गांव से आए मां-बाप को बोझ समझ बैठे बेटे-बहू लेकिन अगले दिन जो हुआ, सबकी आंखें नम हो गईं!

एक नई शुरुआत

जयपुर स्टेशन पर सुबह की पहली किरणें धीरे-धीरे प्लेटफार्म को रोशन कर रही थीं। लेकिन कमला देवी की आंखों में एक अनजानी बेचैनी तैर रही थी। उनके हाथ में एक पुराना थैला था जिसमें कुछ कपड़े, बेटी माधवी और नातिन आन्या के लिए छोटे-छोटे उपहार और ढेर सारी उम्मीदें भरी थीं।

उनके साथ खड़े थे रामनाथ – एक शांत, संयमित बुजुर्ग जो हर कुछ मिनट में अपने चश्मे को ठीक करते हुए इधर-उधर देख रहे थे। ट्रेन थोड़ी देर पहले ही आई थी, लोग उतरकर जा चुके थे, प्लेटफॉर्म लगभग खाली हो चला था। लेकिन वह चेहरा, जिसे देखने के लिए कमला और रामनाथ की आंखें बेचैनी से हर दिशा में घूम रही थीं, अभी तक दिखाई नहीं दिया था।

अभय – उनका बेटा। वही बेटा जिसके लिए उन्होंने अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया था, आज वक्त पर स्टेशन नहीं पहुंचा था।

कमला ने रामनाथ की ओर देखा। उनकी आंखों में सवाल था लेकिन लबों पर सन्नाटा।
रामनाथ ने कहा, “शायद ट्रैफिक में फंसा हो… चिंता मत करो, मैं कॉल करता हूं।”

पुराने फोन की स्क्रीन पर कॉल की गई। घंटी बजी… लेकिन कोई जवाब नहीं।

कमला की उंगलियां थैले के हैंडल को कसने लगीं। कुछ पल बाद कॉल उठा – अभय की आवाज में जल्दबाज़ी थी, “हां पापा, मैं रास्ते में हूं… थोड़ा लेट हो गया। आप लोग बुकिंग काउंटर के पास रुकिए।”

कमला ने गहरी सांस ली। चेहरे पर मुस्कान आई, पर वह आंखों तक नहीं पहुंची।
वे दोनों धीरे-धीरे काउंटर की ओर बढ़े। थैले भारी नहीं थे, लेकिन दिल का बोझ शायद उस सुबह सबसे भारी था।


अतीत की गलियों में…

काशीपुर – उत्तराखंड का छोटा सा कस्बा, जहां कमला और रामनाथ ने अपना पूरा जीवन बिता दिया। वहीं का एक छोटा सा घर, आंगन में नीम का पेड़ और हर शाम की चाय। रामनाथ स्कूल में हिंदी के शिक्षक थे। कमला ने बच्चों की परवरिश में अपना जीवन अर्पित कर दिया था।

अभय बचपन से होनहार था – उसकी मुस्कान ही कमला के सारे दुख भुला देती थी। माधवी, उससे तीन साल छोटी, अपने भाई से बेहद प्यार करती थी।

आर्थिक तंगी के बावजूद उन्होंने कभी बच्चों की जरूरतें अधूरी नहीं रहने दीं।
नए जूते अभय को चाहिए थे, तो रामनाथ ने अपने पुराने जूते साल भर और पहन लिए।
माधवी को नया स्कूल बैग चाहिए था, तो कमला ने अपनी पुरानी साड़ी रंग ली।

एक ही ख्वाहिश थी – उनके बच्चों को कोई कमी ना हो।

अभय ने मेहनत से जयपुर के एक बड़े इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लिया। फीस के लिए ज़मीन का टुकड़ा बेचा गया। पहली नौकरी मिली, तो कमला मंदिर गई – “भगवान, मेरे बेटे को खुश रखना।”

फिर अभय की शादी हुई – प्रिया से। आधुनिक, आत्मनिर्भर और नौकरीपेशा। कमला और रामनाथ को प्रिया पसंद तो थी, पर मन में एक डर था – कहीं उनका अपनापन इस नए रिश्ते में खो न जाए।


वर्तमान में लौटते हैं…

अंततः आधे घंटे की देरी से अभय स्टेशन पहुंचा। नींद से भरी आंखें, चेहरे पर थकान, और व्यवहार में बेरुखी। ना पैरों को छूना, ना गर्मजोशी – बस एक औपचारिक सा रवैया।

टैक्सी में बैठते ही फोन में खो गया।

कमला ने पूछा, “बेटा सब ठीक है ना?”

“हां मां… बस ऑफिस का टेंशन है।”

रामनाथ ने कमला की ओर देखा। आंखों में वही सवाल – क्या हमारा बेटा अब इतना बदल गया है?

जयपुर का उनका आलीशान घर, तीन मंजिला बंगला, खूबसूरत लॉन – कमला और रामनाथ की आंखें पहले तो चमक उठीं… लेकिन जल्दी ही उस चमक की जगह खालीपन ने ले ली।

प्रिया ने मुस्कुराकर उनका स्वागत किया, पैर छुए, चाय दी – मगर वह स्नेह जो कभी हर कोने में होता था, अब कहीं खो गया था।


रिश्तों की खामोशी

अगले दिन माधवी और नन्ही आन्या घर आईं। आन्या ने कमला को गले लगाते हुए कहा,
“नानी, आप आ गए!”

उस मासूम आवाज़ ने कमला को पहली बार मुस्कुराने पर मजबूर किया। उस शाम, डाइनिंग टेबल पर सब साथ बैठे – लेकिन वहां भी सन्नाटा था।

फोन, ऑफिस, काम की व्यस्तता… इन सबके बीच रिश्ते दम तोड़ते जा रहे थे।

“मामा आप इतने चुप क्यों रहते हैं?”
आन्या के इस सवाल ने जैसे सबकी सांसें रोक दीं।

कमला और रामनाथ रात भर जागते रहे। कमला ने कहा,
“रामनाथ जी, क्या हमने गलती की यहां आकर?”

रामनाथ ने जवाब दिया,
“कमला, बेटा हमारा है… शायद थक गया है। हमें धैर्य रखना होगा।”
मगर उनकी आवाज़ में भी एक टूटन थी।


पश्चाताप का बीज

एक दिन, एक डिलीवरी ब्वॉय आया। हाथ में एक डिब्बा – अभय की ओर से।

डिब्बा खोला गया – उसमें थी एक लाल बॉर्डर वाली साड़ी। वही जो कमला हर पूजा में पहनती थी। साथ में एक छोटा सा नोट:
“मां, यह आपके लिए। मुझे माफ कर दीजिए।”

कमला की आंखें भर आईं। उन्होंने साड़ी को सीने से लगाया – वह एहसास जो सालों से गुम था, आज लौट आया।

शाम को अभय लौटा – कमला के पास आया और कहा,
“मां, मैं जानता हूं – एक साड़ी से कुछ नहीं बदलेगा। लेकिन मैं कोशिश करना चाहता हूं… माफ कर दीजिए।”

कमला ने उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहा,
“मां का दिल कभी अपने बच्चे से नाराज़ नहीं होता बेटा… लेकिन तुम्हें खुद से भी बात करनी होगी।”

उस रात अभय रामनाथ के पास गया –
“पापा, मैंने आपको मेहमान समझ लिया था… और आपने तो मेरे लिए पूरी जिंदगी कुर्बान की थी। माफ कर दीजिए।”

रामनाथ की आंखें भीगीं, मगर उनकी आवाज़ में सुकून था –
“अगर तुमने अपनी गलती समझ ली, तो यही हमारी परवरिश की सबसे बड़ी जीत है।”


घर फिर घर बना

अभय, प्रिया, माधवी और आन्या – सब ने अपने-अपने हिस्से की गलतियों को स्वीकार किया।
कमला और रामनाथ के लिए ये सबसे बड़ी जीत थी – उनका परिवार फिर एक हो गया था।

अगले दिन अभय ने सबको आमेर किला घुमाया। रास्ते में वह बचपन की बातें करने लगा – कैसे नीम के पेड़ पर चढ़ता था, कैसे मां डांटती थी, कैसे दीदी उसे बचाती थी।

शाम को डाइनिंग टेबल पर वही खाना था – रोटियां, सब्ज़ी, चावल। मगर इस बार उसमें स्वाद था – प्यार का, अपनापन का।


विदा का पल… लेकिन बिना दूरी के

कुछ दिन बाद कमला और रामनाथ ने वापस काशीपुर लौटने का निर्णय लिया।

अभय ने कहा, “मां, पापा – आप यहीं रहिए, ये घर आपका है।”

रामनाथ बोले, “बेटा, हमारा घर वहां भी है जहां हमने तुम्हें बड़ा किया। मगर अब हम जानते हैं कि तुम्हारा दिल हमारे साथ है।”

ट्रेन चली – प्लेटफार्म पर अभय, प्रिया, माधवी और आन्या खड़े थे।
आन्या ने कहा, “नानी, नाना – जल्दी वापस आना।”

कमला ने कहा, “बेटा, जहां अपनापन है, वहीं हमारा घर है।”


यह सिर्फ एक कहानी नहीं…

यह हर उस परिवार की कहानी है जो वक्त की आपाधापी में अपने रिश्तों को खोने लगता है।

मगर ये कहानी यह भी सिखाती है कि…

प्यार, ममता और रिश्तों की गर्माहट कभी मरती नहीं – बस उन्हें जगाने के लिए एक सच्ची मासूमियत, एक गहरा पश्चाताप और एक छोटी सी नई शुरुआत चाहिए।


अगर यह कहानी आपके दिल को छू गई हो, तो…

👉 उसे अपने माता-पिता, भाई-बहन, या बच्चों के साथ ज़रूर साझा कीजिए।
👉 और सोचिए… कहीं आपने भी किसी अपने से दूरियां तो नहीं बना लीं?

प्यार, माफी और अपनापन – इन्हीं से हर घर फिर से घर बनता है। ❤️