टीटी ने बिना बूढ़े यात्री का टिकट खुद दिया और सीट दी , कुछ साल बाद एक चिट्ठी आयी उसने सब कुछ बदल दिया
अशोक – एक टिकट चेकर की दिल छू लेने वाली कहानी
लखनऊ का चारबाग स्टेशन, जहां हर दिन हजारों यात्री आते-जाते हैं। इसी भीड़ में एक साधारण सा इंसान था – अशोक। रेलवे में टीटी, उम्र 35 साल, नीली वर्दी में हर रोज ट्रेनों में टिकट चेक करता, यात्रियों की समस्याएँ सुलझाता और उनकी मदद करता। उसके चेहरे पर ड्यूटी की थकान थी, लेकिन आँखों में हमेशा मदद की चमक रहती थी।
अशोक का सपना
अशोक का परिवार लखनऊ के बाहरी इलाके आलमबाग में एक छोटे से घर में रहता था। उसकी पत्नी सरिता एक स्कूल में चपरासी थी, और उनका 10 साल का बेटा रोहन पढ़ाई में बहुत तेज था। अशोक का सपना था कि रोहन एक दिन बड़ा अफसर बने और वह अपने गाँव बाराबंकी में गरीब बच्चों के लिए एक स्कूल खोले। मगर उसकी तनख्वाह इतनी कम थी कि रोहन की फीस और घर का खर्च मुश्किल से पूरा होता था। फिर भी अशोक हमेशा कहता, “जब तक मेरे पास मेहनत है, मेरे रोहन का भविष्य सुनहरा होगा।”
एक रात, एक अनजान यात्री
जुलाई की एक उमस भरी रात थी। लखनऊ-दिल्ली एक्सप्रेस चारबाग स्टेशन से रवाना होने वाली थी। ट्रेन में भीड़ थी, हर डिब्बे में यात्रियों की धक्कामुक्की चल रही थी। अशोक अपनी ड्यूटी पर था और स्लीपर कोच में टिकट चेक कर रहा था। तभी उसकी नजर एक डिब्बे में बर्थ के पास खड़े एक यात्री पर पड़ी, जिसकी उम्र लगभग 50 साल थी। उसके कपड़े साधारण थे, चेहरा थकान से भरा था, और वह पसीने से तर था।
अशोक ने मुस्कुराकर उससे टिकट मांगा। यात्री ने सिर झुकाया, “साहब, मेरे पास टिकट नहीं है। मुझे दिल्ली जाना बहुत जरूरी है। मेरी बेटी दिल्ली के अस्पताल में है। मेरे पास पैसे नहीं थे टिकट लेने के लिए।” अशोक ने उसकी आंखों में गहरी बेचैनी देखी। उसने अपनी जेब में हाथ डाला, जहाँ रोहन की फीस के पैसे रखे थे। लेकिन सुरेंद्र की हालत देखकर अशोक ने अपनी सीट उसे दे दी, अपने पैसे से उसका टिकट बनवाया, पानी की बोतल और कुछ बिस्किट दिए।
सुरेंद्र की आँखें नम हो गईं, “साहब, मैं आपका एहसान कभी नहीं भूलूँगा। मेरा पता नोट कर लीजिए, मैं आपके पैसे जरूर लौटाऊँगा।” अशोक ने हँसकर कहा, “कोई बात नहीं सुरेंद्र जी, आप अपनी बेटी के पास पहुँचो, यही मेरे लिए काफी है।”
अशोक की रात और परिवार की चिंता
अशोक रात भर डिब्बे में खड़ा रहा, मगर उसके मन में सुकून था। घर पहुँचकर उसने सरिता को सब बताया। सरिता ने चिंता जताई, “अब रोहन की फीस के लिए क्या करेंगे?” अशोक ने मुस्कराकर कहा, “भगवान ने देखा है, वह सब ठीक करेगा।” रोहन ने उत्सुकता से पूछा, “पापा, वो अंकल की बेटी ठीक हो जाएगी ना?” अशोक ने उसका माथा चूमा, “हाँ बेटा, अब वो अपने पापा के पास है।”
महीनों बाद – एक रहस्यमयी चिट्ठी
महीनों बीत गए। अशोक अपनी ड्यूटी में व्यस्त हो गया। उसने सुरेंद्र के पते को अपनी डायरी में रख दिया और भूल गया। एक दिन अक्टूबर की दोपहर में रेलवे स्टेशन के डाकघर से एक चिट्ठी आई, जिस पर अशोक का नाम था। अशोक ने हैरानी से चिट्ठी खोली। उसमें लिखा था:
“प्रिय अशोक, मैं सुरेंद्र सिंह हूँ। तुमने उस रात मेरी जिंदगी बदल दी थी। मेरी बेटी निशा दिल्ली के अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रही थी। तुम्हारी मदद से मैं समय पर उसके पास पहुँच गया। आज वह ठीक है और मेरे साथ घर पर है। मगर मेरी कहानी यहीं खत्म नहीं होती। मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ। कृपया मेरे घर आओ। मेरा पता वही है जो मैंने तुम्हें दिया था। तुम्हारा इंतजार रहेगा।”
सुरेंद्र
चिट्ठी के साथ एक छोटा सा लिफाफा था जिसमें वही राशि थी जो अशोक ने सुरेंद्र के टिकट के लिए दी थी। अशोक का मन बेचैन हो गया। वह सोचने लगा, सुरेंद्र उससे क्यों मिलना चाहता है? उसने चिट्ठी अपनी जेब में रखी और ड्यूटी पर लौट गया। उस शाम घर पहुँचकर उसने सरिता और रोहन को चिट्ठी दिखाई। सरिता ने कहा, “तूने जो किया उसका फल मिल रहा है। तुझे सुरेंद्र जी से मिलने जाना चाहिए।” रोहन ने उत्साह से कहा, “पापा, मैं भी चलूँगा।”
सुरेंद्र से मुलाकात – सच्चाई का खुलासा
अगले रविवार अशोक अपनी पुरानी साइकिल पर रोहन को बिठाकर सुरेंद्र के पते पर पहुँचा। पता लखनऊ के गोमती नगर में एक साधारण मोहल्ले का था। वहाँ एक छोटा सा मकान था, जिसके बाहर एक बगीचा था। दरवाजा खटखटाने पर एक अधेड़ उम्र की औरत ने दरवाजा खोला। उसने मुस्कराकर कहा, “आप अशोक जी हैं ना? आइए, पिताजी आपका इंतजार कर रहे हैं।” अशोक ने हैरानी से पूछा, “पिताजी?” औरत ने हँसकर कहा, “हाँ, मैं निशा हूँ। सुरेंद्र जी की बेटी।”
अशोक और रोहन अंदर गए। वहाँ सुरेंद्र एक कुर्सी पर बैठे थे। उनका चेहरा अब पहले से शांत था, मगर आँखों में एक गहरा भाव था। उन्होंने अशोक को देखते ही उसे गले लगा लिया।
“अशोक, तू आ गया। मैं तेरा इंतजार कर रहा था।”
अशोक ने सिर झुकाया, “सुरेंद्र जी, आपकी बेटी ठीक है, यह मेरे लिए सबसे बड़ा इनाम है।”
सुरेंद्र ने निशा की ओर देखा, “बेटी, इसे सारी बात बता।”
निशा ने शुरू किया, “अशोक जी, मेरे पिताजी एक स्कूल टीचर थे। मगर 5 साल पहले मेरी बीमारी ने हमें तोड़ दिया। मेरा इलाज बहुत महंगा था और पिताजी ने अपनी सारी जमा पूँजी बेच दी। फिर भी जब मैं दिल्ली के अस्पताल में थी, हमारे पास कुछ नहीं बचा था। पिताजी बिना टिकट ट्रेन में चढ़े क्योंकि मेरे पास पहुँचना उनकी आखिरी उम्मीद थी।”
अशोक की आँखें नम हो गईं, “निशा जी, मुझे नहीं पता था…”
निशा ने आगे कहा, “आपकी मदद से पिताजी मेरे पास पहुँचे। उस रात मेरी सर्जरी होनी थी। अगर वह वहाँ ना होते तो शायद मैं हिम्मत हार जाती। आपने मेरे नहीं, हमारे पूरे परिवार की जान बचाई।”
सुरेंद्र बोले, “अशोक, मैंने तेरे बारे में पूछा। मुझे पता चला कि तू अपने बेटे की पढ़ाई और गाँव में स्कूल खोलने के लिए मेहनत करता है। मैं चाहता हूँ कि तेरा सपना पूरा हो।”
अशोक ने हैरानी से पूछा, “सुरेंद्र जी, मेरा सपना?”
निशा मुस्कराकर बोली, “अशोक जी, मैं अब एक एनजीओ चलाती हूँ जो गाँवों में स्कूल बनाता है। हम बाराबंकी में एक स्कूल खोल रहे हैं और तू उसका प्रभारी होगा।”
अशोक की साँस रुक गई, “निशा जी, मैं तो बस एक टीटी हूँ। मैं यह कैसे करूँगा?”
सुरेंद्र ने हँसकर कहा, “बेटा, तुझ में वह दिल है जो दूसरों की जिंदगी बदल सकता है। और एक बात, मैं तेरे बेटे रोहन की पढ़ाई का सारा खर्च उठाऊँगा।”
रोहन ने उत्साह से कहा, “पापा, अब मैं बहुत पढ़ूँगा!”
अशोक की आँखें भर आईं, उसने सुरेंद्र और निशा के पैर छूने की कोशिश की, मगर उन्होंने उसे रोक लिया। “अशोक, यह हमारा धन्यवाद है।”
माँ का वादा – एक और मोड़
निशा ने एक पुराना फोटो निकाला। उसमें एक बुजुर्ग औरत थी। “यह मेरी माँ थी। वो मेरी बीमारी के दौरान चल बसी। मगर उन्होंने मुझसे वादा लिया था कि मैं किसी की मदद करूँ। जब पिताजी ने मुझे तेरी कहानी बताई तो मुझे लगा कि माँ का वादा पूरा करने का मौका मिला।”
सुरेंद्र बोले, “अशोक, मेरी पत्नी ने बाराबंकी में एक छोटी सी जमीन छोड़ी थी। मैं चाहता हूँ कि तू उस पर स्कूल बनाए। वह जमीन अब तेरे नाम है।”
अशोक का गला भर आया, “सुरेंद्र जी, यह मैं नहीं ले सकता।”
निशा ने हँसकर कहा, “अशोक जी, यह माँ का आशीर्वाद है। तू इसे ठुकरा नहीं सकता।”
अशोक ने सिर हिलाया, “मैं आप सबका जिंदगी भर एहसानमंद रहूँगा।”
सपनों की उड़ान – स्कूल की शुरुआत
अगले कुछ महीनों में अशोक ने निशा के एनजीओ में काम शुरू किया। उसने बाराबंकी में जमीन पर एक स्कूल बनवाया, जिसका नाम रखा गया ‘निशा की रोशनी’। स्कूल में सैकड़ों बच्चे मुफ्त पढ़ने लगे। रोहन अब शहर के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ता था और सरिता ने अपनी नौकरी छोड़कर स्कूल में बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। अशोक अब भी रेलवे में ड्यूटी करता, मगर उसका सपना सच हो चुका था।
सम्मान और नई पहचान
एक दिन निशा ने स्कूल के उद्घाटन समारोह में अशोक को मंच पर बुलाया। वहाँ लखनऊ के बड़े लोग थे। निशा ने कहा, “यह अशोक हैं, जिन्होंने एक अनजान यात्री को सीट दी और आज सैकड़ों बच्चों को नया भविष्य दे रहे हैं।”
अशोक ने माइक पकड़ा, “मैंने सिर्फ एक यात्री की मदद की थी। मगर आप सब ने मुझे इतना प्यार दिया। यह मेरी नहीं, मेरे रोहन और उन बच्चों की जीत है।”
सुरेंद्र ने अशोक को गले लगाया, “बेटा, तूने मुझे मेरी बेटी दी। मैं तेरा शुक्रगुजार हूँ।”
अशोक की नेकी ने ना सिर्फ उसका सपना पूरा किया बल्कि सुरेंद्र और निशा के टूटे हुए परिवार को जोड़ा। रोहन अब इंजीनियरिंग की पढ़ाई की ओर बढ़ रहा था और अशोक का स्कूल बाराबंकी की शान बन गया।
नेकी का सिलसिला – एक और रात
एक रात जब अशोक लखनऊ-दिल्ली एक्सप्रेस में ड्यूटी पर था, एक बूढ़ा यात्री बिना टिकट के डिब्बे में बैठा था। उसने अशोक से कहा, “साहब, मेरे पास टिकट नहीं है। मुझे मेरे बेटे के पास जाना है।”
अशोक ने मुस्कुराकर अपनी सीट उसे दी, “बाबा, आप बैठ जाइए, मैं टिकट बनवा दूंगा।”
बूढ़े ने उसे गले लगाया, “बेटा, तेरा दिल सोने का है।”
अशोक ने हँसकर कहा, “बस बाबा, आप अपने बेटे से मिल जाओ, यही मेरे लिए काफी है।”
कहानी की सीख
यह कहानी हमें सिखाती है कि एक छोटी सी नेकी, एक सीट का त्याग, किसी की पूरी जिंदगी बदल सकता है। अशोक ने सिर्फ एक यात्री को सीट दी, मगर उसकी वह नेकी लखनऊ की रेलवे लाइनों से होते हुए सैकड़ों बच्चों के सपनों तक पहुँच गई।
नेकी का फल जरूर मिलता है। जब आप किसी की मदद करते हैं, तो भगवान आपके लिए भी रास्ता खोलता है।
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कर भला, तो हो भला।
छोटी-छोटी नेकी, बड़ी खुशियाँ लाती हैं।
अशोक की कहानी हर उस इंसान के लिए है, जो दिल से दूसरों की मदद करना चाहता है।
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