जिसे ग़रीब समझकर Bank से निकाला… निकला वही असली Bank का मालिक फिर जो हुआ..

“सम्मान की असली कीमत”
सुबह के 10:00 बज रहे थे, शहर की दुकानें चमक-दमक से सज चुकी थीं। इसी हलचल के बीच, शहर के सबसे बड़े बैंक इंफिनिया गोल्ड के दरवाजे की ओर धीमी चाल में एक बूढ़े आदमी, विराज मेहता, बढ़ रहे थे। दरवाजे पर खड़े सिक्योरिटी गार्ड ने उन्हें ऊपर से नीचे तक निहारा और बोला, “अंदर कहां चल दिए? यह गरीबों का बैंक नहीं है।” विराज ने शांत स्वर में कहा, “मेरा खाता है यहां। अंदर जाने दीजिए।”
कांच का दरवाजा धीरे-धीरे खुला और वे अंदर दाखिल हुए। अंदर पहुंचते ही माहौल बदल गया। लोगों की निगाहें उन पर टिक गईं, जैसे किसी ने मंच पर गलत कलाकार भेज दिया हो। वे बिना हड़बड़ी के काउंटर की तरफ बढ़े। काउंटर पर नंदिनी नाम की युवा महिला बैठी थी, जिसका ध्यान ज्यादातर फोन पर था। उसका चेहरा सख्त था।
विराज ने नम्रता से कहा, “बेटी, मुझे चेक से पैसे निकालने हैं।” नंदिनी ने एक झलक में उनकी साधारण सूरत देखी और सोच लिया, “यह भिखारी यहां दिमाग चाटने आ गया।” आवाज में तुनक जोड़कर बोली, “यह बैंक सबके लिए नहीं है। शायद आप गलत बैंक में घुस गए हैं।” विराज ने शांत स्वर में कहा, “मैंने अपना खाता यही खुलवाया है। चेक दिखाइए तो।” नंदिनी ने तंज भरे अंदाज में पूछा, “कितना निकालना है?” विराज बोले, “पाँच लाख नकद चाहिए।”
नंदिनी की हंसी तेज निकली। आसपास खड़े लोग भी पलट कर देखने लगे। “अरे भैया, आप कोई मजाक कर रहे हैं क्या? यहां वीआईपी क्लाइंट आते हैं, ट्रांजैक्शन बड़े होते हैं, आपकी औकात क्या है?” उसकी जुबान से जहरीले शब्द निकल रहे थे। विराज का चेहरा लाल हो गया, पर उन्होंने विनम्रता से कहा, “मैं भिखारी नहीं हूं। मेरा पैसा है यहां। बस चेक देख लो।” नंदिनी का धैर्य टूट गया। उसने तेज आवाज में कहा, “मैं तुम्हारा कोई चेक नहीं देखती। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इस बैंक में आकर इतने पैसों की डिमांड करने की? यह हमारा बैंक है।”
हंगामा बढ़ा तो भीड़ जमा होने लगी। तभी बैंक के मैनेजर मनीष वर्मा अपनी शीशे वाली केबिन से निकला। उसकी भाषा और चाल में अहंकार था। उसने कड़क आवाज में पूछा, “यह क्या शोर हो रहा है?” नंदिनी ने मौका पाकर सब कुछ बता दिया, अपने स्वर में घमंड मिलाकर, “सर, यह कोई भिखारी आया है और पाँच लाख मांग रहा है।” विराज ने हाथ जोड़कर फिर समझाने की कोशिश की, “सर, मैं अपना ही पैसा निकालने आया हूं।” पर मनीष ने उनकी कोई बात नहीं सुनी और धुनकर कहा, “बाहर निकलो, भागो यहां से। जब तुम्हें कहा गया है तो क्या समझ नहीं आया? यह बैंक है, धर्मशाला नहीं।” फिर उसने विराज को जोर से धक्का दे दिया।
धक्का इतना जोरदार था कि विराज धड़ाम से गिर पड़े। पासबुक और चेक हवा में उड़े, फिर जमीन पर जाकर बिखर गए। उस पल बैंक का शोर जैसे थम गया। सबकी नजरें बस एक जगह टिक गईं—एक बूढ़ा आदमी जमीन पर पड़ा था और उसकी गरिमा भी उसके साथ गिरी थी।
लेकिन सन्नाटा ज्यादा देर नहीं रहा। मैनेजर मनीष वर्मा गुस्से में गरजा, “गार्ड, क्या देख रहा है? उठा इसे और बाहर फेंक दे। ऐसे लोगों से बैंक की इमेज खराब होती है।” गार्ड ने बिना सोचेचारे विराज जी की बाह पकड़ी और उन्हें घसीटते हुए बाहर की तरफ धकेल दिया। “चलो, फालतू के ड्रामे मत करो।” कांच का दरवाजा उनके पीछे बंद हो गया। पीछे मुड़कर देखा तो नंदिनी चेहरे पर जीत की मुस्कान लिए खड़ी थी, जैसे किसी युद्ध में विजय हुई हो। मैनेजर टाई सीधी कर रहा था और बाकी ग्राहक अपनी कुर्सियों पर लौट गए जैसे कुछ हुआ ही न हो।
बाहर विराज अकेले जमीन पर बैठे हुए, सिर पर हल्की चोट, मगर दिल में गहरी चोट। उनकी आंखों में आंसू थे—बेबसी के, अपमान के, और उस दुनिया के लिए जो अब उन्हें समझ नहीं पा रही थी। उन्हें याद आया कैसे उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी मेहनत से कमाई थी, हर रुपया ईमानदारी से जोड़ा, हर मुश्किल को मुस्कुराकर झेला। और आज वही पैसा, वही बैंक उन्हें भिखारी बना गया।
धीरे-धीरे उठे, कांपते हुए पैर और घर की ओर चल पड़े। हर कदम अब किसी भारी पत्थर जैसा लग रहा था। घर पहुंचकर दरवाजा बंद किया और फिर बस टूट पड़े। बच्चे की तरह फूट-फूट कर रोने लगे। उनके आंसू सिर्फ अपमान के नहीं थे बल्कि उस दर्द के थे कि इंसानियत कब इतनी ठंडी हो गई।
कुछ देर बाद जब रोना थमा तो दिल में सवाल उठा, “क्या मैं यह बात आर्यन को बताऊं?” फिर खुद ही जवाब मिला, “नहीं, वो परेशान हो जाएगा।” लेकिन फिर एक और सोच आई, “अगर मैं चुप रहा तो ऐसे लोगों का हौसला और बढ़ेगा।” उन्होंने कांपते हाथों से फोन उठाया और बेटे आर्यन का नंबर डायल किया।
उधर आर्यन दिल्ली में एक इंटरनेशनल कॉलेज में लेक्चर दे रहा था। लाखों स्टूडेंट सामने उनकी लेक्चर सुन रहे थे। फोन पर पिताजी का नाम देखा तो वह बिना देर किए बाहर निकल गया। “हां पिताजी, सब ठीक?” उसने मुस्कुराते हुए कहा। दूसरी तरफ से आई टूटी भीगी हुई आवाज, “हां बेटा, सब ठीक है।” बस इतना सुनना काफी था। आर्यन का चेहरा गंभीर हो गया। उसे पता था कुछ बहुत गलत हुआ है। “पापा, आपकी आवाज ठीक नहीं लग रही। क्या हुआ?” और फिर जैसे टूटे बांध से पानी निकलता है वैसे ही विराज की सिसकियों के साथ सब कुछ बाहर आ गया—बैंक की घटना, हर शब्द, हर धक्का, हर अपमान।
आर्यन बस सुनता रहा और उसके भीतर का लावा उबलने लगा। “पापा, आप प्लीज शांत रहिए। मैं अभी आ रहा हूं।” “नहीं बेटा, तू काम कर ले। बस मन हल्का करना था।” “नहीं पिताजी,” आर्यन की आवाज अब दृढ़ थी, “अब जो हुआ है उसका जवाब मैं दूंगा। लेकिन अपने तरीके से।” उसने फोन काटा, सबको देखा और बस इतना कहा, “आई एम सॉरी स्टूडेंट्स, बट आई हैव टू लीव नाउ।” उसकी नजरों में ऐसा दृढ़ निश्चय था कि कोई सवाल करने की हिम्मत नहीं कर सका। सीधे कार में बैठा, एयरपोर्ट की ओर निकल गया।
रास्ते भर उसका मन उबलते पानी जैसा था। सिर्फ गुस्सा नहीं, बल्कि एक गहरी पीड़ा थी अपने पिता के अपमान की। आर्यन ने तय कर लिया था—यह लड़ाई बदले की नहीं, न्याय की होगी। वह उन लोगों को एक ऐसा सबक देगा जो किसी कोर्ट या पुलिस से नहीं, बल्कि इंसानियत के आईने से मिलेगा।
रात देर से जब वह घर पहुंचा तो देखा पिताजी सोफे पर ही सो गए थे। आर्यन ने धीरे से अपने पिता के पैरों पर हाथ रखा। विराज मेहता चौंक गए। पलट कर देखा तो सामने उनका बेटा खड़ा था। जैसे किसी पुराने दर्द पर मरहम लग गया हो। उनकी आंखों से फिर से आंसू बह निकले। आर्यन ने झुककर उन्हें गले लगा लिया और धीरे से कहा, “बस पिताजी, अब और नहीं। आप आराम कीजिए। कल सुबह हम साथ चलेंगे उसी बैंक में।”
विराज ने सिर हिलाया। आवाज धीमी थी, थकी हुई, टूटी हुई। “नहीं बेटा, अब उस जगह जाने की कोई जरूरत नहीं। मेरी उस बैंक में जाने की हिम्मत नहीं हो रही।” आर्यन ने उनका हाथ पकड़ कर कहा, “पिताजी, जाना तो होगा। यह सिर्फ आपके अपमान का मामला नहीं है। यह उस घमंड को तोड़ने की बात है जो इंसानियत को कुचल देता है। हमें दिखाना होगा कि सम्मान कपड़ों से नहीं, इंसान के कर्मों से होता है। और हम वैसे ही जाएंगे, जैसे आप गए थे—सादगी में, मगर सिर ऊंचा रखकर।”
अगली सुबह आर्यन ने ऑटो रोका और बोला, “चलो इंफिनिया गोल्ड बैंक।” बैंक में वही पुराना माहौल था। चमचमाती फर्श, परफ्यूम की महक, और ऐसे चेहरे जो दूसरों को ऊपर से नीचे तक टोलने के आदि थे। जैसे ही आर्यन और उनके पिता अंदर दाखिल हुए, कई नजरों ने उन्हें एक साथ घूरा। मानो कोई अजनबी गलती से किसी और दुनिया में आ गया हो। आर्यन ने पिता का हाथ कसकर थामा, जैसे कह रहा हो, “डरिए मत, अब वक्त हमारा है।”
वह सीधे उस काउंटर की ओर बढ़े जहां नंदिनी बैठी थी। वहीं नंदिनी, वही अकड़, वहीं मोबाइल में डूबी हुई लापरवाही। आर्यन ने शालीन आवाज में कहा, “मैडम, हमें पैसे निकालने हैं। यह मेरे पिताजी का चेक है।” नंदिनी ने सिर उठाकर देखा। कल वाला बूढ़ा फिर आ गया था और आज उसके साथ एक लड़का भी। “अरे वाह,” उसने ताना मारा, “आज बेटे को भी ले आए हो शिकायत करने। सुनो, जैसे आए हो वैसे ही निकलो यहां से।”
आर्यन मुस्कुराया, लेकिन उसकी मुस्कान में संयम था, गुस्सा नहीं। “मैडम, हम शिकायत करने नहीं आए हैं। बस अपना पैसा निकालने आए हैं। चेक देख लीजिए।” नंदिनी ने चेक हाथ में लिया, नजर दौड़ाई और फिर वहीं बेहूदा हंसी-हंसी। “कल बाप मजाक कर रहा था, आज बेटा। ₹5 लाख निकालना है? पहले अपने खाते में ₹10 तो डाल दो।” पास बैठे लोग हंसने लगे। वही भीड़, वही तमाशबीन। विराज का चेहरा फिर उतर गया। लेकिन इस बार आर्यन चुप नहीं था।
उसने बहुत शांति से कहा, “मैडम, बस एक बार सिस्टम में अकाउंट नंबर डालकर बैलेंस चेक कर लीजिए। सारी गलतफहमी खुद-ब-खुद दूर हो जाएगी।” नंदिनी ने हिकारत से चेक फेंक दिया। “मेरे पास टाइम नहीं है तुम जैसे लोगों के लिए। जाओ, मैनेजर से मिलो। वही बताएंगे क्या करना है।” उसके लहजे में वही विश्वास था कि आज भी वही होगा जो कल हुआ था। आर्यन ने सिर झुकाया और कहा, “ठीक है मैडम, हम मैनेजर से ही मिल लेते हैं।”
वो अपने पिता का हाथ थामे सीधे मैनेजर के केबिन की तरफ बढ़ा। बाहर बैठे चपरासी ने रोक लिया, “कहां जा रहे हो? साहब बिजी हैं। जरूरी काम है?” आर्यन ने शांति से कहा, “अपॉइंटमेंट नहीं पर तो बैठो वहां वेटिंग एरिया में। जब साहब फ्री होंगे तब बुलाएंगे।” दोनों एक कोने में जाकर बैठ गए। आर्यन देखता रहा कैसे अमीर कपड़ों में आए लोग बिना किसी रोक-टोक के सीधे केबिन में घुस रहे थे और किसी ने उफ तक नहीं की। आधा घंटा बीत गया, फिर एक घंटा।
मैनेजर मनीष वर्मा कई बार बाहर आया। महंगे ग्राहकों से हंस-हंस कर बातें की, हाथ मिलाए और फिर अंदर चला गया। लेकिन उसने एक बार भी आर्यन और उसके पिता की तरफ नहीं देखा। विराज बेचैन हो उठे, “बेटा, चलो यहां से। मुझे और अपमान नहीं झेलना।” आर्यन ने उनका हाथ दबाया, “बस 10 मिनट और। पिताजी, सब ठीक हो जाएगा।”
समय धीरे-धीरे बीता और आर्यन की आंखों की मुस्कान अब एक चट्टान सी दृढ़ता में बदल चुकी थी। एक गहरी सांस लेकर वह उठा और बिना किसी झिझक के मैनेजर के केबिन की तरफ बढ़ा। चपरासी ने रोकने की कोशिश की, पर इस बार आर्यन नहीं रुका। उसने दरवाजा जोर से खोला। धड़ाक। मनीष वर्मा फोन पर अपनी बीवी से हंसी ठिठोली कर रहा था। फिर अचानक दरवाजा जोर से खुला और दो लोग बिना पूछे अंदर आए। मनीष का चेहरा सिकुड़ गया। उसे भड़कते देर नहीं लगी।
“यहां कैसी तमीज?” वह फटक कर खड़ा हो गया और गुस्से से पूछा, “बताओ कौन हो तुम लोग? यहां कैसे घुसे?” उसके सामने खड़ा युवक आर्यन बिल्कुल सनसनीखेज ठहर गया। उसकी आवाज ठंडी और नियंत्रित थी। “क्या आप मनीष वर्मा हैं?” “हां, मैं ही,” मनीष चिल्लाया। “और तुम्हारी हिम्मत इतनी?”
अचानक आर्यन ने अपनी जेब से वहीं चेक निकाला—₹5 लाख का। इसे सीधे मेज पर रख दिया। “यह मेरे बाप का चेक है। यह ट्रांजैक्शन कर दीजिए।” मनीष ने चेक उठाया। एक नजर में पिता को पहचान लिया और फिर ना सिर्फ चेक बल्कि तौहीन भी वापस फेंक दी, “यह लोग रोज टाइम खराब करते हैं। तुम्हें देखकर ही पता चल जाता है।” वह गंध सराही हुई आलोचना और अपमान का पुराना पाठ पढ़ रहा था।
क्या कभी आपने देखा है कि कुछ लोग कैसे दूसरों की शक्ल और सूरत से उनकी कीमत निकाल लेते हैं? यही तमाशा वहां भी दोहराया गया। पर इस बार आर्यन खामोश नहीं रहा। उसने दिल से कहा, “आपके जो शबाब के हिसाब से इंसाफ तय करने का रवैया है, वही चीज मुझे यहां आने पर मजबूर कर गई।”
फिर उसने फोन निकाला और एक नंबर दबाया। “खालिद, पूरी टीम को लेकर बैंक पर आ जाओ। रीजनल हेड और विजिलेंस को कॉन्फ्रेंस कॉल पर जोड़ो। तुम सब लाइव सुनना।” मनीष घबरा गया। पर जल्द ही केबिन का दरवाजा खुला और सूट बंधे लोग अंदर आए। उनमें से एक ने आर्यन को दस्तावेजों वाली फाइल थमाई।
अब जो बात हवा में थी, जमीन पर आ गिरी। आर्यन की आवाज में अब मालिकाना अधिकार था और बयान एकदम साधारण पर भारी, “मेरा नाम आर्यन है। यही बैंक मेरे और मेरे पिता की इक्विटी कंपनी का हिस्सा है। मैं इस बैंक का मेजरिटी शेयर होल्डर और इसलिए मालिक भी।”
केबिन में कुछ पल को जैसे समय ठहर गया। मनीष के होठ फटके पड़े। चेहरा रंग बदल गया। माथे पर पसीना तैर आया। नंदिनी और बाकी स्टाफ के चेहरे पर हैरानी स्पष्ट थी। ग्राहक भी चुपचाप सभी बातचीत देख रहे थे। क्या बड़ी कुर्सी पर बैठा आदमी हमेशा मालिक होता है? और क्या पैसों के चमक-दमक से इंसानियत की नजर धुंधली हो जाती है? यह सवाल अचानक हर किसी के जहन में उठ खड़े हुए।
आर्यन ने आगे बढ़कर कहा, “आपने कल मेरे पिता को बेइज्जत किया, भिखारी कहा, धक्का दिया। आज आपकी यह हरकतों का हिसाब देना होगा।” फिर टीम के आदमी ने बैंक का लैपटॉप खोला और सीसीटीवी फुटेज प्ले कर दी। स्क्रीन पर कल की हर झलक—नंदिनी की तानों से लेकर मनीष के धक्के तक। सब कुछ साफ नजर आया। गुजरते पलों की असलियत अब छुपी नहीं रही।
“यह वीडियो अब हेड ऑफिस, विजिलेंस और जरूरत पड़ी तो मीडिया तक जाएगी।” आर्यन ने कहा, “और साथ ही आपकी बर्खास्तगी की तैयारियां भी चल रही हैं।” उसकी आवाज में कोई रंज नहीं, बल्कि जवाबदेही की ठोस घोषणा थी। कभी-कभी यही फर्क बनता है। इंसान का हक सिर्फ अपने लिए मांगने पर हासिल नहीं होता, बल्कि तब बनता है जब कोई खामोशी तोड़कर सच्चाई सामने रखता है।
मनीष वर्मा के लिए उस दिन बस अकड़ा हुआ वक्त और एक खुला सच था और बैंक की बड़ी इमारतों के अंदर भी अब आंखें खुलने लगी थीं। वर्मा अब पूरी तरह टूट चुका था। चेहरा पसीने से भीगा हुआ, आंखों में पछतावे की झिलमिलाहट। वह अपनी कुर्सी से उठकर सीधा विराज मेहता जी के पैरों में गिर पड़ा। “सर, मुझे माफ कर दीजिए। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। मैंने आपको पहचाना नहीं था। प्लीज मेरी नौकरी मत लीजिए। मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। घर चलाने वाला कोई नहीं।” उसकी आवाज में डर था और दिल में अफसोस।
विराज मेहता जी के चेहरे पर करुणा झलक उठी। उम्र और अनुभव ने उन्हें सिखाया था कि गलती हर इंसान से होती है। लेकिन सजा हमेशा न्याय से मिलनी चाहिए। उन्होंने आर्यन की तरफ देखा। शायद उम्मीद थी कि बेटा कुछ नरमी दिखाएगा। लेकिन आर्यन की आंखों में ठंडा तूफान था। कोई रहम नहीं, बस सच्चाई की सख्ती। “जब तुम मेरे पिता को धक्का दे रहे थे तब तुम्हें अपने बच्चों की याद नहीं आई थी, वर्मा।” आर्यन की आवाज कमरे में गूंज उठी।
“माफी किस बात की मांग रहे हो? मुझे पहचान न पाने की या उस अपमान की जो तुम हर उस गरीब इंसान को देते हो जो इस बैंक के दरवाजे पर मदद मांगने आता है?” वातावरण में एक भारी खामोशी छा गई। आर्यन ने अपनी नजरें दरवाजे की ओर मोड़ी और कहा, “नंदिनी, इधर आओ।” नंदिनी धीरे-धीरे कदम रखते हुए वहां आई। चेहरा उतारा हुआ, आंखों में आंसू तैर रहे थे। वह कभी अपने स्मार्टफोन पर मुस्कुराने वाली रिसेप्शनिस्ट थी, आज अपने ही काम की शर्म से कांप रही थी।
आर्यन ने कहा, “मैडम, आप तो चेहरे देखकर लोगों की औकात बता देती हैं, है ना? तो बताइए आज मेरे चेहरे पर आपको क्या दिख रहा है?” नंदिनी कुछ नहीं बोली, बस सिर झुका लिया। आर्यन ने गहरी सांस ली और कहा, “आप दोनों को सिर्फ इसलिए नहीं निकाला जा रहा कि आपने मेरे पिता का अपमान किया। असली वजह यह है कि आप उस कुर्सी के काबिल नहीं हैं। बैंक सिर्फ पैसों का लेनदेन नहीं करता, यह विश्वास का सौदा करता है। यहां ग्राहक सिर्फ नंबर नहीं होते, इंसान होते हैं, और आपने इस बैंक के भरोसे को मिट्टी में मिला दिया।”
फिर वह अपनी टीम से कहा, “दोनों के टर्मिनेशन लेटर तैयार करो। और हां, उस गार्ड को भी जिसने बिना सोचे किसी बुजुर्ग को बाहर फेंका। आज से वह भी इस बैंक का हिस्सा नहीं रहेगा। मेरे बैंक में ऐसे लोगों की कोई जगह नहीं।”
बैंक के बाहर जमा पूरा स्टाफ अब केबिन की खिड़की से यह सब देख रहा था। आर्यन उठकर बाहर आया। उसकी आवाज गूंज उठी, “आज जो हुआ वह आप सबके लिए सबक है। याद रखिए इंसान की कीमत उसके कपड़ों से नहीं, उसके किरदार से होती है। ग्राहक भगवान होता है। चाहे वह सूट-बूट पहने या फटे कपड़ों में आए। अगर आज के बाद इस ब्रांच में किसी भी ग्राहक के साथ बदसलूकी की खबर मिली तो सिर्फ नौकरी नहीं जाएगी, कानूनी कार्रवाई भी होगी।”
पूरा बैंक सन्न रह गया। कोई बोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। फिर आर्यन अपने पिता के पास गया। विराज मेहता जी ने उसके कंधे पर हाथ रखा और धीमे से कहा, “बेटा, हमने यह बैंक लोगों की मदद के लिए बनाया था, किसी का अपमान करने के लिए नहीं। याद रखो दौलत आज है, कल नहीं होगी। लेकिन इंसानियत और संस्कार यह उम्र भर साथ चलते हैं।”
आर्यन ने झुककर पिता का हाथ थामा और उन्हें धीरे-धीरे बाहर ले गया। जब दोनों बाहर निकले तो पूरा स्टाफ और सभी ग्राहक खड़े हो गए, सिर झुकाए सम्मान में। बाहर की हवा अलग महसूस हो रही थी—हल्की, सच्ची और संतोष भरी। विराज मेहता जी ने एक गहरी सांस ली। इस बार उनकी आंखों से बहते आंसू अपमान के नहीं, गर्व के थे। उस बेटे के लिए जिसने ना सिर्फ उनका सम्मान लौटाया बल्कि पूरे समाज को इंसानियत की कीमत याद दिला दी।
सीख:
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि इंसानियत, सम्मान और संस्कार किसी भी दौलत से कहीं ज्यादा कीमती होते हैं। समाज में बदलाव लाने के लिए कभी-कभी खामोशी तोड़नी पड़ती है। हर व्यक्ति, चाहे उसकी स्थिति जैसी भी हो, सम्मान का हकदार है।
अगर आपको यह कहानी पसंद आई हो, तो जरूर बताएं कि आपने इससे क्या सीखा।
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