरे शहर में टॉप किया। बस्ती के लोग, जिन्होंने कभी ताने दिए थे, अब मुबारकबाद देने आ रहे थे। वसीम का सीना गर्व से चौड़ा हो गया।
समीर का सपना डॉक्टर बनने का था। उसने मेडिकल की प्रवेश परीक्षा दी, पूरे राज्य में अच्छी रैंक हासिल की। उसका दाखिला देश के सबसे प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज – AIIMS दिल्ली में हो गया।
यह खुशी जितनी बड़ी थी, उतनी ही चिंता भी – दिल्ली में पढ़ाई का खर्च वसीम के बस की बात नहीं थी।
समीर बोला, “अब्बू, मैं यह पढ़ाई नहीं करूंगा। यहीं कोई नौकरी कर लूंगा।”
जिंदगी में पहली बार वसीम ने समीर को थप्पड़ मारा, “खबरदार जो ऐसी बात की! तू डॉक्टर बनेगा, पैसे की फिक्र मत कर, मैं हूं ना।”
उस रात वसीम ने अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा फैसला किया – अपने एक कमरे की खोली बेच दी, शहर के साहूकार से कर्ज लिया। अब वो बेघर हो गया, दरगाह के बरामदे में सोता, दिन-रात तीन-तीन शिफ्टों में काम करता ताकि समीर को दिल्ली में पैसे भेज सके।
समीर की कामयाबी
पांच साल गुजर गए। वसीम का शरीर टूट चुका था, लेकिन दिल उम्मीद से जिंदा था – मेरा बेटा डॉक्टर बनकर आएगा।
दिल्ली में समीर ने भी मेहनत की, क्लास में टॉप किया, ब्रिलियंट हार्ट सर्जन बनकर निकला। डिग्री मिली तो सीधा अजमेर की ट्रेन में बैठ गया।
दरगाह के बाहर उसने देखा, अब्बू एक फटे कंबल में लिपटा सो रहा था – कमजोर, बूढ़ा। समीर दौड़कर गया, अब्बू के पैरों में गिरकर रोने लगा, “अब्बू, मुझे माफ कर दो, मैं आपकी यह हालत नहीं देख सकता।”
वसीम ने अपने डॉक्टर बेटे को गले लगा लिया, “आज रोने का नहीं, खुशी का दिन है मेरे शेर। मेरा बेटा डॉक्टर बन गया।”
सपनों का अस्पताल – इंसानियत का मंदिर
समीर अपने अब्बू को दिल्ली ले आया, पौश इलाके में खूबसूरत घर किराए पर लिया, हर सुख-सुविधा दी। “अब्बू, आज से आप कोई काम नहीं करेंगे, अब बेटा कमाएगा।”
कुछ महीने बीते, समीर रोज सुबह तैयार होकर निकलता, शाम को लौटता। वसीम को लगता, वह किसी बड़े अस्पताल में नौकरी करता है। एक दिन वसीम ने कहा, “बेटा, मुझे अपने अस्पताल तो ले चल, देखना चाहता हूं कैसे लोगों का इलाज करता है।”
समीर मुस्कुराया, “कल ही चलते हैं अब्बू।”
अगली सुबह समीर अपने अब्बू को नई गाड़ी में बिठाकर दिल्ली के बाहरी इलाके में एक शानदार इमारत के सामने ले गया। इमारत के ऊपर लिखा था – वसीम खान चैरिटेबल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर।
वसीम हैरान, “यह तो मेरे नाम पर है?”
समीर ने हाथ पकड़ा, अंदर ले गया, आधुनिक मशीनें, साफ वार्ड, डॉक्टर्स-नर्सों की टीम। अपने कैबिन में अब्बू को कुर्सी पर बिठाया, खुद पैरों के पास जमीन पर बैठ गया।
“अब्बू, यह आपका अस्पताल है। जिस दिन मुझे डिग्री मिली, उसी दिन तय किया कि अमीरों का इलाज नहीं करूंगा। अपनी जिंदगी उन गरीबों, अनाथों, लाचारों के नाम करूंगा। सरकार और ट्रस्ट से लोन लिया, 6 महीने दिन-रात मेहनत से यह अस्पताल बनाया। यहां हर गरीब, हर अनाथ का इलाज मुफ्त होगा। यहां जात-धर्म नहीं पूछा जाएगा, सिर्फ इंसानियत का इलाज होगा। और इस अस्पताल के चेयरमैन आप होंगे अब्बू।”
वसीम के पास कहने को शब्द नहीं थे। वह रो रहा था, अपने बेटे के चेहरे में वही मासूम बच्चा देख रहा था, जिसने पैसे नहीं, किताब मांगी थी।
अंतिम संदेश
वसीम ने बेटे को गले लगा लिया, “आज तूने मुझे दुनिया का सबसे अमीर इंसान बना दिया बेटे। आज मेरी जिंदगी सफल हो गई।”
यह कहानी हमें सिखाती है – पिता बनने के लिए सिर्फ जन्म देना जरूरी नहीं। वसीम ने एक अनाथ बच्चे को अपनाकर पितृत्व की मिसाल कायम की। समीर ने भी साबित किया कि सच्चा बेटा मां-बाप का सहारा ही नहीं, उनके सपनों को पहचान देता है।
इंसानियत का रिश्ता खून से भी ज्यादा पाक होता है।
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धन्यवाद!
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