टीचर पति के सामने झुक गई तलाकशुदा IAS पत्नी… वजह जानकर हर कोई हैरान रह गया…

सादगी का सम्मान — मनोज और आराध्या की कहानी
अध्याय 1: सपनों की शुरुआत
उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात के एक छोटे से गांव में मनोज नाम का एक साधारण, ईमानदार, सच्चे स्वभाव वाला सरकारी स्कूल का शिक्षक रहता था। उसकी सबसे बड़ी संपत्ति थी उसकी सादगी, उसका शांत स्वभाव और बच्चों के लिए उसका समर्पण। वहीं, इसी गांव में, एक बड़े सपने देखने वाली लड़की थी — आराध्या। वह यूपीएससी की तैयारी कर रही थी, मेंस निकाल चुकी थी और इंटरव्यू का इंतजार था।
आराध्या के माता-पिता को मनोज पसंद आया क्योंकि उन्हें लगा कि एक शिक्षक पति उनकी बेटी के सपनों को रोकेगा नहीं, बल्कि आगे बढ़ाएगा। यही सोचकर दोनों का रिश्ता तय हो गया। शादी के बाद मनोज ने खुद को पति से ज्यादा एक साथी साबित किया। वह सुबह चाय बनाता, आराध्या को पढ़ने बैठाता, घर का सारा काम खुद करता ताकि आराध्या का ध्यान कभी भटके नहीं। वह अक्सर कहता — “आरू, तुम आईएएस बनोगी। मैं तुम्हारे नाम से जाना जाऊंगा।”
आराध्या हंसकर कहती — “तुम्हारी वजह से ही बनूंगी, मनोज।” दोनों का रिश्ता सपनों और विश्वास से भरा था।
अध्याय 2: किस्मत का मोड़
लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। इंटरव्यू का दिन आया। आराध्या ने पूरी तैयारी की, हर सवाल का जवाब दिया। बाहर मनोज बैठा था, हर पल उसकी सफलता की दुआ कर रहा था। लेकिन रिजल्ट आया — आराध्या फेल थी। उसकी आंखों में आईएएस बनने की चमक थी, अब धुंधलापन उतर आया था।
समाज के ताने आराध्या के दिल में जहर बनकर जमने लगे — “शादी कर ली, दिमाग कहां लगेगा? पति टीचर है, भाग्य भी वही का होगा।” इंसान जब टूटता है, तो सबसे पहले अपने सबसे पास वाले को दोष देता है। आराध्या बदलने लगी। मनोज की हर बात उसे चुभने लगी। कभी कहती — “तुम मनहूस हो, मनोज। तुमसे शादी करके ही मेरा ध्यान भटका।” कभी कहती — “अगर तुम मेरे सपनों का रास्ता नहीं बन सके, तो कम से कम बाधा भी मत बनो।”
मनोज हर बार चुप रहता। वह जानता था कि यह उसकी पत्नी नहीं बोल रही, यह उसकी असफलता का दर्द बोल रहा है। लेकिन दर्द भी एक हद तक सह जाता है। एक दिन आराध्या ने साफ कहा — “मैं तलाक चाहती हूं। मुझे अपनी जिंदगी दोबारा शुरू करनी है।”
मनोज ने उसे बहुत देर तक देखा। आंखों में आंसू थे, लेकिन होठों पर सिर्फ एक वाक्य — “खुश रहना, यही मेरी दुआ है तुम्हारे लिए।” तलाक हो गया। आराध्या शहर चली गई और मनोज अपनी टूटी हुई दुनिया में बस एक बात समझता रहा — प्यार और त्याग में कभी शोर नहीं होता, बस दर्द की धीमी गूंज होती है।
अध्याय 3: सफलता और पुनर्मिलन
तीन साल बाद वही आराध्या आईएएस बन गई। किस्मत देखिए — उसकी पहली पोस्टिंग उसी जिले में हुई, जहां मनोज सरकारी स्कूल में बच्चों को पढ़ाता था। आराध्या जिस दिन नई-नई आईएएस के रूप में जिले में पहुंची, उसके चेहरे पर वही तेज था, वही आत्मविश्वास, वही ऊंची उड़ान का सपना। लेकिन दिल के किसी कोने में मनोज नाम का एक शांत सा धब्बा था, जिसे वह भूलना चाहती थी, पर मिटा नहीं पा रही थी।
जिला अधिकारी ने उसे सरकारी स्कूलों में शिक्षा सुधार अभियान की जिम्मेदारी सौंपी। उसी अभियान का पहला दौरा मनोज के स्कूल में होना था। गाड़ी स्कूल के गेट पर रुकी, भीड़ में हलचल मच गई। बच्चे फुसफुसाने लगे — “नई आईएएस मैडम आई है, बहुत सख्त है सुना है।”
आराध्या गाड़ी से उतरी, तेज निगाहें, लेकिन दिल में अजीब सी घबराहट। स्कूल के मुख्य कमरे में मनोज ब्लैक बोर्ड पर गणित समझा रहा था। बच्चे उसके शब्दों को ऐसे सुन रहे थे जैसे कोई पिता अपने बच्चों को जीवन के सबक दे रहा हो। “कौन सा भाग यहां कठिन लग रहा है?” मनोज ने झुककर एक बच्चे से पूछा। “सर, यह वाला,” बच्चे ने डरते हुए कहा। मनोज मुस्कुराया — “डर नहीं, समझो। गणित नहीं, कोई भी मुश्किल धीरे-धीरे आसान होती है।”
अध्याय 4: पुराने रिश्ते की कसक
तभी कमरे के बाहर किसी ने कहा — “महोदया, यही है मनोज सर।” पूरी क्लास पलट कर देख रही थी। मनोज ने भी मुड़कर देखा — दरवाजे पर आईएएस का बैज, साफ साड़ी, और तीन साल पहले छोड़ी गई पत्नी आराध्या खड़ी थी। एक पल को मनोज जैसे पत्थर का हो गया। चेहरा सख्त नहीं हुआ, बस शांत हो गया — जैसे खुद को भीतर से संभाल लिया हो।
आराध्या ने कागजों में देखकर कहा — “आप मनोज कुमार?” स्कूल के वरिष्ठ शिक्षक। मनोज ने वही पुरानी विनम्र आवाज में कहा — “जी मैडम।” यह ‘मैडम’ शब्द आराध्या के दिल पर हथौड़े की तरह लगा। कभी वही मनोज उसे ‘आरू’ कहता था। आज पद और दूरी दोनों उनकी आवाज में उतर आए थे।
निरीक्षण शुरू हुआ। आराध्या हर फाइल, हर रजिस्टर, हर नोटबुक देख रही थी। बच्चे और स्टाफ सधे हुए खड़े थे। लेकिन आराध्या का ध्यान फाइलों से ज्यादा मनोज के स्वभाव पर था — कितनी सहजता से वह बच्चों को संभाल रहा था, कितने प्यार से पढ़ा रहा था। एक बच्चे ने हिम्मत करके कहा — “मैडम, मनोज सर हमारे हीरो हैं। अगर वह ना होते, तो हम पढ़ ही नहीं पाते।”
आराध्या एक पल के लिए ठहर गई। बच्चे की आवाज में इतना भरोसा, इतनी श्रद्धा — वो भी उसके ‘मनहूस’ पति के लिए। जांच के अंत में आराध्या ने पूछा — “स्कूल का स्टाफ कम है, सुविधाएं भी खराब हैं, फिर भी आप शिकायत क्यों नहीं करते?” मनोज ने धीरे से कहा — “मैडम, शिकायत करने से समय जाता है, बच्चों को पढ़ाने से भविष्य बनता है।”
इस एक वाक्य ने आराध्या के अंदर कुछ तोड़ दिया। वह बाहर चली गई, पर मनोज को पढ़ाते देख उसके मन में एक आवाज गूंज रही थी — “क्या मैंने इसी आदमी को मनहूस कहा था?”
अध्याय 5: आत्ममंथन
रात को आईएएस बंगले में बैठे-बैठे आराध्या देर तक सोचती रही। बाहर से वह कड़क अफसर थी, पर भीतर एक टूटी हुई इंसान बनी बैठी थी। पहली बार उसका अहंकार उसकी सफलता से बड़ा नहीं था। वह खुद से कहने लगी — “जिस आदमी ने मेरी हर सुबह संभाली, जिसने मुझे हौसला दिया, मैंने उसी को मनहूस कह दिया।”
अगली सुबह जिले की सभागार में स्कूलों की समीक्षा बैठक थी। मनोज भी वहां था, चुपचाप नोट्स बना रहा था। उसने मनोज की तरफ देखा — एकदम सामान्य, जैसे उसके जीवन में किसी आईएएस का नहीं, किसी पुराने रिश्ते का नहीं, बल्कि सिर्फ फर्ज और बच्चों का स्थान था।
बैठक खत्म हुई। मनोज भी बाहर जा रहा था, लेकिन आराध्या के दिल ने उसे रोकने पर मजबूर कर दिया — “मनोज, एक मिनट।” मनोज रुक गया — “जी मैडम।” आराध्या ने औपचारिक लहजे में कहा — “कल का निरीक्षण ठीक था, आप अच्छा काम कर रहे हैं।” मनोज ने सिर झुका दिया — “धन्यवाद, मैडम।” वह पल आराध्या को चुभ गया। कभी यह आदमी उसे हंसाकर समझाता था, आज वही आदमी सिर्फ एक सरकारी अफसर की तरह खड़ा था।
अध्याय 6: सच्चाई की स्वीकारोक्ति
अगले दिन आराध्या मनोज के स्कूल का बिना सूचना दौरा करने निकल पड़ी। स्कूल के बाहर कुछ महिलाएं बैठी थीं — “मैडम, मनोज बाबू बच्चों को क्लास के बाद भी ट्यूशन दे रहे हैं, वो भी बिना पैसे। अपने पैसे से कॉपियां भी लाते हैं। बहुत नेक हैं।”
अंदर गई — मनोज फर्श पर बैठकर चार बच्चों को पढ़ा रहा था। उनमें से एक बच्ची ने कहा — “सर, आप नहीं होंगे तो हम आगे कैसे बढ़ेंगे?” मनोज मुस्कुराया — “तुम आगे बढ़ोगी, तो मैं भी आगे बढ़ा समझूंगा।”
आराध्या के गले में कुछ अटक गया — यही मनोज था, जिसे उसने मनहूस कहा था। क्लास खत्म हुई, बच्चे चले गए। आराध्या ने पूछा — “आप यह सब क्यों करते हैं?” उसकी आवाज में कठोरता नहीं, सिर्फ बेचैनी थी। मनोज ने शांत स्वर में कहा — “बच्चों को जरूरत है, मैडम। मेरी कमाई कम है, पर विश्वास बड़ा है कि शिक्षा किस्मत बदल सकती है।”
आराध्या चाहती थी — मनोज कुछ तो बोले, शिकायत करे, कहे कि तुम गलत थी। लेकिन मनोज के चेहरे पर एक भी सवाल, नाराजगी नहीं थी — बस वही सादगी। वह चुपचाप बाहर चली गई।
अध्याय 7: सम्मान और पुनर्मिलन की राह
कुछ दिनों बाद जिले में एक बड़ा कार्यक्रम था — सर्वश्रेष्ठ शिक्षक सम्मान। जिला अधिकारी ने कहा — “नई आईएएस मैडम निर्णय लेंगी, कौन शिक्षक सम्मान के योग्य है?” नामों की सूची सामने थी — दर्जनों शिक्षक, लेकिन आराध्या की आंखें बस एक नाम पर अटक गई — मनोज कुमार।
यह निर्णय सिर्फ प्रशासनिक नहीं था, यह उसके टूटे अतीत और वर्तमान के बीच की पहली कड़ी थी। उस रात आराध्या देर तक निर्णय नहीं ले पा रही थी। मनोज को सम्मान देना केवल एक पुरस्कार नहीं था, यह मानना था कि वह गलत थी — बहुत गलत। लेकिन सच से कब तक भागा जा सकता है? उसने फाइल पर हस्ताक्षर कर दिए। उस एक हस्ताक्षर के साथ मानो आराध्या के दिल पर तीन साल से जमा हुआ बोझ हल्का होने लगा।
कार्यक्रम का दिन आया। जिला मुख्यालय का बड़ा सभागार फूलों से सजाया गया था। स्टेज पर आईएएस आराध्या मुख्य अतिथि थी। मंच संचालक ने घोषणा की — “इस वर्ष सर्वश्रेष्ठ शिक्षक पुरस्कार फर्रूखाबाद के सरकारी स्कूल के सम्मानित शिक्षक मनोज कुमार को दिया जा रहा है।”
हॉल तालियों से गूंज उठा। मनोज शांत कदमों से स्टेज की ओर बढ़ रहे थे — सफेद साफ कपड़े, हाथ में फाइल, वही सादगी। उनकी चाल में ना तो कोई घमंड था, ना कोई उलाहना, बस एक शिक्षक की गरिमा थी।
स्टेज पर पहुंचकर मनोज ने हल्का सा सिर झुकाकर आराध्या को प्रणाम किया। आराध्या ने भी हाथ जोड़कर नमस्कार किया, पर उसकी उंगलियां हल्के से कांप रही थीं। मंच संचालक ने कहा — “मैडम, आप सम्मान प्रदान करें।” आराध्या ने ट्रॉफी उठाई, उसकी नजर पहली बार मनोज की आंखों से मिली — वही आंखें जो कभी उसे सुकून देती थीं, अब शांत थीं।
आराध्या ने ट्रॉफी मनोज को दी। मनोज ने धीरे से कहा — “धन्यवाद, मैडम।” यह ‘मैडम’ उसे भीतर तक चीर गया। उसने चाहा — मनोज एक बार कह दे ‘आरू’, लेकिन अब यह संभव नहीं था। पद, परिस्थितियां, समय सब बदल चुका था।
अध्याय 8: दिल की बात
कार्यक्रम खत्म हुआ। सब लोग बाहर जा रहे थे, लेकिन आराध्या को लगा — कहानी यूं ही खत्म नहीं हो सकती। वह मंच के पीछे गई। मनोज अपनी फाइलें समेट रहे थे। आराध्या कुछ पल चुपचाप देखती रही, फिर धीमे से कहा — “मनोज, एक बात कर सकती हूं?”
मनोज मुड़े — “जी मैडम, कहिए।” आराध्या को यह ‘मैडम’ एक दीवार की तरह लगा, जिसे वह तोड़ना चाहती थी। “मनोज, मैंने… मैं गलत थी।” उसकी आवाज टूट गई। मनोज कुछ पल चुप रहे — “गलतियां इंसान से ही होती हैं, मैडम। मैंने कभी किसी को दोष नहीं दिया।”
आराध्या की आंखें भर आईं — “मनोज, मैंने तुम्हें मनहूस कहा, तुम्हें छोड़ दिया, और तुमने कभी गुस्सा तक नहीं किया।” मनोज ने मुस्कुरा दिया — “असफलता किसी को भी कड़वा बना सकती है। आप उस समय बहुत टूट चुकी थीं। मैं कैसे आप पर गुस्सा हो सकता था?”
आराध्या फफक पड़ी — “तुम्हें तो मुझसे नफरत होनी चाहिए थी।” मनोज ने सिर हिलाया — “नफरत बहुत भारी बोझ होता है, आराध्या। और मैं इतना मजबूत कभी था ही नहीं कि नफरत उठा सकूं। मैंने बस जिंदगी को आगे बढ़ जाने दिया।”
यह पहली बार था जब उसने ‘मैडम’ नहीं कहा — उसने ‘आराध्या’ कहा, और यह शब्द उसकी टूटती आत्मा को थोड़ी राहत दे गया।
अध्याय 9: नई शुरुआत
आराध्या ने धीमी आवाज में कहा — “क्या हमारे बीच कुछ भी नहीं बचा?” मनोज ने गहरी सांस ली — “कुछ भी नहीं यह कहना ठीक नहीं होगा। हम दोनों के बीच एक समय था, प्यार था, सपने थे। लेकिन अब जिंदगी हमें अलग राहों पर ले आई है। आप आईएएस हैं, आपकी दुनिया बड़ी है। मैं एक शिक्षक हूं, मेरी दुनिया सरल है।”
आराध्या को महसूस हुआ — सफलता ने उसे ऊंचाई दी, लेकिन ऊंचाई ने उससे बहुत कुछ छीन लिया। मनोज ने कहा — “आराध्या, मैं आपको दिल से कहना चाहता हूं — आप बहुत आगे बढ़ चुकी हैं, आपकी जिम्मेदारियां बढ़ी हैं। मैं नहीं चाहता कि मेरा अतीत आपकी आज की दुनिया पर बोझ बने।”
इसके बाद मनोज ने धीरे से कदम पीछे किया — सम्मान के साथ, दूरी के साथ, लेकिन बिना किसी शिकायत के — “आपका भविष्य सुंदर है, उसे जिएं। मैं अपनी दुनिया में खुश हूं।”
मनोज वहां से चले गए। आराध्या उन्हें जाते हुए देखती रह गई — पैरों में जान नहीं, आंखें धुंधली, आत्मा भारी। “मनोज, मैंने तुम्हें खो दिया।” उसका दिल चिल्ला रहा था — “ठहरो,” लेकिन होठों से आवाज नहीं निकली। कभी-कभी जिंदगी में कुछ रिश्ते वापस नहीं आते, वे बस दिल में एक कोमल जगह छोड़ जाते हैं।
अध्याय 10: दूसरा मौका
उस रात आराध्या सोई नहीं, करवटें बदलती रही। सुबह होते ही उसने फैसला लिया — वह मनोज से आखिरी बार दिल खोलकर बात करेगी, ना आईएएस की तरह, ना अफसर की तरह, बस एक इंसान की तरह, एक पत्नी की तरह। लेकिन किस्मत किसी की बात कब मानती है?
अगली सुबह ऑफिस पहुंचते ही उसे पता चला — मनोज को एक दूरदराज गांव में अस्थायी रूप से ट्रांसफर कर दिया गया है, वही इलाका जहां शिक्षक नहीं जाते थे। कारण — वहां की शिक्षा व्यवस्था को सुधारना। किसी ने कहा — “यह सम्मान है,” किसी ने कहा — “सजा है।” लेकिन आराध्या जानती थी — यह पोस्टिंग उसे तोड़ देगी।
उसने गाड़ी निकाली, मनोज के घर पहुंची — दरवाजा आधा खुला, सामान बंधा हुआ, कपड़े पुराने बैग में, दीवार पर बच्चों के बनाए चित्र — “सर, आप जहां जाएंगे, हमारा प्यार साथ जाएगा।” उसे देखते ही आराध्या की आंखें भर आईं।
मनोज कमरे के बीचोंबीच खड़े थे — “मनोज, तुम जा रहे हो?” मनोज ने देखा — “हां, आराध्या, आदेश है, कर्तव्य निभाना है।” उसकी आंखों में अपने लिए वही प्यार ढूंढ रही थी, जो कभी हुआ करता था, लेकिन वहां सिर्फ कर्तव्य था।
“मनोज, मैं तुमसे बात करना चाहती हूं।” “कहिए।” “मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती। तुम मेरे लिए सिर्फ अतीत नहीं, मेरी जिंदगी हो। मैंने गलतियां की, बहुत की, लेकिन अब मैं उनसे भागना नहीं चाहती।”
मनोज चुप रहा। आराध्या उसके पास आई — पहली बार आईएएस का अहंकार उसके पैरों में टूट गया। “मनोज, मैं तुमसे माफी मांग रही हूं, सच में दिल से। तुम मेरे लिए मनहूस नहीं थे, तुम मेरी जिंदगी का सबसे अच्छा हिस्सा थे।”
मनोज की आंखें भर आईं, लेकिन उसने खुद को संभाला — “आरू, मैं तुम्हारी माफी को ठुकरा नहीं सकता। माफी कोई बोझ नहीं, राहत होती है। लेकिन जिंदगी अब बहुत आगे निकल चुकी है। मैं नहीं चाहता कि मेरा वापस आना तुम्हारे निर्णयों को उलझा दे।”
आराध्या ने मनोज का हाथ पकड़ लिया — “उलझन मेरे भीतर थी, तुम्हें नहीं। तुम तो हमेशा मेरे साथ थे। कृपया मुझे एक मौका दो, ताकि मैं अपनी गलतियों को सुधार सकूं।”
मनोज ने उसकी ओर देखा — तीन साल की दूरी उसकी आंखों में भर आई। वह भी कमजोर पड़ रहा था, लेकिन डर भी था — क्या यह रिश्ता फिर टूटेगा?
कुछ पल बाद उसने कहा — “आरू, तुम आईएएस हो, तुम्हारी दुनिया बड़ी है। मैं एक शिक्षक हूं, मेरी दुनिया बहुत सरल है।” आराध्या ने उसके हाथ और कसकर थाम लिए — “तो फिर मिलकर एक नई दुनिया बनाते हैं, मनोज। सरल भी, सुंदर भी, सच्ची भी।”
अध्याय 11: सच्चे प्यार की जीत
उसी समय बाहर से एक बच्चा दौड़ता हुआ आया — “सर, ट्रांसफर कैंसिल हो गया। ऊपर से नया आदेश आया है, आपको यहीं रहना है।” मनोज चौका — “क्या? लेकिन क्यों?” बच्चा हंसते हुए बोला — “कहते हैं, मनोज सर जैसे शिक्षक मिलना मुश्किल है, उन्हें दूर नहीं भेजा जाएगा।”
मनोज ने कागज लिया, आराध्या ने भी पढ़ा — “शिक्षण कार्य में उत्कृष्ट योगदान के कारण श्री मनोज कुमार का तबादला स्थगित किया जाता है।”
मनोज ने आराध्या की ओर देखा — उसकी आंखों में अब डर नहीं था, बस एक गहरा अपनापन था। “तुमने किया है ना?” आराध्या मुस्कुराई — “नहीं मनोज, तुम्हारी अच्छाई ने किया है। मैंने सिर्फ सच को उसकी सही जगह दिलवाई है।”
मनोज के चेहरे पर पहली बार तीन साल बाद असली मुस्कान आई। “मनोज, क्या हम फिर से एक शुरुआत कर सकते हैं?” इस बार मनोज ने ‘मैडम’ नहीं कहा — उसने आराध्या का हाथ थाम लिया — “हां आरू, हम एक नई शुरुआत करेंगे। इस बार डर नहीं होगा, गलतफहमी नहीं होगी, दूरी नहीं होगी।”
कुछ महीनों बाद दोनों की दोबारा शादी हुई — बहुत सरल, बहुत सादगी भरी, लेकिन बेहद खूबसूरत। आईएएस दफ्तर के लोग आए, स्कूल के बच्चे आए, गांव की महिलाएं आईं। हर कोई खुश था कि सच्चे प्यार ने एक लंबी लड़ाई के बाद अपना घर फिर से पा लिया।
एक साल बाद उनके घर एक बेटी हुई। मनोज उसे गोद में लेकर कहता — “तुम्हारी मां आईएएस है, लेकिन तुम्हारे पिता बस एक शिक्षक नहीं, तुम दोनों का पहला विद्यार्थी भी है।” आराध्या हंसकर कहती — “मेरी दोनों दुनिया तुम और हमारी बेटी, अब मेरे सपनों से भी ज्यादा सुंदर है।”
आज मनोज फिर से बच्चों को पढ़ाता है, आराध्या जिले को संभालती है और शाम को दोनों अपनी नन्ही बेटी के साथ छत पर बैठकर चाय पीते हैं।
अंतिम संदेश
किस्मत ने उन्हें दूर कर दिया था, लेकिन सच्चे प्यार ने फिर उन्हें मिला दिया। इस बार उनकी दुनिया टूटने वाली नहीं थी, क्योंकि दोनों ने सीख लिया था — अहंकार रिश्तों को तोड़ता है, लेकिन सादगी और समझ उन्हें जोड़ देती है।
दोस्तों, रिश्ते टूटते नहीं। हमारे अहंकार से बिखर जाते हैं। अगर दिल साफ हो तो दूसरा मौका नई जिंदगी दे जाता है। क्या आपको लगता है टूटे रिश्तों को दूसरा मौका देना चाहिए या दूरी ही सही है? कमेंट करके जरूर बताएं।
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जय हिंद, जय भारत।
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