जिस दोस्त ने दिया धोखा, भिखारी बना दिया , सालों बाद उसी दोस्त का बेटा उसी कंपनी का मालिक बनकर लौटा
क्या दोस्ती का रिश्ता खून के रिश्ते से भी ऊपर हो सकता है? और क्या हो जब वही दोस्त आपकी पीठ में छुरा घोंप दे?
यह कहानी है दोस्ती, विश्वासघात, बर्बादी और पुनर्जन्म की — ऐसी कहानी जो दोस्ती, दुश्मनी और तकदीर के मायने ही बदल देती है।
10 साल पहले: दोस्ती का अटूट रिश्ता
करण मेहरा हर किसी के लिए आदर्श और सपना माने जाने वाली ज़िंदगी जी रहा था। पिता की मेहनत से खड़ी मेहरा टेक्सटाइल्स को वह बुलंदियों पर ले गया था। आलीशान बंगला, महंगी गाड़ियां, प्यार करने वाली पत्नी अंजलि और मासूम बेटी पिया… लेकिन उससे भी बड़ी उसके जीवन की ‘कंपनी’ थी उसका सबसे पुराना दोस्त मोहन — उस गरीब बच्चे को करण के पिता ने पढ़ाया था और अपने बेटे के साथ हर सुख-दुख में उतारा था।
करण ने उसे CEO ही नहीं बनाया, बल्कि सलाहकार, राजदार और भाई बना लिया। कभी हंसीआठ अहंकार, शक या जलन नाम की चीज़ भी नहीं थी—दोस्ती में यकीन की इतनी ऊंचाई थी कि कभी खतरे का अंदेशा भी नहीं हुआ।
ईर्ष्या, लालच और सबसे बड़ा धोखा
पर जैसे-जैसे समय बीता, मोहन के मन में कुटिलता और लालच पनपने लगी। उसे लगा कि काम उसका, दिमाग उसका, मगर इज्ज़त, पैसा, ताकत सब करण को ही मिलती है। मोहन धीरे-धीरे कंपनी का पैसा हड़पने, हस्ताक्षर जाली करने, और सबसे बड़ी गद्दारी—करोड़ों की धोखाधड़ी का इल्जाम करण के नाम करने लगा।
सबूत, दस्तखत, सारी साजिश तैयार कर उसने एक दिन इनकम टैक्स और पुलिस का छापा डलवा दिया। जितना विश्वास करण ने मोहन पर किया था, उतनी ही गहराई से मोहन ने उसे तबाह कर दिया। अदालत के कटघरे में भी गवाही, आंखों में मगरमच्छी आंसू, और सब काग़ज़ मोहन के पक्ष में चले गए। करण पर आरोप साबित हुए, सारी संपत्ति जब्त हो गई, जेल भी हुई; और जब तक वह लड़ता रहा, उसका परिवार तबाह हो गया। उसकी पत्नी अंजलि बीमारी में दुनिया छोड़ गई, बेटी पिया भी बुखार में मर गई। समाज, रिश्तेदार, साथी, सबने मुंह मोड़ लिया।
भिखारी से नए जीवन की ओर…
करण का सबकुछ छीन गया। कभी जिसे खुद बनाया था, उसी कंपनी के बाहर अब वह पगला-सा, भिखारी-सा देर तक बैठा रहता। उसका शरीर, मन, आत्मा सब टूट चुके थे। मोहन अब कंपनी का मालिक था, मगर ओछा व्यवहार, गलत फैसले, कर्मचारियों की अनदेखी, लालच ने कंपनी को कगार पर ला दिया। चंद सालों में ही कंपनी दिवालिया होने को थी।
किस्मत का खेल — 10 साल बाद का बदला दौर
एक दिन कंपनी के बाहर खड़ा भूखा करण देखता है कि कई लग्ज़री गाड़ियां आती हैं—कंपनी किसी NRI ने खरीद ली है। सबसे पहले बाहर आया राम सिंह—जो एक समय अकाउंटेंट था जिसे मोहन ने हटा दिया था। उसने दूसरा दरवाजा खोला और एक नौजवान को बाहर निकाला, जिसने मोहन को एक पुराना दोस्ती वाला कागज़ दिखाया—करण और मोहन की बचपन की दोस्ती की शपथ।
मोहन ने आंखें फाड़कर देखा—ये वही पिया थी जिसे करण बचपन में छोड़ आया था, पर अब वह विकास बनकर लौटी थी। करण ने उसे छुपा, मर्द के वेश में पाला, अनाथालय में पढ़ाया ताकि समाज की बुरी आंखों से बच सके और ताकतवर बन सके।
सच और इंसाफ की जीत
विकास ने सबके सामने मोहन को सच बताया, और कहा, “मेरे पिता ने जो तुम पर भरोसा किया, वैसा भरोसा शायद भगवान भी ना करे, और तुमने उन्हें बर्बाद कर दिया। फिर भी उन्होंने मुझे माफ करना सिखाया।” और पुलिस को बुलाकर मोहन को जेल भिजवा दिया।
विकास ने अपने पिता को कंपनी की कुर्सी पर फिर से बिठाया। पिता-पुत्र ने मिलकर कंपनी को फिर से बनाया—इस बार नए उसूल, नई सबक, नया प्यार लेकर।
कहानी की सीख
सच्चा दोस्त वही है जो जरूरत में आपके साथ खड़ा रहे; झूठा दोस्त एक ही पल में सबकुछ तबाह कर सकता है।
धोखा, लालच और बेईमानी की उम्र बहुत छोटी होती है; भले जीत देर से मिले, लेकिन जीत हमेशा सच्चाई की ही होती है।
अच्छा कर्म, माफ करने की ताकत और कठिनाइयों के बावजूद चलना ही असली जीवन है।
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