चार बेटों ने देखरेख नहीं की | तो माता-पिता ने ठेले वाले को बेटा बनाया और दे दी सारी

“ममता का असली वारिस – रमेश, अनीता और अजय की कहानी”
भाग 1: अकेलेपन की छांव
लखनऊ की एक गली में, रमेश और अनीता – बुजुर्ग पति-पत्नी – एक पुराने मकान में रहते थे। रमेश रिटायर्ड सरकारी टीचर थे। उनके पास पुश्तैनी जमीन थी, अच्छा मकान था, लेकिन बच्चों का साथ नहीं। उनके चार बेटे विदेशों में बस गए थे। महीनों तक फोन नहीं आता, न कोई हालचाल पूछता। अनीता अकसर अपनी कोख को कोसती, “कैसे बच्चे पैदा किए, जो बुढ़ापे में हमारी कदर नहीं करते?”
दोनों एक-दूसरे का सहारा बनकर जी रहे थे। कभी-कभी रमेश अपने बच्चों को फोन करता, “बेटा, अब हम बूढ़े हो चले हैं, बुला लो अपने पास।” लेकिन बेटे एक-दूसरे पर टाल देते – “माँ, भैया को बोलो… हमारे पास जगह नहीं है, हम खुद मुश्किल में हैं।”
भाग 2: बीमारी और मजबूरी
एक दिन अनीता की तबीयत बिगड़ गई। डॉक्टर ने फलों की डाइट दी। रमेश ने पत्नी को सहारा देकर फल मार्केट ले जाने का फैसला किया। दोनों पैदल-पैदल एक रेड़ी पर पहुँचे, जहाँ अजय नाम का युवा फलवाला बैठा था। रमेश ने कहा, “भैया, हमें फल दे दो।” अजय ने पूछा, “अंकल-आंटी, आपके बच्चे नहीं हैं जो इस उम्र में आपको खुद आना पड़ता है?” यह सुनते ही दोनों की आंखों से आंसू बह निकले।
अजय ने माफी मांगी, “मुझे नहीं पता था, आपकी आंखों में आंसू नहीं देख सकता।” रमेश और अनीता ने बताया, “चार बच्चे हैं, लेकिन कोई देखरेख नहीं करता।” अजय की भी आंखें भर आईं। उसने कहा, “अंकल-आंटी, मैं अनाथ हूं। बचपन से माता-पिता का प्यार नहीं मिला। मेरी पत्नी भी अनाथ है। हम चाहते हैं कि आप हमारे माता-पिता बन जाएं। क्या आप हमारे साथ चलेंगे?”
भाग 3: नया रिश्ता, नई उम्मीद
रमेश और अनीता थोड़ी देर सोचते हैं, फिर मान जाते हैं। अजय उन्हें अपने छोटे किराए के घर ले जाता है। उसकी पत्नी रीता खुशी से उनके पैर छूती है, “अब हमें माता-पिता मिल गए!” दोनों बुजुर्गों का स्वागत होता है, चाय-पानी मिलता है, ढेर सारी बातें होती हैं।
रमेश कहता है, “हम घर से अपना सामान ले आएंगे, फिर यहीं रहेंगे।” अजय साथ चलने को तैयार होता है, लेकिन रमेश इंकार करता है – “देखना चाहता हूं, ये लोग दिल से हमारी सेवा करते हैं या किसी लालच से।”
भाग 4: असली परीक्षा
रमेश और अनीता अपना छोटा-मोटा सामान पैक करके अजय-रीता के घर आ जाते हैं। धीरे-धीरे दो महीने बीत जाते हैं। अजय और रीता पूरी श्रद्धा से उनकी सेवा करते हैं। अनीता की तबीयत भी सुधर जाती है। रमेश अपने मन में फैसला करता है – “अब अपनी सारी प्रॉपर्टी अजय के नाम कर दूंगा, क्योंकि असली ममता का वारिस वही है।”
एक सुबह रमेश अजय से कहता है, “बेटा, अब रेडी लगाने की जरूरत नहीं। मैं अपनी सारी जमीन तुम्हारे नाम करना चाहता हूं।” अजय मना करता है, “मुझे सिर्फ आपका प्यार चाहिए, प्रॉपर्टी नहीं।” लेकिन रमेश ज़िद करता है – “बच्चों ने हमारा साथ नहीं दिया, अब हक तुम्हारा है।”
भाग 5: विरासत का सच
रमेश गांव जाकर कागज़ बनवाता है। खबर बेटों तक पहुंच जाती है। बेटे फोन करके विरोध करते हैं, “पिताजी, ऐसा मत करिए, हमारा अधिकार है।” रमेश जवाब देता है, “अधिकार तब तक था, जब तक तुमने जिम्मेदारी निभाई। अब कोई हक नहीं।” बेटे चुप रह जाते हैं। रमेश प्रॉपर्टी अजय के नाम कर देता है।
अजय अब अच्छी दुकान खोलता है, परिवार खुशी से रहने लगता है। रमेश- अनीता को असली संतान का सुख मिलता है।
भाग 6: पछतावा और माफ़ी
कुछ समय बाद चारों बेटे अपने परिवार के साथ लौटते हैं। माता-पिता से माफी मांगते हैं, “हमें गलती का एहसास हो गया है। हम प्रॉपर्टी के लिए नहीं आए, सिर्फ माफ़ी मांगने आए हैं।” अजय कहता है, “माँ-बाबूजी, आपने इन्हें माफ कर दिया है, तो प्रॉपर्टी इनके नाम करा दो। मुझे सिर्फ आपका प्यार चाहिए।” लेकिन बेटे कहते हैं, “नहीं भाई, अब ये प्रॉपर्टी तुम्हारा हक है। तुमने माता-पिता की सेवा की है।”
अब रमेश, अनीता, अजय और रीता – सभी खुश हैं। असली ममता का वारिस वही है, जिसने बिना स्वार्थ सेवा की।
सीख
माता-पिता का प्यार और सेवा धन-दौलत से बढ़कर है। असली वारिस वही है, जो दिल से साथ निभाए।
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