घर में चोरी करने घुसा था चोर, बूढी मालकिन की हालत देखकर खुद अपनी जेब से दे गया 5 हज़ार रूपए

क्या कोई चोर रक्षक बन सकता है? इंसानियत और मजबूरी की सबसे सच्ची परीक्षा

क्या आपने कभी सोचा है कि एक चोर, जो किसी के घर में बेईमानी से घुसता है, उसी घर का रक्षक, बेटा और परिवार का हिस्सा बन सकता है? क्या किसी मजबूर की मजबूरी देख एक अपराधी के भीतर छुपा इंसान जाग सकता है? यह कहानी है सूरज नामक उस शख्स की, जिसे हालात ने चोर बना दिया, लेकिन दिल में दबा इंसानियत का दीपक रात के अंधेरे में जल उठा। और उसी ने उसकी और एक लाचार महिला की ज़िंदगी बदल डाली।

मजबूरी के मोड़: एक बाप की दुहाई

यह दिसंबर की एक हड्डियां कंपा देने वाली रात थी। दिल्ली के अस्पताल के गहरे, ठंडे कॉरिडोर में 7 साल की मासूम परी ऑपरेशन थिएटर के बाहर बेहोश पड़ी थी। उसके दिल में छेद था, और डॉक्टरों ने अल्टीमेटम दे दिया—48 घंटों में पांच लाख का इंतजाम हो सके तो ऑपरेशन होगा, वरना आपकी बच्ची को बचाना मुश्किल है।

सूरज कभी एक छोटी फैक्ट्री में मज़दूर था, लेकिन लॉकडाउन और मंदी के कारण वह फैक्ट्री भी बंद हो गई। महीने दर महीने उसने तमाम कोशिशें कीं—दफ्तरों, दोस्तों, रिश्तेदारों से—लेकिन तंगहाली का दायरा रत्तीभर नहीं सिमटा। हर दरवाजा बंद। जब हर उम्मीद, हर कोशिश बेनतीजा रही, बेटी का चेहरा देख सूरज का दिल खून के आंसू रोता था। उसे लग रहा था जैसे दुनिया खत्म हो गई हो। अंत में, हर इंसान की तरह कमज़ोर पल में, सूरज ने अपना ईमान ताक पर रख दिया। उसने ठान लिया, आज रात चोरी करेगा—अपनी बेटी की सांसों को बचाने के लिए।

चोरी का सफर: रात का अंधेरा और इंसानियत की जल्दी

सूरज ने एक दोस्त से शहर के पौश इलाके की एक हवेली का पता लिया, जहाँ कुछ साल पहले मालिक का देहांत हो चुका था, अब वहां बस बूढ़ी मालकिन शारदा जी अकेली रहती थीं।

ठीक दो बजे, जब दुनिया गहरी नींद में थी, सूरज दीवार फांदकर किरकिरी हवेली में दाखिल हुआ। वह डर से कांप रहा था; ज़मीनी ईमानदारी का बोझ उसके कदमों को भारी कर रहा था। लेकिन मजबूरी और अपने बच्चे का चेहरा उसके हर डर पर भारी था। दबे पांव वह अंदर दाखिल हुआ—कमरे में जुटी एक-एक चीज़ को ध्यान से देखा। सामने ही चारपाई पर एक बूढ़ी औरत गहरी नींद में थी। पास की मेज पर दवाइयां, डॉक्टरी पर्ची और एक पुरानी तस्वीर रखी थी।

उसने पर्ची देखी—शारदा सक्सेना, हृदय रोगी। एक कोने में एक चिट्ठी पड़ी थी, जिस पर दवाओं की लंबी लिस्ट के कई आइटम पर लाल निशान था—शायद वो कभी खरीदी ही न गई हों। पर्स में केवल कुछ सिक्के और एक दस का फटा नोट। संदूक में भी बस कुछ पुराने कपड़े और किताबें मिलीं। सूरज की आंखों में आंसू भर आए। जो चोर बनने आया था, वह देख रहा था कि अमीरी की इस हवेली के बीच भी कितनी गरीबी, तनहाई और असहायता छुपी है।

पलट गई नियति: चोर से फरिश्ता

सूरज के जेब में पांच हजार रुपये पड़े थे, जो उसने बेटी के लिए एक दोस्त से कर्ज में लिये थे। क्षणभर रूका, मगर अगले क्षण उन पैसों को शारदा जी के तकिए के नीचे रख दिया। मन ही मन बोला, “अम्मा, मेरी हैसियत इतनी ही है, माफ करना, स्टील नहीं कर सकता, शर्मा कर सकता हूं।”

वापस दबे पांव बाहर, उसी टूटे शीशे से हवेली छोड़ दी। बाहर निकलते वक्त रोशनी की हल्की किरण आसमान में फैल चुकी थी, पर सूरज के मन में अनोखा उजाला सा था—बेबस चोर से एक इंसान बनने का सुकून!

सुबह का सच और इंसानियत की गवाही

अगली सुबह, शारदा जी की आंख खुले तो तकिए के नीचे नए नोट देखकर पहले तो खुशी और आश्चर्य दोनों हुआ, फिर टूटी खिड़की और गिरा हुआ पुराना पहचान पत्र देखकर एहसास हुआ कि बीती रात “कोई” आया था जो चोरी करने आया था…मगर पैसे देकर गया। उस पहचान पत्र पर सूरज का नाम और उनकी बंद फैक्ट्री का नाम देखकर भूतकाल की स्मृतियां ताजा हो गईं।

जैसे ही वे सोच ही रहीं थीं, मोहल्ले में अफरा-तफरी मच गई। पुलिस आ गयी, पड़ोसी ने टूट-फूट की आवाज की शिकायत की थी। अधिकारी ने पूछा, “अम्मा, कुछ चोरी हुआ?” शारदा जी भीतर से कांपीं, उनकी आंखों के आगे रात के सभी दृश्य घूम गए। अगर सच बोल दूं तो सूरज बर्बाद…झूठ बोलूंगी तो कानून से गद्दारी…तभी किसी पुलिसवाले ने अस्पताल वाली बच्ची की खबर दी—पिता सूरज—सक्सेना इंडस्ट्रीज का पुराना स्टाफ। अनुभूति की ऐसी लहर भीतर उठी कि सब संशय बह गया। शारदा जी ने कह दिया, ‘नहीं, य़ह कोई चोर नहीं, मेरा बेटा है, फर्क इतना है कि सालों बाद मां-बेटे में मुलाकात हुई।’

बेटा, हालात से बड़ा कोई अपराधी नहीं

शाम होते-होते शारदा जी अपने पुराने गहने बेचकर ढाई लाख जुटा लाई। आस-पास से कुछ और लिया, भरे पैसे के साथ अस्पताल पहुंचीं। सूरज अपनी बेटी के सिरहाने बेतहाशा रो रहा था। शारदा जी ने कहा, “आज से मेरी कोई संतान नहीं सिवाय तेरे। पराया समझकर जिस बेटे को निकाल दिया था, वही आज मुझसे मदद मांगने आया।” उन्होंने पैसे दिए—”बाकी का इंतजाम भी मैं करूंगी।”

परी का ऑपरेशन सफल हुआ। शारदा जी ने अपनी सारी पूंजी शांति से गरीब-से-किराए के घर में अपने बेटे-बहु और पोती के संग बसाने में लगा दी। सूरज ने छोटी सी दुकान खोली। अब उनकी छोटी आंखों की दुनिया वो तीनों ही थे।

सीख और संदेश

चोरी और अपराध कई बार परिस्थितियों की मजबूरी होते हैं, असल में दिल बुरा नहीं होता।
सही वक्त पर दया, समझ और ममता किसी डूबती जिंदगी को नया मोड़ दे सकती है।
कानून जरूरी है, पर जब बात इंसानियत और सच्ची मजबूरी की हो, वहां दिल बड़ा रखना चाहिए।
यदि हम किसी के अपराध में उसके हालात और दिल देखें, तो शायद किसी को खोने की बजाय उसे नया जीवन दे पाएं।

अगर सूरज और शारदा जी की यह कहानी आपके दिल में कहीं हलचल पैदा करे, तो उसे पूरे समाज तक फैलाइए। दूसरों को सिखाइए कि हर “अपराधी” के पीछे छुपे हालात भी समझे जाने चाहिए। कमेंट जरूर करें—क्या शारदा जी ने पुलिस के सामने सही किया? और ऐसी और कहानियों के लिए जुड़े रहिए।

धन्यवाद!