टीटी ने बिना बूढ़े यात्री का टिकट खुद दिया और सीट दी , कुछ साल बाद एक चिट्ठी आयी उसने सब कुछ बदल दिया

एक टिकट, एक नेकी – लखनऊ के टीटी अशोक की कहानी

लखनऊ की नवाबी गलियों और रेलवे स्टेशन की हलचल के बीच, जहां अवधी खाने की खुशबू और तहजीब की मिठास हर कोने में बसी थी, वहीं एक साधारण रेलवे टीटी अपनी ड्यूटी और जिम्मेदारियों के बीच जिंदगी जी रहा था। उसका नाम था अशोक
अशोक का दिल हमेशा यात्रियों की मदद के लिए धड़कता था। दिन-रात ट्रेनों में टिकट चेक करता, उनकी समस्याएं सुलझाता। उसका सपना था अपने बेटे को अच्छी शिक्षा देना और अपने गांव बाराबंकी में एक छोटा सा स्कूल खोलना, ताकि गरीब बच्चे भी पढ़ सकें।

अशोक का परिवार लखनऊ के बाहरी इलाके आलमबाग में एक छोटे से घर में रहता था। पत्नी सरिता एक स्कूल में चपरासी थी, और उनका 10 साल का बेटा रोहन पढ़ाई में अच्छा था।
अशोक की तनख्वाह इतनी कम थी कि रोहन की फीस और घर का खर्च मुश्किल से पूरा होता।
फिर भी अशोक हमेशा कहता, “जब तक मेरे पास मेहनत है, मेरे रोहन का भविष्य सुनहरा होगा।”

एक रात की नेकी

जुलाई की एक उमस भरी रात थी। लखनऊ दिल्ली एक्सप्रेस चारबाग स्टेशन से रवाना होने वाली थी। ट्रेन में भीड़ थी, हर डिब्बे में यात्रियों की धक्कामुक्की।
अशोक अपनी ड्यूटी पर था, स्लीपर कोच में टिकट चेक कर रहा था।
वह एक डिब्बे में पहुंचा, जहां एक यात्री बर्थ के पास खड़ा था। उम्र लगभग पचास, कपड़े साधारण, चेहरा थकान से भरा, पसीने से तर।

अशोक ने सामान्य मुस्कान के साथ पूछा, “टिकट दिखाइए।”
यात्री ने सिर झुकाया, “साहब, मेरे पास टिकट नहीं है। मुझे दिल्ली जाना बहुत जरूरी है।”
अशोक ने गौर से देखा, उसकी आंखों में बेचैनी थी।

“बिना टिकट ट्रेन में चढ़ना गलत है। आपका नाम क्या है?”
“सुरेंद्र सिंह,” उसने धीरे से कहा।
“साहब, मेरी बेटी दिल्ली के अस्पताल में है। मुझे उसके पास जाना है। मेरे पास पैसे नहीं थे टिकट लेने के लिए।”

अशोक का मन पसीज गया। उसने अपनी जेब में हाथ डाला।
उसकी तनख्वाह का आधा हिस्सा अभी बचा था, जो वह रोहन की फीस के लिए रख रहा था।
मगर सुरेंद्र की हालत देखकर वह रुक नहीं सका।

“ठीक है सुरेंद्र जी। आप मेरी सीट पर बैठ जाइए। मैं आपका टिकट बनवा दूंगा।”
सुरेंद्र की आंखें चौड़ी हो गईं।
“साहब, आप अपनी सीट मुझे दे रहे हैं?”
अशोक ने मुस्कुराकर कहा, “कोई बात नहीं, आपकी बेटी आपका इंतजार कर रही होगी। आप बस वहां पहुंच जाइए।”

अशोक ने अपनी सीट सुरेंद्र को दी, उसका टिकट अपने पैसे से बनवाया, पानी की बोतल और कुछ बिस्किट दिए।
“यह रख लीजिए, रास्ता लंबा है।”
सुरेंद्र की आंखें नम हो गईं।
“साहब, मैं आपका एहसान कभी नहीं भूलूंगा। मेरा पता नोट कर लीजिए, मैं आपके पैसे जरूर लौटाऊंगा।”

अशोक ने हंसकर कहा, “कोई बात नहीं सुरेंद्र जी, आप अपनी बेटी के पास पहुंचो, यही मेरे लिए काफी है।”
सुरेंद्र ने एक कागज पर अपना पता लिखकर अशोक को दिया और उसे गले लगा लिया।
ट्रेन दिल्ली पहुंची, सुरेंद्र उतर गया।
अशोक रात भर डिब्बे में खड़ा रहा, मगर उसका मन सुकून से भरा था।

घर पहुंचकर उसने सरिता को सारी बात बताई।
सरिता ने सांत्वना दी, “तूने अच्छा किया अशोक, मगर रोहन की फीस के लिए अब क्या करेंगे?”
अशोक ने हंसकर कहा, “भगवान ने देखा है, वह सब ठीक करेगा।”
रोहन ने उत्सुकता से पूछा, “पापा, वो अंकल की बेटी ठीक हो जाएगी ना?”
अशोक ने उसका माथा चूमा, “हां बेटा, अब वो अपने पापा के पास है।”

एक चिट्ठी का जादू

महीनों बीत गए। अशोक अपनी ड्यूटी में व्यस्त हो गया।
सुरेंद्र के पते को डायरी में रख दिया और भूल गया।
जिंदगी वहीं थी – ट्रेन, टिकट्स और रोहन के सपने।

एक दिन अक्टूबर की दोपहर, रेलवे स्टेशन के डाकघर से एक चिट्ठी आई।
उस पर अशोक का नाम था।
अशोक ने हैरानी से चिट्ठी खोली।
चिट्ठी में लिखा था:

“प्रिय अशोक, मैं सुरेंद्र सिंह हूं।
तुमने उस रात मेरी जिंदगी बदल दी थी।
मेरी बेटी निशा दिल्ली के अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रही थी। तुम्हारी मदद से मैं समय पर उसके पास पहुंच गया। आज वह ठीक है और मेरे साथ घर पर है। मगर मेरी कहानी यहीं खत्म नहीं होती। मैं तुमसे मिलना चाहता हूं। कृपया मेरे घर आओ। मेरा पता वही है जो मैंने तुम्हें दिया था। तुम्हारा इंतजार रहेगा।
सुरेंद्र”

चिट्ठी के साथ एक छोटा सा लिफाफा था, जिसमें वही राशि थी जो अशोक ने सुरेंद्र के टिकट के लिए दी थी।
अशोक का मन बेचैन हो गया।
सुरेंद्र की बेटी ठीक थी, यह सुनकर उसे सुकून मिला।
मगर वह उससे मिलना क्यों चाहता था?

अशोक ने चिट्ठी अपनी जेब में रखी और ड्यूटी पर लौट गया।
शाम को घर पहुंचकर उसने सरिता और रोहन को चिट्ठी दिखाई।
सरिता ने कहा, “अशोक, तूने जो किया उसका फल मिल रहा है। तुझे सुरेंद्र जी से मिलने जाना चाहिए।”
रोहन ने उत्साह से कहा, “पापा, मैं भी चलूंगा। मैं उस अंकल से मिलना चाहता हूं।”
अशोक ने हंसकर कहा, “ठीक है बेटा, हम अगले रविवार को जाएंगे।”

मुलाकात और एक नई शुरुआत

अगले रविवार, अशोक अपनी पुरानी साइकिल पर रोहन को बिठाकर सुरेंद्र के पते पर पहुंचा।
पता लखनऊ के गोमती नगर में एक साधारण मोहल्ले का था।
एक छोटा सा मकान, बाहर बगीचा।
दरवाजा खटखटाने पर एक अधेड़ उम्र की औरत ने दरवाजा खोला।
उसने अशोक को देखते ही मुस्कुराकर कहा, “आप अशोक जी हैं ना? आइए, पिताजी आपका इंतजार कर रहे हैं।”

अशोक ने हैरानी से पूछा, “पिताजी?”
औरत ने हंसकर कहा, “हां, मैं निशा हूं। सुरेंद्र जी की बेटी।”

अशोक और रोहन अंदर गए।
वहां सुरेंद्र एक कुर्सी पर बैठे थे।
चेहरा शांत, आंखों में गहरा भाव।
उन्होंने अशोक को देखते ही उसे गले लगा लिया।

“अशोक, तू आ गया। मैं तेरा इंतजार कर रहा था।”
अशोक ने सिर झुकाया, “सुरेंद्र जी, आपकी बेटी ठीक है, यह मेरे लिए सबसे बड़ा इनाम है।”

सुरेंद्र ने निशा की ओर देखा, “बेटी, इसे सारी बात बता।”
निशा ने शुरू किया, “अशोक जी, मेरे पिताजी एक स्कूल टीचर थे। मगर पांच साल पहले मेरी बीमारी ने हमें तोड़ दिया। इलाज बहुत महंगा था, पिताजी ने सारी जमा पूंजी बेच दी। फिर भी जब मैं दिल्ली के अस्पताल में थी, हमारे पास कुछ नहीं बचा था। पिताजी बिना टिकट ट्रेन में चढ़े, क्योंकि मेरे पास पहुंचना उनकी आखिरी उम्मीद थी।”

अशोक की आंखें नम हो गईं।
निशा ने आगे कहा, “आपकी मदद से पिताजी मेरे पास पहुंचे। उस रात मेरी सर्जरी होनी थी। अगर वह वहां ना होते, तो शायद मैं हिम्मत हार जाती। आपने मेरी नहीं, हमारे पूरे परिवार की जान बचाई।”

सुरेंद्र ने कहा, “अशोक, मैंने तेरे बारे में पूछा। मुझे पता चला कि तू अपने बेटे की पढ़ाई और गांव में स्कूल खोलने के लिए मेहनत करता है। मैं चाहता हूं कि तेरा सपना पूरा हो।”

अशोक ने हैरानी से पूछा, “सुरेंद्र जी, मेरा सपना?”
निशा ने मुस्कुराकर कहा, “अशोक जी, मैं अब एक एनजीओ चलाती हूं, जो गांवों में स्कूल बनाता है। हम चाहते हैं कि तू हमारे साथ काम करे। हम बाराबंकी में एक स्कूल खोल रहे हैं और तू उसका प्रभारी होगा।”

अशोक की सांस रुक गई।
“निशा जी, मैं तो बस एक टीटी हूं। मैं यह कैसे करूंगा?”
सुरेंद्र ने हंसकर कहा, “बेटा, तुझ में वह दिल है जो दूसरों की जिंदगी बदल सकता है। और एक बात – मैं तेरे बेटे रोहन की पढ़ाई का सारा खर्च उठाऊंगा।”

रोहन ने उत्साह से कहा, “पापा, अब मैं बहुत पढूंगा!”
अशोक की आंखें भर आईं।
उसने सुरेंद्र और निशा के पैर छूने की कोशिश की, मगर उन्होंने उसे रोक लिया।
“अशोक, यह हमारा धन्यवाद है। मगर एक और बात है।”

अशोक ने सावधानी से पूछा, “क्या?”
निशा ने एक पुराना फोटो निकाला, जिसमें एक बुजुर्ग औरत थी।
“यह मेरी मां थी। वो मेरी बीमारी के दौरान चल बसी। मगर उन्होंने मुझसे वादा लिया था कि मैं किसी की मदद करूं। जब पिताजी ने मुझे तेरी कहानी बताई, तो मुझे लगा कि मां का वादा पूरा करने का मौका मिला।”

सुरेंद्र ने कहा, “अशोक, मेरी पत्नी ने एक छोटी सी जमीन बाराबंकी में छोड़ी थी। मैं चाहता हूं कि तू उस पर स्कूल बनाए। वह जमीन अब तेरे नाम है।”

अशोक का गला भर आया।
“सुरेंद्र जी, यह… मैं नहीं ले सकता।”
निशा ने हंसकर कहा, “अशोक जी, यह मां का आशीर्वाद है। तू इसे ठुकरा नहीं सकता।”
अशोक ने सिर हिलाया, “मैं आप सबका जिंदगी भर एहसानमंद रहूंगा।”

सपनों की उड़ान

अगले कुछ महीनों में अशोक ने निशा के एनजीओ में काम शुरू किया।
उसने बाराबंकी में जमीन पर एक स्कूल बनवाया, जिसका नाम रखा गया – निशा की रोशनी
स्कूल में सैकड़ों बच्चे मुफ्त पढ़ने लगे।
रोहन अब शहर के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ता था।
सरिता ने अपनी नौकरी छोड़कर स्कूल में बच्चों को पढ़ाना शुरू किया।
अशोक अब भी रेलवे में ड्यूटी करता, मगर उसका सपना सच हो चुका था।

एक दिन निशा ने स्कूल के उद्घाटन समारोह में अशोक को मंच पर बुलाया।
वहां लखनऊ के बड़े लोग थे।
निशा ने कहा, “यह अशोक हैं, जिन्होंने एक अनजान यात्री को सीट दी और आज सैकड़ों बच्चों को नया भविष्य दे रहे हैं।”

अशोक ने माइक पकड़ा, “मैंने सिर्फ एक यात्री की मदद की थी। मगर आप सब ने मुझे इतना प्यार दिया। यह मेरी नहीं, मेरे रोहन और उन बच्चों की जीत है।”

सुरेंद्र ने अशोक को गले लगाया, “बेटा, तूने मुझे मेरी बेटी दी। मैं तेरा शुक्रगुजार हूं।”

अशोक की नेकी ने ना सिर्फ उसका सपना पूरा किया, बल्कि सुरेंद्र और निशा के टूटे हुए परिवार को जोड़ा।
रोहन अब इंजीनियरिंग की पढ़ाई की ओर बढ़ रहा था और अशोक का स्कूल बाराबंकी की शान बन गया।

नेकी का सिलसिला

एक रात जब अशोक लखनऊ दिल्ली एक्सप्रेस में ड्यूटी पर था, एक बूढ़ा यात्री बिना टिकट के डिब्बे में बैठा था।
उसने अशोक से कहा, “साहब, मेरे पास टिकट नहीं है। मुझे मेरे बेटे के पास जाना है।”
अशोक ने मुस्कुराकर अपनी सीट उसे दी, “बाबा, आप बैठ जाइए, मैं टिकट बनवा दूंगा।”
बूढ़े ने उसे गले लगाया, “बेटा, तेरा दिल सोने का है।”
अशोक ने हंसकर कहा, “बस बाबा, आप अपने बेटे से मिल जाओ, यही मेरे लिए काफी है।”

कहानी की सीख

यह कहानी हमें सिखाती है कि एक छोटी सी नेकी – एक सीट का त्याग, किसी की पूरी जिंदगी बदल सकता है।
अशोक ने सिर्फ एक यात्री को सीट दी, मगर उसकी वह नेकी लखनऊ की रेलवे लाइनों से होते हुए सैकड़ों बच्चों के सपनों तक पहुंच गई।

अगर आप भी मेरी तरह एक इमोशनल इंसान हैं, तो इस कहानी को लाइक करें, शेयर करें, और कमेंट्स में लिखें कि आप किस शहर से इसे पढ़ रहे हैं।
क्योंकि इंसानियत की खुशबू हर जगह फैलनी चाहिए।

समाप्त