गलती से गलत ट्रेन में बैठ गया लड़का, टीटी ने जब उसे उतारा तो स्टेशन पर जो मिला, उसने पलट दी किस्मत!

गलत ट्रेन सही मंजिल – मोहन की प्रेरणादायक कहानी 

भूमिका: कई बार हम सोचते हैं कि हमारी सबसे बड़ी गलती हमारी जिंदगी की सबसे बड़ी हार है। लेकिन किस्मत कभी-कभी हमारे साथ ऐसा चक्रव्यूह रच देती है, जिसमें हमें लगता है कि सब खत्म हो गया। लेकिन वहीं से नई शुरुआत होती है। मोहन की कहानी भी कुछ ऐसी ही है, जिसमें उसकी एक गलती, उसकी सबसे खूबसूरत किस्मत बन जाती है।

गांव हरिपुर और मोहन का परिवार

बिहार के हरिपुर गांव में मोहन अपने मां-बाप और छोटी बहन राधा के साथ रहता था। उनका परिवार वर्षों से गरीबी के दलदल में था। बूढ़े पिता रामलाल के पास अब मेहनत की ताकत नहीं बची थी, मां बीमार रहतीं और छोटी बहन की पढ़ाई और शादी की चिंता। परिवार का पूरा बोझ 22 साल के मोहन के कंधों पर आ चुका था।

मोहन बचपन से ही सीधा-सादा और मेहनती था। गांव के स्कूल से जैसे-तैसे 12वीं पास की, लेकिन उसकी आंखों में बड़ा सपना था—सरकारी नौकरी का, जिससे वह परिवार की किस्मत बदल सके, कर्ज चुकता हो, मां-पिता की दवाईयों के पैसे आएं, बहन की शादी हो सके।

दिन में खेती में माता-पिता का हाथ बंटाता, और रात में ढिबरी की रोशनी में घण्टों पढ़ाई करता। उसकी मेहनत रंग लाई। रेलवे की क्लर्क परीक्षा पास हो गई। परिवार की आंखों में चमक लौट आई। अब बस आखिरी पड़ाव बचा था—दिल्ली में इंटरव्यू।

इंटरव्यू के दिन की तैयारी

घर में त्योहार जैसा माहौल था। मां ने साड़ी का पल्लू फाड़कर 100 रुपये निकाले, “बेटा, कुछ खा लेना रास्ते में।” पिता की आंखों में संतोष के आंसू थे, “अब हमारी गरीबी खत्म।” बहन राधा ने भाई की पुरानी शर्ट धो-प्रेस कर बैग में रख दी।

मोहन मां-बाप के पैर छूकर, गांव से पहली बार निकलते वक्त बहुत घबराया हुआ था। वादा कर गया—“आपकी उम्मीदें कभी नहीं टूटेंगी।”

गलत ट्रेन, गलत रास्ता, टूटती उम्मीदें

पटना स्टेशन पर भारी भीड़, धक्का-मुक्की, शोर-गुल। मोहन का टिकट दिल्ली जाने वाली समता एक्सप्रेस का था। कुल्ली से पूछा—वो जल्दी से प्लेटफार्म 5 दिखाकर आगे बढ़ गया। प्लेटफार्म 5 पर ट्रेन देखकर बिना बोर्ड देखे जनरल डिब्बे में चढ़ गया। सीट भी मिल गई, चैन की सांस ली।

ट्रेन चल पड़ी—मोहन अगले दिन के इंटरव्यू और परिवार के नए सपनों की कल्पना में खोया था। करीब रात हो गई। तभी डिब्बे में टीटीई—एस.के. सिंह—आया। टिकट देखने पर पता चला—यह ट्रेन दिल्ली नहीं, हावड़ा जा रही है। मोहन के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। वह गिड़गिड़ाया—मेरी पूरी ज़िंदगी दांव पर है…

सख्त मिजाज टीटीई को भी मोहन की हालत से सहानुभूति हुई, पर नियम के मुताबिक लड़की को अगले स्टेशन किशनपुर में उतारना ही जरूरी था।

मोहन को स्टेशन पर रात 12 बजे उतार दिया गया—अंधेरे और वीराने में अकेला। उसी दौरान टीटीई ने अपने दिल की इंसानियत दिखाकर मोहन को अपनी जेब से 500 रुपए दिए: “सुबह पटना वापस लौट जाना।” ट्रेन रवाना हो गई।

अजनबी रात में इंसानियत का इम्तिहान

मोहन प्लेटफार्म की बेंच पर फूट-फूटकर रोने लगा—सारी मेहनत, सारे परिवार के सपने, एक गलती में खत्म? “क्या जवाब दूंगा मां-बाबूजी को?” उसके मन-मस्तिष्क में बवंडर चल रहा था।

तभी, प्लेटफार्म के कोने में किसी के गिरने की आवाज़ आई। देखा—एक बूढ़ा आदमी दर्द से कराह रहा है। मोहन एक पल के लिए रुका, फिर उसके अंदर की मानवता जाग गई। अपने दुख के बावजूद वह बूढ़े की मदद में जुट गया—पानी, दवा, सिर पर पट्टियां।

बूढ़े की जेब से बटुआ गिरा। मोहन ने ईमानदारी से बटुआ उठाया—कुछ पैसे और ‘सेठ रामनिवास गोयल’ का कार्ड और नम्बर। फोन नहीं था, न डॉक्टर, न दुकान खुली, न कोई गाड़ी। मोहन ने ठान लिया—उसकी जान बचानी है। पास के गांव तक गया, घरों के दरवाजे खटखटाए। एक नेकदिल ग्रामीण की मदद से छोटे से क्लिनिक से दवाई मिली।

वापस स्टेशन लौटा, रातभर बिना खाए-पिए उस बूढ़े की सेवा की।

सुबह किस्मत की नई दस्तक

सुबह होते-होते बूढ़े को होश आया—हैरान होकर मोहन से बोला—”बेटा, तू कौन है?” मोहन ने रोते-बिलखते अपनी सारी दुख-कहानियां सुनाई—गांव, गरीब माता-पिता, सरकारी नौकरी का सपना, गलती से छूट गया इंटरव्यू…

पीछे से शानदार गाड़ियों की आवाज आई—कुछ लोग स्टेशन पर दौड़ते पहुंचे। असल में सेठ रामनिवास गोयल—इलाके के सबसे बड़े उद्योगपति, समाजसेवी—अपनी किसी चैरिटेबल हॉस्पिटल का दौरा करते वक्त बीमार हो गए थे और स्टेशन पर रात काटनी पड़ी थी।

कद्र इंसानियत की–इनाम कबूलियत का

सेठ रामनिवास ने मोहन के चरित्र, ईमानदारी, और इंसानियत को देख, अपने मैनेजर को आदेश दिया—“रेलवे क्लर्क भर्ती चेयरमैन से बात करवाओ।” कॉल पर चेयरमैन से बोले: “इंटरव्यू छूट गया, क्योंकि वह मेरी जान बचा रहा था। ऐसी इंसानियत सोने जैसी होती है। अगर आपके पास ऐसे कर्मचारियों के लिए जगह है, भर्त्तीयंत्रना को पुनः देखिए, वरना मैं अपनी कंपनी में इसको बड़ा पद दे दूंगा।”

चेयरमैन ने कहा, “सेठ जी, इस बच्चे की रेलवे की नौकरी पक्की है। विशेष नियुक्ति पत्र जारी होगा।”

मोहन रो पड़ा, सेठ जी के पैरों में गिर गया। सेठ जी ने उसे गले से लगा लिया। “आज से तुम्हारे परिवार की सारी जिम्मेदारी मेरी, बहन की शादी से लेकर कर्ज तक सब।”

नई जिंदगी–पुनर्मिलन

मोहन को रेलवे में सरकारी नौकरी मिली। कुछ ही दिन बाद बहन की शादी धूमधाम से हुई। सेठ जी ने उनके सारे कर्ज उतार दिए। मोहन राजी-खुशी, आत्मसम्मान के साथ गांव लौटा, माता-पिता की आंखों में गर्व था, गांववालों में प्रेरणा थी।

कुछ महीने बाद, मोहन एक दिन, ड्यूटी पर जाते वक्त उसी ट्रेन में, उसी टीटीई–एस के सिंह से टकराया। पैर छूकर शुक्रिया अदा किया, 500 का नोट लौटाया। सारी बात सुनकर एस के सिंह की आंखें भर आईं, बोले–“मेरी ड्यूटी ने तुम्हारी राह बदल दी, तुम्हारी अच्छाई ने तुम्हारी तकदीर बदल दी।”

सीख और भावनात्मक संदेश

इस कहानी से हमें यही सीख मिलती है— कभी-कभी ज़िंदगी की ‘गलत ट्रेन’ आपको आपकी ‘सही मंजिल’ तक लाती है। बस, इंसानियत का साथ, नेक नीयत, मेहनत और हौसला हमेशा रखना चाहिए। जीवन में बुरा वक्त आए या गलती हो, अपने कर्म नेक रखो, खुदा तुम्हें तुम्हारी असली मंजिल तक जरूर पहुंचाएगा।

अगर मोहन की कहानी ने आपके दिल में उम्मीद की लौ जलाई हो, तो इसे फैलाईये। धन्यवाद।