जज बेटे ने माँ को नौकरानी कहकर निकाला… अगले दिन माँ बनी चीफ जस्टिस!

“मां का सम्मान – अहंकार की अदालत में इंसानियत की जीत”
भाग 1: रौनक और संघर्ष
लखनऊ की पॉश सरकारी कॉलोनी में आज शाम एक अलग ही रौनक थी। नए-नवेले सिविल जज रोहन मेहरा के बंगले पर बत्तियाँ जगमगा रही थीं। शहर के नामी वकील, सीनियर जज और बड़े अधिकारी पार्टी में शिरकत कर रहे थे। रोहन बंद गले के महंगे सूट में, हाथ में क्रिस्टल का गिलास लिए, सबसे हंस-हंसकर बातें कर रहा था। उसकी मंगेतर प्रिया, मशहूर वकील की बेटी, उसके साथ हर कदम पर थी। माहौल में महंगी शराब और इत्र की खुशबू घुली थी। सबकुछ उत्तम था, सबकुछ रोहन के नए रुतबे के मुताबिक था।
पर उसी बंगले के एक कोने में, रसोई के पास, एक औरत चुपचाप खड़ी थी – रोहन की मां शांति। साधारण सूती साड़ी, पल्लू पर हल्दी का दाग, आंखों में खुशी के आंसू। आज उसका बेटा, उसका राजा बेटा, जज बन गया था। उसके 30 साल के संघर्ष की जीत थी यह। उसे वो दिन याद आ गए जब रोहन के पिता, एक छोटे क्लर्क, गुज़र गए थे। रोहन तब सिर्फ 10 साल का था। शांति ने सिलाई, टिफिन सर्विस, खाना बनाना – हर छोटा-बड़ा काम किया, लेकिन बेटे की पढ़ाई में कोई कमी नहीं आने दी। खुद भूखी सो जाती, पर रोहन को कभी एहसास नहीं होने दिया कि वह गरीब है।
रोहन पढ़ता गया, आगे बढ़ता गया, दिल्ली जाकर कानून की पढ़ाई की, पहले ही प्रयास में न्यायिक सेवा की परीक्षा पास कर ली। आज वह जज था और शांति आज भी वही पुरानी मां थी।
भाग 2: मां का अपमान
पार्टी में मेहमानों के गिलास खाली हो रहे थे। शांति ने सोचा, बेटा इतनी बड़ी पार्टी दे रहा है, मैं भी मदद कर दूं। वह रसोई में गई, खुद पनीर के पकोड़े तलकर ट्रे में सजा लिए। कांपते कदमों से, पर गर्व से भरी, ड्राइंग रूम में आई।
“बेटा रोहन,” उसने धीमी आवाज में कहा।
रोहन, जो जज शर्मा से बात कर रहा था, मां को इस हाल में देखकर ठिठक गया। प्रिया ने उसे कोहनी मारी, जैसे कह रही हो – “यह यहां क्या कर रही हैं?”
जज शर्मा की पत्नी, बेहद अमीर महिला, ने प्रिया से पूछा, “प्रिया, यह कौन है? तुम्हारी होने वाली सास है क्या?”
प्रिया का चेहरा शर्म से लाल हो गया। इससे पहले कि वो कुछ कहती, रोहन ने स्थिति संभालते हुए ठहाका लगाया, “अरे आंटी, आप भी क्या! यह तो शांति अम्मा है। हमारे घर की पुरानी नौकरानी। मेरे पिता के वक्त से हैं। तो हम इन्हें मां जैसा ही मानते हैं। क्यों अम्मा? आप जाइए, आराम कीजिए, यहां वेटर हैं ना।”
नौकरानी – यह शब्द शांति के कानों में पिघले शीशे की तरह उतरा। उसके हाथ कांप गए। जिस बेटे को जज साहब बनते देख रही थी, उसने आज भरी महफिल में उसे नौकरानी बना दिया था। उसकी आंखें भर आईं। वह सिर झुकाकर वापस रसोई की तरफ मुड़ गई। पार्टी देर रात तक चलती रही। शांति अपने छोटे से सर्वेंट क्वार्टर में बैठी रोती रही। उसे अपनी कोख पर, अपनी परवरिश पर घिन आ रही थी। क्या इसी दिन के लिए यह सब किया था?
भाग 3: वृद्धाश्रम की ओर
सुबह हुई। रोहन कल रात के नशे से जागा। उसे हल्की शर्मिंदगी थी, पर उससे ज्यादा अपने रुतबे की फिक्र थी। प्रिया का फोन आया – “रोहन, मैं यह सब बर्दाश्त नहीं करूंगी। तुम्हारी मां हमारे स्टैंडर्ड के साथ मेल नहीं खाती। जब मैं बंगले में आऊंगी, तो मुझे यह सब ड्रामा नहीं चाहिए। उन्हें कहीं और शिफ्ट कर दो।”
रोहन को प्रिया की बात सही लगी। उसे भी लगता था कि उसकी अनपढ़ गंवार मां उसके जज वाले रुतबे पर धब्बा है। उसने फैसला कर लिया। मां के क्वार्टर में गया। शांति रात भर सोई नहीं थी।
“मां, तैयार हो जाओ। मैं तुम्हें बहुत अच्छी जगह घुमाने ले जा रहा हूं।”
शांति ने बिना कोई सवाल किए अपनी छोटी सी पोटली बांधी। वो जानती थी, अब इस घर में उसकी जगह नहीं है।
रोहन उसे शहर के बाहर एक बड़ी सी इमारत के सामने ले गया। बाहर बोर्ड लगा था – “स्वर्ग धाम वृद्धाश्रम”।
“यह कहां ले आए बेटा?”
“मां, यह तुम्हारे लिए सबसे अच्छी जगह है। यहां तुम्हारी उम्र के लोग हैं, मन लगा रहेगा। मेरे पास जज के काम से फुर्सत नहीं होती। प्रिया भी आ जाएगी। तुम यहां खुश रहोगी। मैं हर महीने पैसे भिजवा दिया करूंगा।”
शांति ने अपने बेटे का चेहरा देखा – यह वो रोहन नहीं था जिसे उसने पाला था। यह कोई अजनबी था।
“तुमने मुझे नौकरानी कहा था ना? तो मालिक अपनी पुरानी नौकरानी को वृद्धाश्रम में ही छोड़ता है। है ना जज साहब?”
रोहन तिलमिला गया। “मां, तुम बात नहीं समझ रही हो। यह मेरे रुतबे का सवाल है। एक जज की मां ऐसे गंदे कपड़ों में नहीं रह सकती।”
शांति ने वाक्य पूरा किया। वह गाड़ी से उतरी, पोटली उठाई। “जाओ बेटा, तुम अपना रुतबा संभालो। मैं अपनी बची हुई जिंदगी संभाल लूंगी।”
रोहन ने मैनेजर से सारे कागज साइन किए, एडवांस में एक साल की फीस जमा की। एक बार भी पलटकर मां को नहीं देखा। गाड़ी में बैठा और तेजी से चला गया। शांति उस आलीशान वृद्धाश्रम के लोहे के गेट के अंदर खड़ी अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी हार को देख रही थी। उसने अपने आंसुओं को पी लिया। “हे भगवान, मैंने ऐसा क्या पाप किया था जिसकी सजा तू मेरे बेटे के हाथों दिलवा रहा है?”
भाग 4: किस्मत का खेल
अगली सुबह रोहन मेहरा जब सोकर उठा, घर में कोई पूजा-पाठ का शोर नहीं था, कोई डांटने वाला नहीं था। बंगले में खामोशी थी, जिसे रोहन ने आज़ादी का नाम दिया। प्रिया को फोन किया – “डार्लिंग, रास्ता साफ हो गया है। मां को फाइव स्टार ओल्ड एज होम में शिफ्ट कर दिया है।”
प्रिया खुश हो गई – “तुमने बहुत अच्छा किया रोहन। आज शाम को घर देखने आऊंगी।”
रोहन हाई कोर्ट के ओरिएंटेशन प्रोग्राम में गया। कोर्ट रूम नंबर एक में, सबसे आगे बैठा। वकीलों के बीच फुसफुसाहट – “आज नई चीफ जस्टिस साहिबा चार्ज ले रही हैं। जस्टिस शांति वर्मा दिल्ली से ट्रांसफर होकर आई हैं। बहुत सख्त हैं।”
रोहन ने नाम सुना – शांति वर्मा। उसे लगा, कितना आम नाम है। उसने ध्यान नहीं दिया।
कोर्ट मास्टर ने घोषणा की – “सावधान! योर लॉर्डशिप्स!”
तीन जज अंदर आए। बीच में मुख्य कुर्सी की ओर बढ़ती एक महिला। रोहन ने नजर उठाई – सामने वही औरत थी, जिसे वह कल वृद्धाश्रम में छोड़ आया था।
भाग 5: मां की असली पहचान
वह शांति थी, मगर अब सूती साड़ी में नहीं, सफेद जजों के लिबास में थी। चेहरे पर ममता नहीं, सिर्फ एक चीफ जस्टिस का तेज।
रोहन को लगा, बेहोश होकर गिर पड़ेगा। उसकी मां – चीफ जस्टिस?!
रजिस्ट्रार ने घोषणा की – “माननीय इलाहाबाद हाईकोर्ट लखनऊ बेंच की नई मुख्य न्यायाधीश जस्टिस शांति वर्मा का स्वागत करें।”
रोहन को यकीन नहीं हुआ। उसने खुद को दिलासा देने की कोशिश की – “यह कोई हमशक्ल है।”
पर उसका दिल जानता था, यही वही आंखें हैं जिन्होंने उसे रात-रात भर जागकर पढ़ाया था। यही वही चेहरा था जिसे उसने कल शर्मिंदगी के साथ वृद्धाश्रम में छोड़ा था।
कोर्ट की कार्यवाही शुरू हुई। नए जजों का परिचय कराया गया।
“मिस्टर रोहन मेहरा।”
रोहन कांपते हुए खड़ा हुआ। चीफ जस्टिस शांति वर्मा ने उसकी आंखों में देखा – कोई भाव नहीं, सिर्फ एक जज की ठंडी बेबाक नजर।
रोहन उस नजर का सामना नहीं कर पाया। उसने अपनी आंखें झुका ली।
भाग 6: रिश्तों की अदालत
कोर्ट की कार्यवाही खत्म हुई। प्रिया रोहन के पास आई – “मुझे यकीन नहीं हो रहा। तुमने अपनी मां के साथ जो खुद चीफ जस्टिस है, उन्हें नौकरानी कहा और वृद्धाश्रम छोड़ आए। तुम कितने घिनौने इंसान हो।”
प्रिया ने सगाई की अंगूठी उतारी, रोहन के चेहरे पर फेंक दी – “यह रिश्ता खत्म। मैं तुम जैसे इंसान के साथ अपनी जिंदगी नहीं बिता सकती।”
रोहन टूटकर कुर्सी पर गिर पड़ा। एक ही पल में उसका घमंड, रुतबा, प्यार सब खाक में मिल गया।
तभी चीफ जस्टिस का अर्दली आया – “जज रोहन मेहरा, आपको चीफ जस्टिस साहिबा ने अपने चेंबर में बुलाया है।”
रोहन के पैर जैसे मनोवजन से बंधे थे। वह उस लंबे गलियारे से गुजरा, दरवाजा खटखटाया। अंदर से आवाज आई – “आ जाइए।”
चेंबर किसी महल जैसा था। विशाल मेज के पीछे वही औरत – शांति वर्मा।
“बैठिए, जज मेहरा।”
रोहन बैठा नहीं, दौड़कर उनके पैर पकड़ लिए।
“मां, मुझे माफ कर दो। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई।”
शांति ने अपने पैर नहीं खींचे। वह बस चुपचाप बेटे को रोता हुआ देखती रही। कई मिनटों तक कमरे में सिर्फ रोहन की सिसकियों की आवाज गूंजती रही।
फिर शांति ने कहा – “उठो रोहन।”
अब आवाज में सख्ती नहीं थी, एक मां की थकी हुई आवाज थी।
“तुमने मुझसे माफी मांगी, पर गुनाह किसके साथ किया? मेरे साथ या खुद के साथ? मैंने तुम्हारी गंदी नैपी साफ की, तुम्हें जज की कुर्सी तक पहुंचाने के लिए 30 साल जला दिए। मैंने सिलाई की, खाना पकाया, ताकि मेरा बेटा बड़ा आदमी बने, अच्छा इंसान बने। पर मैं गलत थी। तुम्हें बड़ा आदमी तो बना पाई, पर अच्छा इंसान नहीं बना सकी।”
“जिस मां को दुनिया दिखाई, उसी मां को दुनिया के सामने नौकरानी कहते हुए शर्म नहीं आई।”
रोहन फिर रोने लगा।
“चुप रहो,” शांति की आवाज फिर सख्त हो गई।
“तुमने मुझे वृद्धाश्रम में छोड़ा, सोचकर कि मैं अनपढ़ हूं, गंगवार हूं। तुम्हारे रुतबे से मेल नहीं खाती। तुम्हें मेरी सूती साड़ी तो दिखी, पर उस साड़ी के पीछे छिपा जज का लिबास नहीं दिखा। मेरे हाथ का हल्दी का दाग देखा, पर वो कलम नहीं देखी जो रोज इंसाफ लिखती है।”
“मैं पिछले 10 साल से जज हूं। जिस वक्त तुम दिल्ली में कानून की पढ़ाई कर रहे थे, मैं मध्य प्रदेश के एक जिले में फैसले सुना रही थी। मैंने तुम्हें क्यों नहीं बताया? क्योंकि मैं देखना चाहती थी कि मेरा बेटा खुद के दम पर क्या बनता है। मैं नहीं चाहती थी कि तुम जज की औलाद होने के घमंड में जियो। पर तुमने बिना वजह ही इतना घमंड पाल लिया।”
“तुमने प्रिया को खो दिया, अपना सम्मान खो दिया, और आज अपनी मां को भी खो दिया।”
भाग 7: न्याय की सजा
“मां, ऐसा मत कहो। मैं मर जाऊंगा मां। मुझे माफ कर दो। मैं आपको वापस घर ले जाऊंगा।”
शांति मुड़ी – “कौन सा घर? वो सरकारी बंगला जो तुम्हें मिला है? नहीं जज मेहरा। अब तुम मेरे घर चलोगे, चीफ जस्टिस के बंगले में। पर एक बेटे की तरह नहीं, एक गुनहगार की तरह।”
शांति ने मेज से एक कागज उठाया – “यह तुम्हारा ट्रांसफर ऑर्डर है। मैं उसी हाई कोर्ट में नहीं बैठ सकती जहां मेरा बेटा, जिसने मुझे नौकरानी कहा हो, जज बनकर बैठे। यह न्याय के उसूलों के खिलाफ है। तुम लखनऊ से 300 किलोमीटर दूर बहराइच के गांव की अदालत में जा रहे हो। यह तुम्हारी सजा है। तुम्हारी मां की तरफ से नहीं, चीफ जस्टिस की तरफ से।”
रोहन के पैरों तले जमीन खिसक गई – “मां, ऐसा मत करो। मेरा करियर बर्बाद हो जाएगा।”
शांति हंसी – “जब तुम मुझे वृद्धाश्रम छोड़ रहे थे तब तुमने मेरे बुढ़ापे के बारे में सोचा था? नहीं, तुमने सिर्फ अपने रुतबे के बारे में सोचा। अब तुम जाओ, और उन गरीब किसानों के बीच रहो। शायद उनकी सादगी देखकर तुम्हें समझ आए कि इंसानियत रुतबे से बड़ी होती है।”
रोहन वहीं फर्श पर बैठ गया। जानता था, सब खत्म हो गया। उसे सजा मिल चुकी थी। उसके अहंकार ने उसे उस मुकाम पर ला खड़ा किया था, जहां उसके पास पछतावे के सिवा कुछ नहीं था।
भाग 8: इंसानियत की जीत
महीनों बीत गए। जज रोहन मेहरा बहराइच की छोटी सी अदालत में बैठा था। एक बूढ़ी औरत, जिसके बेटे ने उसे जमीन से बेदखल कर दिया था, रो रही थी। रोहन को उस औरत में अपनी मां दिखाई दी। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। उसने उस औरत के हक में फैसला सुनाया और अपने पैसों से उसे एक शॉल खरीद कर दी। अब रोहन जज तो था, पर इंसान भी बन गया था।
लखनऊ में चीफ जस्टिस शांति वर्मा अपने बंगले में अकेली बैठी थी। हाथ में रोहन के बचपन की तस्वीर थी। वह आज भी अपने बेटे से प्यार करती थी, पर इंसाफ का तकाजा कुछ और था। उन्होंने मां की ममता को एक जज की जिम्मेदारी के नीचे दबा दिया था।
सीख
यह कहानी हमें सिखाती है कि इंसान का रुतबा उसके कपड़ों या उसकी कुर्सी से नहीं, उसकी सोच से बनता है। रोहन ने अपनी मां को नौकरानी कहकर जिस सादगी का अपमान किया था, वही सादगी उसकी मां की सबसे बड़ी ताकत थी। अहंकार इंसान की आंखों पर ऐसा पर्दा डालता है कि उसे हीरे में भी पत्थर नजर आता है और जब वह पर्दा हटता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। भगवान का न्याय कभी-कभी अदालत के हथौड़े से नहीं, बल्कि रिश्तों के आईने से होता है – जहां इंसान को अपना ही चेहरा साफ नजर आ जाता है।
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क्या आप भी कभी अपने रिश्तों में अहंकार को जगह देते हैं? आज से सोच बदलें।
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