गरीब लड़की ने अपाहिज जज से कहा, पापा को जाने दो, मैं आपको ठीक कर दूँगी… |

एक बेटी का वादा – इंसानियत की जीत

रामगढ़ की झोपड़ी से अदालत तक

रामगढ़ नाम का एक छोटा सा गांव, जहां गरीबी और भूख ने लोगों के चेहरों से मुस्कान छीन ली थी। उसी गांव के एक कोने में, टूटी-फूटी झोपड़ी में छवि अपने परिवार के साथ रहती थी। उसके पिता मोहन एक ईमानदार बढ़ई थे, लेकिन महीनों से गांव में कोई काम नहीं था। घर में खाने का एक दाना नहीं था। छवि की मां बीमार बिस्तर पर पड़ी थी और उसका छोटा भाई भूख से बिलख-बिलख कर रो रहा था।

पापा भूख लगी है…
अपने बच्चों का रोना मोहन से और बर्दाश्त नहीं हुआ। मजबूरी और लाचारी के अंधेरे में उसने एक ऐसा कदम उठाया जो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। उसने गांव के व्यापारी के गोदाम से कुछ किलो अनाज चुरा लिया। लेकिन किस्मत खराब थी, वह उसी पल पकड़ा गया।

गुनाह, अदालत और जज साहब

अगले दिन मोहन को गांव की पंचायत अदालत में पेश किया गया। मामला इतना बड़ा नहीं था, पर गांव में मिसाल कायम करने के लिए शहर से खुद जज साहब आए थे। यह कोई आम जज नहीं थे – पिछले एक साल से एक भयानक एक्सीडेंट के बाद वे पैरालाइज़ हो गए थे और व्हीलचेयर पर ही अपनी ड्यूटी निभा रहे थे। उनका चेहरा सख्त था और आंखों में लाचारी की वजह से अजीब सी कड़वाहट भर गई थी।

जज ने सारे सबूत देखे और भारी आवाज में कहा,
“चोरी एक गुनाह है, चाहे किसी भी वजह से की गई हो। कानून सबके लिए बराबर है। तुम्हें सजा मिलेगी।”
मोहन सिर झुकाए खड़ा था, अपनी किस्मत को कोस रहा था।

छवि का साहस और अदालत में सौदा

तभी भीड़ में से एक कपली दुबली 12 साल की लड़की, छवि दौड़ती हुई आगे आई। उसकी आंखों में आंसू थे, पर आवाज में गजब की हिम्मत थी।
“साहब, मेरे पापा को जाने दो। मैं आपको ठीक कर दूंगी।”

यह सुनते ही अदालत में सन्नाटा छा गया, फिर लोग ठहाके लगाकर हंसने लगे।
व्यापारी बोला, “हा देखो तो, यह लड़की पागल हो गई है। तू जज साहब को ठीक करेगी जिनको शहर के बड़े-बड़े डॉक्टर ठीक नहीं कर पाए!”

जज की आंखों में भी हैरानी थी। लेकिन जब उन्होंने छवि की आंखों में देखा, वहां मजाक नहीं था… सच्चाई की आग जल रही थी। जज ने अपनी व्हीलचेयर थोड़ा आगे बढ़ाया और छवि को सिर से पांव तक देखा। एक 12 साल की बच्ची जिसके पैरों में चप्पल तक नहीं थी, वह उन्हें ठीक करने का दावा कर रही थी।

जज ने मुस्कुराते हुए पूछा, “तू क्या करेगी? तेरे पापा ने गुनाह किया है और कानून के हिसाब से उन्हें सजा मिलनी चाहिए।”
छवि ने मासूमियत से, लेकिन दृढ़ता से कहा,
“साहब, मेरे पापा चोर नहीं हैं। वह बस एक भूखे बाप थे। आप चाहो तो उनकी सजा मुझे दे दो, पर उन्हें छोड़ दो। मेरी मां और भाई उनके बिना मर जाएंगे।”

उसकी बातों में इतना दर्द और सच्चाई थी कि जज का पत्थर दिल भी एक पल के लिए पिघल गया।
छवि ने फिर वही बात दोहराई,
“अगर मैं आपको आपके पैरों पर फिर से खड़ा कर दूं तो क्या आप मेरे पापा को छोड़ देंगे?”

पूरा कमरा एक बार फिर सन्न हो गया। यह कोई बचपना नहीं था, यह एक सौदा था – एक बेटी का अपने पिता के लिए किया गया सौदा।

जज ने गहरी सोच में आंखें बंद कर ली। शायद वह अपनी लाचारी से तंग आ चुके थे या शायद उन्हें उस बच्ची की आंखों में उम्मीद की किरण दिखी थी।
उन्होंने फैसला सुनाया,
“ठीक है। मैं तुम्हें एक मौका देता हूं। आज से ठीक एक साल का वक्त है तुम्हारे पास। अगर एक साल में मैं अपने पैरों पर चलने लगा तो तेरे बाप को मैं बाइज्जत बरी कर दूंगा। लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो तेरे बाप को पूरे 5 साल की सजा होगी।”

यह सुनकर मोहन चीख पड़ा,
“नहीं साहब, मेरी बेटी की बातों में मत आइए। यह नादान है।”
पर छवि की आंखों में डर नहीं था, बल्कि एक अटूट विश्वास था।
उसने जज की आंखों में आंखें डालकर कहा,
“मैं वादा करती हूं साहब, मैं आपको ठीक कर दूंगी।”

एक बेटी की तपस्या

अब छवि का हर दिन तपस्या बन गया था। वह हर सुबह जेल की सलाखों के पीछे अपने पिता को देखती, जो हर गुजरते दिन के साथ और निराश होते जा रहे थे। अपने पिता की उदास आंखें देखकर छवि का इरादा और मजबूत हो जाता। वहां से लौटकर वह सीधे जज साहब की बड़ी सी हवेली जाती।

जज साहब का रवैया शुरू में बहुत रूखा था। पर छवि ने हार नहीं मानी। वह कोई डॉक्टर नहीं थी, पर उसके पास वह ज्ञान था जो उसे अपनी दादी से विरासत में मिला था – जड़ी बूटियों और आयुर्वेदिक उपचार का।

वह जंगल में जाकर खुद गिलोय की बेलें तोड़कर लाती, उनका ताजा रस निकालकर जज साहब को पिलाती।
वह अश्वगंधा की जड़ों को पीसकर उसका काढ़ा बनाती।
वह रोज घंटों तक सरसों के गर्म तेल से जज साहब की बेजान टांगों की मालिश करती।
उसके छोटे-छोटे हाथों में जैसे कोई जादू था।
इन सब दवाओं से बढ़कर थी उसकी दुआ –
वह हर रोज मालिश करते हुए मन ही मन प्रार्थना करती,
“भगवान, मैंने आज तक अपने लिए कुछ नहीं मांगा, बस मेरे पापा को आज़ाद कर दो। इस अच्छे इंसान को फिर से चलने की ताकत दे दो।”

चमत्कार की शुरुआत

महीने गुजरते गए। जज साहब के बड़े-बड़े डॉक्टर आते और छवि को देखकर हंसते,
“यह जंगली जड़ी-बूटियों से क्या होगा? इनका केस लाइलाज है।”
लेकिन फिर चमत्कार होना शुरू हुआ। 3-4 महीने बाद जज साहब को अपने पैरों की उंगलियों में हल्की सी झुनझुनी महसूस हुई।
धीरे-धीरे उनके पैरों में थोड़ी-थोड़ी हलचल आने लगी।
डॉक्टर हैरान थे,
“यह कैसे हो रहा है? यह तो नामुमकिन है!”

छवि ने मुस्कुराकर कहा,
“यह दवा से नहीं, दुआ से हो रहा है।”

अब जज साहब का व्यवहार भी बदलने लगा था।
वह छवि से अपनी बेटी की तरह बात करते, उसे पढ़ाते, कहानियां सुनाते।
वह समझ गए थे कि यह लड़की सिर्फ उनका शरीर नहीं, बल्कि उनकी आत्मा का भी इलाज कर रही थी।

एक साल बाद – इंसानियत की जीत

आखिरकार वह दिन आ ही गया। ठीक एक साल पूरा हुआ।
अदालत का कमरा खचाखच भरा हुआ था। पूरा गांव उस सौदे का नतीजा देखने आया था।
मोहन को भी कटघरे में लाया गया था, उसकी आंखों में डर और उम्मीद दोनों थी।
जज साहब अपनी व्हीलचेयर पर बैठे थे, सबकी नजरें उन्हीं पर टिकी थी।
जज ने छवि को अपने पास बुलाया। छवि का दिल जोर-जोर से धड़क रहा था।

जज ने माइक पर कहा,
“आज से एक साल पहले इस बच्ची ने एक वादा किया था।”
फिर उन्होंने पास में रखी लाठी को हाथ में लिया।
एक गहरी सांस ली, सारी हिम्मत जुटाई और अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए।
पहले उनके पैर कांपे, वह लड़खड़ाए, पर गिरे नहीं।
लाठी के सहारे पहला कदम उठाया, फिर दूसरा, फिर तीसरा।
वह चल रहे थे!

पूरा गांव तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
लोगों की आंखों में हैरानी और खुशी के आंसू थे।
जज साहब की अपनी आंखों में भी आंसू थे।
वह धीरे-धीरे चलकर छवि के पास आए।

“छोटी, आज तूने मुझे सिर्फ चलना नहीं सिखाया,
तूने मुझे इंसानियत की वह राह दिखा दी है जिसे मैं भूल चुका था।
तेरे बाप को नहीं, आज मुझे तुझसे और इस समाज से माफी मांगनी चाहिए
जो भूख को नहीं, सिर्फ चोरी को गुनाह समझता है।”

जज साहब ने उसी वक्त मोहन को बाइज्जत बरी करने का आदेश दिया।
वह खुद चलकर जेल के दरवाजे तक गए और मोहन को बाहर लेकर आए।
उन्होंने मोहन के हाथ जोड़कर कहा,
“मुझे माफ कर देना मोहन।
तुम्हारी बेटी आज से मेरी भी बेटी जैसी है और मैं उस पर गर्व करता हूं।”

मोहन कुछ बोल नहीं पाया, बस रोता रहा।
छवि दौड़कर अपने पापा के गले लग गई।
“देखो पापा, मैंने कहा था ना, मैं आपको बचा लूंगी।”

उस दिन उस अदालत में कानून नहीं, इंसानियत जीती थी।
एक बेटी का प्यार जीता था।
कभी-कभी चमत्कार महंगी दवाओं से नहीं, सच्चे दिल से की गई दुआओं से होते हैं।
जहां नियत सच्ची हो और इरादे नेक हो, वहां भगवान भी किसी मासूम इंसान के हाथों से ही अपना इलाज करवा लेता है।

कहानी का संदेश

यह कहानी हमें सिखाती है कि
प्यार और विश्वास में दुनिया की सबसे बड़ी ताकत होती है।
गरीबी, लाचारी और मजबूरी के आगे भी अगर दिल में उम्मीद और इरादा हो,
तो इंसानियत और दुआओं से चमत्कार हो जाते हैं।

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“इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है!”

जय हिंद!