घर से निकाली गई गरीब नौकरानी की ज़िंदगी, करोड़पति मंत्री के बेटे ने बदल दी
शालिनी की कहानी: दर्द से उम्मीद तक
दिल्ली के बाहरी इलाके में बसे एक बड़े बंगले के भीतर सुबह की धूप सोने के पर्दों से छनकर संगमरमर के फर्श पर बिखर रही थी। लेकिन वह रोशनी कभी शालिनी तक नहीं पहुंचती थी।
शालिनी, 22 साल की साधारण लड़की, दिन-रात मेहनत करके अपने गांव में बीमार मां का इलाज चलाती थी। उसका दिन सूरज उगने से पहले शुरू हो जाता। बच्चों के लिए यूनिफार्म स्त्री करना, रसोई में नाश्ता बनाना, कपड़े धोना और पूरे बंगले की सफाई करना।
यह घर था विवेक मल्होत्रा का, जो सरकारी सप्लाई का बड़ा व्यापारी था। उसकी पत्नी संगीता मल्होत्रा एक सख्त और अनुशासित महिला थी, बैंक में उच्च पद पर काम करती थी। दिन में ज्यादातर वह दफ्तर में ही रहती और घर के मामलों पर ध्यान कम देती। बच्चों को भी अक्सर शालिनी ही संभालती।
लेकिन समस्या विवेक था। वह अक्सर घर पर ही रहता, दिखावे के लिए ऑनलाइन बिजनेस करने का दावा करता, मगर शालिनी ने देखा था कि उसका समय अधिकतर आराम करने और मोबाइल पर बिताने में जाता है।
शुरू में शालिनी को लगा कि मालिक की नजरें उस पर बस यूं ही ठहर जाती हैं। शायद उसकी मेहनत की कद्र करता हो। लेकिन जल्द ही उसे एहसास हुआ कि यह नजरें सम्मान की नहीं बल्कि भोग की थी।
विवेक कभी रसोई में रोककर कहता, “शालिनी तुम इतनी सुंदर हो। तुम्हें यह नौकरानी का काम क्यों करना चाहिए?”
शालिनी घबराकर जवाब देती, “साहब, मुझे अपनी मां का इलाज कराना है। यही काम है जो मुझे मिला।”
विवेक हल्की मुस्कान के साथ कहता, “तुम्हारे जैसे नाजुक हाथों को तो चूड़ियों में सजना चाहिए, झाड़ू-पोंछा में नहीं।”
ऐसे वाक्यों से शालिनी को असहज कर देता। धीरे-धीरे उसने महसूस किया कि विवेक की नीयत ठीक नहीं है।
शालिनी ने अपनी मां की कही बात याद की, “बेटी, दूसरों के घर में काम करते वक्त आंसू निगलना सीख लेना। दीवारें सुन लें पर जुबान मत खोलना।”
इसीलिए वह हर दर्द और डर अपने भीतर दबा लेती। लेकिन विवेक का पीछा करना, उसकी चालाक नजरें और फुसफुसाते हुए शब्द शालिनी का जीना मुश्किल करने लगे थे।
सबसे दर्दनाक बात यह थी कि जब संगीता घर पर होती तो विवेक का बर्ताव अचानक बदल जाता। वह ऊंची आवाज में कहता, “शालिनी, यह फर्श अभी तक ठीक से साफ क्यों नहीं हुआ?” या “तुम्हारा बनाया खाना तो बेस्वाद है।”
संगीता यह सब देखकर मान लेती कि उसका पति सही कह रहा है। उसे कभी शक ही नहीं हुआ कि असलियत कुछ और है।
एक रात अपने छोटे से कमरे में पंखे की घूमती हुई पंखुड़ियों को देखते हुए शालिनी ने सोचा, “क्या मुझे सब बता देना चाहिए? अगर मैंने कहा तो क्या मालकिन मुझ पर यकीन करेंगी या मुझे ही दोषी ठहराएंगी?”
उसकी आंखों से आंसू चुपचाप तकिए में भीगते रहे। मां की याद और उनके दवा के खर्च का बोझ उसके दिल पर और भारी हो गया।
धीरे-धीरे विवेक का दबाव बढ़ता गया। कभी वह उसे पास आकर कहता, “डरो मत, मैं तुम्हें अच्छा जीवन दूंगा।” और जब शालिनी सख्ती से पीछे हटती तो वह आंखें तरेर कर कहता, “अगर मेरी पत्नी को बताने की कोशिश की तो तुम्हें बदनाम कर दूंगा, तुम्हें सड़कों पर ला खड़ा कर दूंगा।”
यह धमकी शालिनी की नींद छीन लेती। उसने अपने कमरे की खिड़की से रात का अंधेरा देखा और सोचा, “क्या मेरी जिंदगी ऐसे ही बीतेगी? क्या मुझे कभी किसी पर भरोसा करने का हक मिलेगा?”
बाहर गली से आते कुत्तों के भौंकने और ऑटो के हॉर्न की आवाजों के बीच में शालिनी ने चुपचाप अपने आंसू पोछे, लेकिन दिल के भीतर कहीं ना कहीं वह उम्मीद अभी भी जीवित थी कि शायद एक दिन कोई उसकी सच्चाई सुनेगा।
एक दिन संगीता असामान्य रूप से जल्दी घर आ गई। जैसे ही वह ड्राइंग रूम में बैठी, विवेक ने मौका देखकर झूठ का जाल बुनना शुरू कर दिया।
वो संगीता के पास जाकर बोला, “देखो संगीता, मैं बहुत दिनों से एक बात छुपा रहा था, पर अब सहन नहीं हो रहा। यह नौकरानी, शालिनी, यह मुझ पर गलत नजर डालती है। बार-बार बहाने बनाकर मेरे पास आती है।”
संगीता ने चौंक कर कहा, “क्या यह लड़की? मैंने तो हमेशा इसे शांत और सीधी-सादी देखा है।”
विवेक ने बनावटी दुखी चेहरा बनाते हुए कहा, “तुम सोच भी नहीं सकती, मैं तो तुम्हारी इज्जत की खातिर चुप रहा, लेकिन अब यह हद पार करने लगी है।”
इतना सुनते ही शालिनी का दिल जैसे धड़कना बंद कर गया। वो प्लेट में नाश्ता लेकर अभी कमरे में दाखिल ही हुई थी कि विवेक की झूठी बातें उसके कानों में पड़ी।
उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं। “साहब यह झूठ बोल रहे हैं।”
शालिनी ने कांपते हुए आवाज में कहा, “मालकिन, मैं कसम खाती हूं। यही मुझे बार-बार परेशान करते हैं।”
संगीता का चेहरा कठोर हो गया। “चुप रहो,” वो चिल्लाई, “मेरे पति के खिलाफ बोलने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हें?”
शालिनी के गाल आंसुओं से भीग गए। “मालकिन, सच यही है, मैंने सहा है सब कुछ, सिर्फ इसलिए कि आपको चोट ना पहुंचे। कृपया यकीन कीजिए।”
लेकिन संगीता के दिल पर विवेक के झूठ ने पहले ही पर्दा डाल दिया था।
वह बोली, “अगर तू सच बोल रही होती तो अब तक चुप क्यों थी? आज जब मेरे पति ने बताया तभी तेरी जुबान क्यों खुली?”
शालिनी का गला सूख गया। उसके शब्द टूटने लगे, “मैं डर गई थी मालकिन, सोचती थी आप मुझे गलत समझेंगी।”
संगीता ने व्यंग्य से हंसते हुए कहा, “और तू बिल्कुल सही सोच रही थी। कोई तुझ जैसे पराए लोगों पर कैसे भरोसा करें? अपने ही खून पर भरोसा ना करूं और एक नौकरानी पर कर लूं।”
फिर उसने गार्ड्स को बुलाकर हुक्म दिया, “इसे घर से बाहर निकालो अभी के अभी।”
गार्ड्स ने शालिनी का छोटा सा बैग उठाया और उसे घसीटते हुए गेट तक ले गए। विवेक दूर खड़ा अपनी जीत भरी मुस्कान दबा रहा था।
संगीता ने मुड़कर कहा, “अपनी बदनामी लेकर निकल जा यहां से और कभी लौट कर मत आना।”
शालिनी गिड़गिड़ाई, “मालकिन, मेरी मां बीमार है। मुझे कहीं ठिकाना नहीं। कृपया करके…”
लेकिन उसकी पुकार पत्थर की दीवारों से टकरा कर लौट आई। भारी गेट उसके पीछे धड़ाम से बंद हो गया।
गली के पीले लैंप पोस्ट के नीचे शालिनी अपने छोटे से बैग के साथ खड़ी रह गई। पैर नंगे, आंखें आंसुओं से भरी और दिल टूटा हुआ।
उसने आकाश की ओर देखा और फुसफुसाई, “हे भगवान, मैंने किसका बुरा किया था? मुझे ही यह सब सहना पड़ रहा है।”
चारों तरफ अंधेरा था। राह चलते लोग उसे देखे बिना निकल गए। कोई उसके रोने की परवाह नहीं करता।
धीरे-धीरे उसने अपना बैग उठाया और कांपते पैरों से आगे बढ़ी। दिल्ली की वही सड़कें, जहां लाखों सपने रोज जन्म लेते और टूटते हैं, अब शालिनी के लिए बेघरपन और अपमान का मैदान बन चुकी थी।
दिल्ली की रात शोर और धुएं से भरी हुई थी। गाड़ियों के हॉर्न, रिक्शों की खटरपटर और चाय वालों की आवाजें सब मिलकर जैसे शालिनी की तकलीफ का मजाक उड़ा रही थीं।
घर से निकाले जाने के बाद उसके पास कोई ठिकाना नहीं बचा था। जेब में कुछ सिक्के थे, लेकिन इतने नहीं कि वह रात गुजारने के लिए कोई जगह ढूंढ पाती।
थकी हुई वह पैदल चलती रही। रास्ते में एक टूटी-फूटी दुकान का आधा गिरा हुआ शटर दिखा। अंदर अंधेरा था, गंध भी थी मगर वहां छत थी।
शालिनी ने हिम्मत करके वहीं बैठने का फैसला किया। बैग को तकिया बनाकर उसने आंखें बंद की और फूट-फूट कर रोने लगी।
“मां, मैं क्या करूं, कहां जाऊं?” वो बुदबुदाई। नींद बार-बार आती और किसी आवाज से टूट जाती। कभी कुत्तों के भौंकने से, कभी राहगीरों के शोर से।
सुबह हुई तो बदन थका हुआ और आंखें सूजी हुई थीं। कपड़े झाड़कर वह सड़क पर चल पड़ी। दिल्ली की भीड़भाड़ शुरू हो चुकी थी। दफ्तर जाने वाले लोग, स्कूल की बसें, रिक्शे वाले, हर कोई अपनी-अपनी दुनिया में लगा था।
शालिनी भूखी और बेहद थकी हुई थी। उसका सिर भारी हो रहा था। आंखों के सामने धुंध छाने लगी। उसी हालत में उसने सड़क पार करने की कोशिश की।
अचानक तेज ब्रेक की आवाज गूंजी। एक काली एसयूवी बिल्कुल उसके सामने रुक गई।
गाड़ी से एक युवक गुस्से में बाहर निकला और बोला, “अरे ध्यान नहीं है क्या? जान गंवानी है क्या तुम्हें?”
शालिनी वहीं खड़ी रह गई। होठ कांप रहे थे, पर आवाज नहीं निकली। आंसू अपने आप गालों पर बह निकले।
युवक ने गौर से देखा। लड़की की हालत देखकर उसका गुस्सा धीरे-धीरे कम हो गया।
धूल-धूसरित कपड़े, हाथ में पुराना बैग, चेहरा थका हुआ और आंखों में गहरी उदासी।
उसने नरमी से पूछा, “तुम ठीक हो? क्या हुआ तुम्हें?”
शालिनी ने धीमी आवाज में कहा, “नहीं, मैं ठीक नहीं हूं।”
युवक का नाम आदित्य शुक्ला था। वो किसी साधारण परिवार से नहीं बल्कि प्रदेश के गृह मंत्री का बेटा था।
साफ-सुथरे कपड़े, महंगी घड़ी और आत्मविश्वास से भरा चेहरा।
वो शालिनी की दुनिया से बिल्कुल अलग दिखता था। लेकिन उसकी आंखों में सच्ची चिंता थी।
“चलो पास में एक ढाबा है। बैठो पानी पी लो। भूखी भी लग रही हो।”
शालिनी पीछे हट गई। “नहीं, मैं किसी पर भरोसा नहीं कर सकती।”
आदित्य ने शांत स्वर में कहा, “मैं तुम्हें मजबूर नहीं करूंगा। देखो यह मेरी पहचान है।”
उसने अपना पहचान पत्र सामने रख दिया। “मैं बस तुम्हें पानी और खाना देना चाहता हूं। उसके बाद जाना चाहो तो चली जाना।”
भूख और थकान से टूटी हुई शालिनी ने उसकी आंखों में झांका। वहां कोई चालाकी नहीं थी, सिर्फ चिंता।
उसने धीरे से सिर हिलाया और उसके साथ चल दी।
ढाबे पर पहुंचकर आदित्य ने पानी और चाय मंगवाई।
“तुम्हारा नाम?” उसने पूछा।
“शालिनी,” उसने धीरे से जवाब दिया।
आदित्य मुस्कुराया, “अच्छा नाम है, पर चेहरा तो लगता है बहुत रो चुका है।”
इतना सुनते ही शालिनी की आंखें भर आईं। उसने कांपते हुए हाथों से पानी पिया और फिर अपनी पूरी कहानी सुना दी।
कैसे मालिक ने परेशान किया, मालकिन ने यकीन नहीं किया और कैसे उसे घर से निकाल दिया गया।
आदित्य चुपचाप सुनता रहा। फिर उसने दृढ़ स्वर में कहा, “शालिनी, तुम्हें लगता है कि सब खत्म हो गया। पर सच कहूं तो तुम्हारी नई शुरुआत अभी बाकी है। आज से तुम्हें अकेले नहीं रहना पड़ेगा।”
शालिनी की आंखों से आंसू बह निकले। उसने धीमी आवाज में पूछा, “क्या सचमुच मेरी जिंदगी बदल सकती है?”
आदित्य ने गंभीर स्वर में कहा, “हां, और याद रखो, तुम्हारा सच तुम्हारी सबसे बड़ी ताकत है।”
उस छोटे से ढाबे की मेज पर पहली बार शालिनी ने राहत की सांस ली। टूटी हुई उम्मीद में अब एक नई कली फूट चुकी थी।
ढाबे की उस मेज पर बैठकर जब शालिनी ने अपनी पूरी कहानी सुनाई तो उसके दिल का बोझ कुछ हल्का हुआ।
आदित्य अब भी उसी शांत भाव से उसे देख रहा था। उसके चेहरे पर कोई बनावटी सहानुभूति नहीं थी, बल्कि एक सच्ची संवेदना थी।
कुछ देर खामोशी छाई रही। फिर आदित्य ने धीरे से कहा, “शालिनी, जिंदगी तुम्हें तोड़ने पर तुली है। पर यकीन मानो, ईश्वर हमेशा सबसे अंधेरे पल के बाद ही नई रोशनी भेजता है। तुम में हिम्मत है, बस तुम्हें एक मौका चाहिए।”
शालिनी ने संकोच से पूछा, “लेकिन मैं कहां जाऊं? मेरे पास घर नहीं, पैसे नहीं और किसी पर भरोसा करने की ताकत भी नहीं।”
आदित्य ने ठहर कर कहा, “तो फिलहाल मुझ पर भरोसा करो। मैं तुम्हें सुरक्षित जगह ले चलता हूं। तुम वहां आराम करोगी। आगे का फैसला तुम्हारे हाथ में होगा।”
शालिनी हिचकिचाई। उसके मन में विवेक की गंदी यादें ताजा हो गईं। लेकिन फिर उसने देखा कि आदित्य ने गाड़ी का पिछला दरवाजा खोला और कहा, “सामने मत बैठो, पीछे बैठो। तुम्हें जितना समय लगे सोच लो।”
यह छोटा सा इशारा उसके मन में थोड़ी सी राहत लेकर आया।
गाड़ी दिल्ली की भीड़ से निकलकर एक शांत कॉलोनी की ओर बढ़ी। रास्ते भर शालिनी खामोश रही।
बाहर पेड़ों की कतारें, चौड़ी सड़कें और बड़े-बड़े मकान सब उसे सपने जैसे लग रहे थे।
आखिरकार गाड़ी एक सफेद रंग के बड़े बंगले के सामने रुकी। गेट पर सुरक्षा गार्ड ने आदित्य को सलाम किया और तुरंत गेट खोल दिया।
“आओ, यही है मेरा घर,” आदित्य ने कहा।
शालिनी चौंक गई। इतने बड़े घर में कदम रखना उसके लिए अनजान डर जैसा था। उसने बैग कसकर पकड़ लिया।
अंदर से एक मध्यम उम्र की औरत बाहर आई। उनका चेहरा शांत और आंखें मां जैसी ममता से भरी थी।
“आदित्य बाबू, यह कौन?” उन्होंने पूछा।
“काकी,” आदित्य ने मुस्कुराकर कहा, “यह शालिनी है। आज से हमारे साथ रहेगी। आप इसे कमरे में ले जाइए, इसे आराम की जरूरत है।”
काकी ने स्नेह से कहा, “आओ बेटी, डरो मत। यहां तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।”
शालिनी को ऊपर एक साफ-सुथरे कमरे में ले जाया गया। कमरे में ताजे फूलों की महक थी और खिड़की से रोशनी छन कर आ रही थी।
बिस्तर पर रखे सफेद चादर को देखकर ही उसका मन कांप उठा क्योंकि उसने कभी इतना सुकून भरा कमरा नहीं देखा था।
काकी ने कहा, “पहले नहा लो, फिर खाना तैयार है। तुम थकी हुई लग रही हो।”
शालिनी ने हिम्मत करके आईने में खुद को देखा। चेहरे पर धूल, आंखों के नीचे काले घेरे और बाल अस्त-व्यस्त। उसे अपनी हालत पर शर्म आई।
लेकिन जब उसने गर्म पानी से नहाकर कपड़े बदले तो जैसे एक नई जान मिल गई।
नीचे उतर कर उसने साधारण सा खाना खाया। चावल, दाल और सब्जी पर वो भोजन उसे राजमहल की दावत जैसा लगा।
रात को जब वो बिस्तर पर लेटी तो आंसू फिर बह निकले। मगर इस बार यह आंसू दर्द के नहीं बल्कि राहत के थे।
क्या सचमुच भगवान ने मेरी पुकार सुन ली? उसने सोचा। छत की ओर देखते हुए उसने धीरे से कहा, “धन्यवाद! मुझे अब भी जीने की वजह देने के लिए।”
दूसरे दिन सुबह आदित्य ने उसे बुलाया। वह अध्ययन कक्ष में बैठकर कुछ कागजात देख रहा था।
“आओ शालिनी, बैठो,” उसने कहा।
शालिनी झिझकते हुए बैठ गई।
आदित्य ने गंभीर स्वर में कहा, “मैंने तुम्हारी बातें सुनी और सोची। तुमने बताया था कि तुम्हें खाना बनाना बहुत पसंद है। क्या तुम सचमुच इसे अपने जीवन का हिस्सा बनाना चाहती हो?”
शालिनी ने संकोच से सिर हिलाया, “हां, यह मेरा सपना है। पर मेरे पास ना पैसे हैं ना साधन।”
आदित्य ने मुस्कुराकर एक फाइल उसकी ओर बढ़ाई, “यह देखो, यह एक छोटे रेस्टोरेंट की रजिस्ट्री है और बैंक खाते में कुछ पूंजी भी जमा कर दी गई है। यह सब अब तुम्हारे नाम है।”
शालिनी की आंखें फैल गईं। उसके होठ कांपे, “पर यह सब मेरे लिए? मैंने तो आपसे कुछ मांगा भी नहीं।”
आदित्य ने दृढ़ स्वर में कहा, “सपने तभी पूरे होते हैं जब कोई उन पर विश्वास करे। आज से मैं तुम्हारे सपनों पर विश्वास करता हूं।”
उस पल शालिनी के जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। दर्द और अन्याय की अंधेरी गलियों से निकलकर वो अब रोशनी की ओर बढ़ रही थी।
कुछ ही हफ्तों बाद दिल्ली की एक व्यस्त बाजार गली में एक नया बोर्ड टांगा गया—”शालिनी’स किचन, घर जैसा स्वाद”।
छोटा सा रेस्टोरेंट, साफ-सुथरी मेजें और दीवारों पर हल्के रंग, अंदर से ताजा मसालों और खाने की खुशबू उठ रही थी।
रसोई में खड़ी शालिनी का चेहरा अब वही थकी और टूटी हुई लड़की का चेहरा नहीं था। उसके माथे पर आत्मविश्वास की चमक थी।
उसने एप्रन बांध रखा था और अपने दो नए सहकर्मियों को हिदायत दे रही थी, “दाल में नमक जरा कम डालना और यह पराठे गरमागरम निकलने चाहिए।”
यह सहकर्मी भी वही लड़कियां थीं जिन्हें अमीर घरों से किसी ना किसी कारण से निकाल दिया गया था।
शालिनी ने तय किया था कि वह सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि और भी कई बेघर लड़कियों को सहारा देगी।
रेस्टोरेंट का उद्घाटन दिन था। ग्राहक धीरे-धीरे आने लगे। कोई साधारण मजदूर, कोई दफ्तर जाने वाला कर्मचारी और कुछ कॉलेज के छात्र—सबको खाना पसंद आया।
एक बुजुर्ग ग्राहक ने खाते-खाते कहा, “बेटी, तुम्हारे हाथों में तो सचमुच मां का स्वाद है।”
यह सुनते ही शालिनी की आंखें भर आईं। उसने मन ही मन मां को याद किया।
उस रात जब रेस्टोरेंट बंद हुआ, शालिनी अकेले बैठकर खिड़की से बाहर देख रही थी। आसमान में तारे चमक रहे थे।
उसने धीरे से अपने गले में पहनी छोटी सी चांदी की चैन को छुआ। वह चैन आदित्य ने उसे दी थी जिस पर एक छोटा सा कबूतर बना हुआ था।
उसने आंखें बंद कर फुसफुसाया, “आपने मुझे पंख दिए आदित्य जी। अब मैं सिर्फ उड़ना जानती हूं।”
कुछ दिन बाद अखबार में खबर आई—गृह मंत्री का बेटा आदित्य शुक्ला युवा उद्यमियों को प्रेरित करने वाले सम्मेलन में शामिल।
फोटो में आदित्य मंच पर भाषण दे रहा था। शालिनी ने अखबार को सीने से लगा लिया। “आपने मेरा नाम रोशन किया बिना किसी शोरशराबे के। अब मेरी बारी है कि मैं औरों की जिंदगी बदलूं।”
एक शाम जब रेस्टोरेंट में काम खत्म हुआ, बाहर एक नन्ही लड़की अपने हाथ में फलों की टोकरी लिए खड़ी थी। चेहरा उदास, आंखें झुकी हुई।
शालिनी बाहर आई और धीरे से बोली, “बेटी, भूख लगी है?”
लड़की ने चौंक कर उसकी ओर देखा और सिर हिलाया, “हां दीदी।”
शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा, “अंदर आओ। यहां तुम सुरक्षित हो। खाना खाओ और आराम करो।”
लड़की की आंखें चमक उठीं। रेस्टोरेंट का दरवाजा बंद होते ही बाहर का शोर पीछे रह गया।
अंदर एक टूटी हुई बच्ची को नया सहारा मिल रहा था और शालिनी जानती थी यही उसका असली मकसद है।
अब वह नौकरानी नहीं थी। अब वह किसी और की दया पर जिंदा रहने वाली बेबस लड़की नहीं थी।
अब वह एक मालिक थी, एक सहारा देने वाली बहन थी और सबसे बढ़कर एक नई पहचान थी।
दोस्तों, शालिनी की कहानी हमें यही सिखाती है कि दर्द चाहे जितना भी गहरा क्यों ना हो, अगर इंसान उम्मीद थामे रखे तो एक दिन वही दर्द उसकी ताकत बन जाता है।
जिंदगी ने शालिनी को बार-बार तोड़ा, धोखा दिया। मगर भगवान ने उसे आदित्य जैसे इंसान से मिलवाया जिसने सिखाया कि असली मदद वही होती है जो बिना किसी शर्त के की जाए।
आपको यह कहानी कैसी लगी? अपनी राय हमें कमेंट में जरूर बताइए। अगर कहानी दिल को छू गई हो, तो इसे शेयर करें और अपने दोस्तों के साथ बांटें।
ऐसी ही और भावुक और प्रेरणादायक कहानियां सुनने के लिए हमारे चैनल पहली दफा स्टोरीज को सब्सक्राइब करना ना भूलें।
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