टैक्सी वाले को सर्दी में गरीबों को कम्बल बांटते बिजनेस मैन ने देख लिया , फिर जो हुआ देख लोग दंग रह

टैक्सी ड्राइवर का कंबल और अरबपति का अहसास

भाग 1: सर्द रात का फ़रिश्ता

पंजाब के दिल अमृतसर की सर्द रातें हाड़ कंपा देने वाली थीं। दिसंबर के महीने में घना कोहरा छाया रहता था और पारा शून्य के क़रीब गोते लगा रहा था। इस सन्नाटे और ठंड को चीरती हुई एक पुरानी, पीले रंग की एंबेसडर टैक्सी शहर की गलियों में घूम रही थी। यह टैक्सी थी दिलेर सिंह की।

40 साल का दिलेर सिंह अपनी घनी दाढ़ी और नीली पगड़ी से पहचाना जाता था। वह पिछले 15 सालों से टैक्सी चला रहा था। दिलेर सिंह के लिए रात सिर्फ़ सवारियाँ ढूँढने का वक़्त नहीं थी, बल्कि उसके जीवन के सबसे बड़े मक़सद को पूरा करने का वक़्त थी: निस्वार्थ सेवा

वह दिन भर जो भी कमाता, उसका एक हिस्सा अलग निकाल कर रख देता। उसकी पत्नी हरप्रीत कौर उन पैसों से गर्म कंबल ख़रीदती और अपने हाथों से दाल-रोटी के पैकेट तैयार करती। और फिर, जब पूरा शहर सो जाता, तो दिलेर सिंह अपनी टैक्सी लेकर निकलता—उन लोगों को ढूँढने जिनका घर सड़क थी और बिस्तर ठंडी ज़मीन।

वह बड़ी ख़ामोशी से टैक्सी रोकता, सोए हुए बेसहारा इंसान के पास जाता और बड़ी नरमी से उसके ऊपर एक गर्म कंबल डाल देता। सिरहाने खाने का एक पैकेट रखता, और बिना कोई आवाज़ किए आगे बढ़ जाता। वह नहीं चाहता था कि किसी की नींद टूटे या किसी का स्वाभिमान घायल हो।

इस सेवा के पीछे एक गहरा दर्द छिपा था। सालों पहले, जब दिलेर सिंह ख़ुद ग़रीब था, उसने अपने छोटे भाई को ऐसी ही एक सर्द रात में सिर्फ़ एक कंबल न होने की वजह से निमोनिया से अपनी आँखों के सामने दम तोड़ते हुए देखा था। उस दिन उसने क़सम खाई थी कि वह अपनी ज़िंदगी में जब भी इस क़ाबिल होगा, किसी और को ठंड से मरने नहीं देगा।

भाग 2: बंद कार के शीशे के पीछे का गवाह

उस रात भी, दिलेर सिंह हॉल बाज़ार की सुनसान सड़कों से गुज़र रहा था। उसकी नज़र फुटपाथ पर सो रही एक बूढ़ी माँ पर पड़ी, जिसने ठंड से बचने के लिए अपने फटे शॉल में एक छोटे से बच्चे को लपेट रखा था। दिलेर का दिल भर आया। उसने टैक्सी रोकी, एक कंबल निकाला और सावधानी से उन दोनों के ऊपर डाल दिया।

वह यह सब कर ही रहा था कि सड़क की दूसरी तरफ़ एक आलीशान, काले रंग की मर्सेडीज़ आकर रुकी। गाड़ी के अंदर बैठा शख़्स यह सब देख रहा था—वह थे धर्मेंद्र सिंह

धर्मेंद्र सिंह 70 साल के एक बुजुर्ग, कनाडा के सबसे बड़े ट्रांसपोर्ट कारोबारी थे। उनका जन्म इसी अमृतसर में हुआ था, पर 40 साल पहले वह अपनी क़िस्मत आज़माने विदेश चले गए थे, जहाँ उन्होंने अरबों का साम्राज्य खड़ा कर लिया था।

वे सालों बाद भारत लौटे थे, पर किसी ख़ुशी में नहीं, बल्कि अपनी पुश्तैनी हवेली बेचकर अपने आख़िरी रिश्ते को तोड़ने। उनका दिल कड़वाहट से भरा हुआ था। उन्हें लगता था कि इस शहर में अब सिर्फ़ स्वार्थ और बनावटीपन बचा है।

जब उन्होंने दिलेर सिंह को उस बूढ़ी महिला पर कंबल डालते देखा, तो उन्हें पहले शक हुआ कि यह कोई दिखावा होगा। पर दिलेर सिंह के चेहरे पर कोई कैमरा नहीं था, कोई दिखावा नहीं था, सिर्फ़ एक गहरा सुकून और सेवा का भाव था।

धर्मेंद्र सिंह को कुछ अजीब लगा। उन्होंने अपने ड्राइवर से कहा, “उस टैक्सी का पीछा करो, पर दूरी बनाए रखना।”

अगले दो घंटों तक, धर्मेंद्र सिंह की मर्सेडीज़ उस पुरानी एंबेसडर के पीछे-पीछे चलती रही। उन्होंने अपनी आँखों से देखा कि कैसे दिलेर सिंह ने 10 अलग-अलग जगहों पर, रेलवे स्टेशन के बाहर और मंदिर की सीढ़ियों पर सो रहे बेसहारा लोगों को कंबल और खाना दिया।

धर्मेंद्र सिंह, जो ज़िंदगी भर नफ़े-नुक़सान का हिसाब लगाते आए थे, आज इस बेमिसाल सौदे को देखकर हैरान थे। “यह कैसा इंसान है जो अपनी मेहनत की कमाई को इस तरह ख़ामोशी से लुटा रहा है? इसे बदले में क्या मिलता है?”

उस रात, धर्मेंद्र सिंह अपने आलीशान, गर्म कमरे में सो नहीं पाए। उन्हें अपने पिता की कही बातें याद आ रही थीं: “पुत्तर, असली कमाई वह नहीं जो तिजोरी में रखी जाए। असली कमाई वह है जो किसी की दुआओं में शामिल हो जाए।” उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने ज़िंदगी भर सिर्फ़ दौलत कमाई है, दुआएँ नहीं।

भाग 3: दौलत नहीं, मक़सद

अगली सुबह, धर्मेंद्र सिंह ने दिलेर सिंह के बारे में पूरी जानकारी जुटाई। रिपोर्ट में उसके छोटे भाई की ठंड से हुई मौत का दर्दनाक क़िस्सा था। अब धर्मेंद्र सिंह समझ चुके थे कि यह दिखावा नहीं, बल्कि उसके अपने दर्द से निकली हुई इंसानियत की एक लौ थी।

धर्मेंद्र सिंह ने दिलेर को किसी बड़े ऑफिस में नहीं बुलाया। वह ख़ुद अगले दिन शाम को उस टैक्सी स्टैंड पर पहुँचे जहाँ दिलेर अपनी टैक्सी खड़ी करता था।

“सत श्री अकाल दिलेर सिंह जी,” धर्मेंद्र सिंह सीधे दिलेर के पास पहुँचे।

दिलेर ने घबराकर पूछा, “जी सत श्री अकाल, पर… पर मैंने आपको पहचाना नहीं?”

धर्मेंद्र सिंह मुस्कुराए, “मैं तुम्हें पिछले कई दिनों से देख रहा हूँ। ख़ासकर तुम्हारी रात की ड्यूटी को।”

दिलेर सिंह ने बड़ी ईमानदारी से अपने छोटे भाई की मौत का क़िस्सा उन्हें सुना दिया और कहा, “बाऊजी, मैं कोई बड़ा आदमी नहीं हूँ। बस यह कोशिश करता हूँ कि जो दर्द मैंने झेला है, वह किसी और को न झेलना पड़े।”

दिलेर की बातें सुनकर धर्मेंद्र सिंह की आँखें भर आईं। उन्होंने आगे बढ़कर दिलेर को गले से लगा लिया। उन्होंने अपनी जेब से एक बड़ी रकम का चेक निकाला और दिलेर की तरफ़ बढ़ाया।

दिलेर सिंह ने हाथ जोड़ दिए और पीछे हट गया। “बाऊजी माफ़ करना, पर मैं यह नहीं ले सकता। अगर मैंने पैसे लेकर यह काम किया, तो यह सेवा नहीं, सौदा हो जाएगा। और मैं अपने भाई की याद का सौदा नहीं कर सकता।”

दिलेर सिंह के इस जवाब ने धर्मेंद्र सिंह के दिल पर एक और गहरी चोट की। वह समझ गए कि इस इंसान की ईमानदारी और इसके स्वाभिमान को दौलत से ख़रीदा नहीं जा सकता। इसे इनाम देना है, तो कुछ ऐसा देना होगा जो इसके मक़सद को और भी बड़ा बना दे

भाग 4: वीर जी दा घर (अंतिम उपहार)

धर्मेंद्र सिंह ने एक बड़ा फ़ैसला किया। उन्होंने दिलेर से कहा, “ठीक है दिलेर। अगर तुम यह पैसे नहीं लेना चाहते, तो मत लो। पर क्या तुम मेरी एक मदद करोगे? मैं यहाँ अपनी एक पुरानी बड़ी-सी हवेली बेचने आया था, पर अब मेरा इरादा बदल गया है। मैं चाहता हूँ कि तुम कल सुबह मेरे साथ उस हवेली को देखने चलो।”

अगली सुबह, शहर के सबसे पॉश इलाक़े में एक विशाल हवेली के सामने धर्मेंद्र सिंह ने दिलेर से कहा, “दिलेर सिंह, मैं यह हवेली बेच नहीं रहा। मैं इसे तुम्हें दे रहा हूँ।”

यह सुनकर दिलेर सिंह के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।

“हाँ, तुम्हें। पर मेरी एक शर्त है। तुम इसे अपना घर नहीं बनाओगे। तुम इसे उन सब लोगों का घर बनाओगे जिनके पास अपना कोई घर नहीं है। दिलेर सिंह, तुम यहाँ इस हवेली में अमृतसर का सबसे बड़ा और सबसे आधुनिक रैन बसेरा (नाइट शेल्टर) शुरू करोगे।”

“इस रैन बसेरे का नाम होगा ‘वीर जी दा घर’—तुम्हारे छोटे भाई के नाम पर। मैं इसके लिए एक ट्रस्ट बनाऊँगा, इसमें अपनी ज़िंदगी की सारी कमाई लगा दूँगा। यहाँ गर्म बिस्तर, साफ़-सुथरे बाथरूम और तीनों वक़्त का गर्म लंगर होगा। पर इसे चलाओगे तुम। इस घर का प्रबंधक तुम होगे, क्योंकि इस काम को चलाने के लिए मैनेजर की नहीं, बल्कि तुम्हारे जैसे सेवा भाव वाले दिल की ज़रूरत है।”

दिलेर सिंह कुछ बोल नहीं पा रहा था। उसकी आँखों से सिर्फ़ आँसू बह रहे थे। उसने आगे बढ़कर धर्मेंद्र सिंह के पैर छू लिए। “बाऊजी, आपने तो… आपने तो मुझ जैसे मामूली इंसान को बादशाह बना दिया।”

धर्मेंद्र सिंह ने उसे गले से लगाकर कहा, “लायक़ तुम नहीं हो, तो और कौन है पुत्तर? आज तुमने मुझे मेरी ज़िंदगी की असली कमाई का मतलब समझा दिया है।”

उपसंहार

उस दिन के बाद अमृतसर शहर ने एक नया इतिहास बनते देखा। धर्मेंद्र सिंह ने सच में अपनी दौलत का एक बहुत बड़ा हिस्सा उस ट्रस्ट के नाम कर दिया। पुरानी वीरान हवेली कुछ ही महीनों में एक खूबसूरत और गर्मजोशी से भरे घर में तब्दील हो गई।

‘वीर जी दा घर’ का उद्घाटन हुआ। दिलेर सिंह, जो कल तक एक टैक्सी ड्राइवर था, आज उस शानदार रैन बसेरे का डायरेक्टर था। धर्मेंद्र सिंह ने भारत छोड़ने का अपना इरादा हमेशा के लिए बदल दिया। वह अब साल के 6 महीने अमृतसर में रहकर अपनी निगरानी में इस घर को चलाते। उन्हें अपनी ज़िंदगी का खोया हुआ मक़सद मिल गया था।

और दिलेर सिंह, वह आज भी कभी-कभी रात को अपनी पुरानी एंबेसडर टैक्सी निकालता और शहर की सड़कों पर निकल जाता। पर अब उसे कोई बेसहारा ठिठुरता हुआ नहीं मिलता था, क्योंकि उन सबका एक पक्का पता था: वीर जी दा घर

यह कहानी हमें सिखाती है कि सेवा का फल दौलत के रूप में नहीं, बल्कि किसी और की ज़िंदगी को बेहतर बनाने के मक़सद के रूप में मिलता है।

आपको दिलेर सिंह की कौन-सी बात सबसे ज़्यादा छू गई: उसकी निस्वार्थ सेवा, या चेक को ठुकराने का उसका स्वाभिमान?