ट्रेन छूट गई थी, स्टेशन पर अकेली थी वो, फिर लड़के ने जो किया, सबकी आंखें नम हो गईं |

टूटा हुआ भरोसा और एक अजनबी का सफर

अध्याय 1: छूट चुकी ट्रेन

स्टेशन की घड़ी अब 7:40 बजा चुकी थी। प्लेटफॉर्म 12 अब लगभग खाली हो गया था। रात धीरे-धीरे अपने अँधेरे को गहरा रही थी।

पूजा को बैठे हुए एक घंटा हो चुका था। वह अब भी उस एक पल को कोस रही थी, जब वह पानी लेने के लिए उतरी और वैशाली एक्सप्रेस ने बिना किसी देरी के सीटी बजा दी और निकल गई। उसकी आँखों में अब भी उस ट्रेन के पीछे भागने की हताशा थी। मोबाइल पूरी तरह बंद था क्योंकि चार्जर ट्रेन में छूट गया था, और सबसे बड़ी बात—उसका टिकट भी ट्रेन के डिब्बे में ही रह गया था।

जेब में सिर्फ़ ₹140 थे, जो किसी और शहर जाने के लिए काफ़ी नहीं थे। भूख से पेट ऐंठ रहा था, और नींद के कारण सिर भारी था। हर गुजरती नज़र में डर था, हर आवाज़ में अनजाना खतरा। वह बार-बार सोच रही थी, ‘काश कोई आकर पूछे कि मैं ठीक हूँ या नहीं।’ लेकिन मुंबई जैसे बड़े शहर के स्टेशन पर हर कोई अपनी तेज़ रफ़्तार में था। वह स्टेशन पर अकेली खड़ी थी, ना कोई अपना, ना कोई रास्ता।

और तभी एक आवाज़ आई, “एक्सक्यूज़ मी, आप ठीक हैं?”

उसने नज़र उठाई। एक लड़का खड़ा था। उम्र कोई 21-22 साल, पतला सा शरीर, कंधे पर एक छोटा बैग, हाथ में स्टेशन की चाय का कप।

“आप सुबह से यहीं बैठी हैं, मैं देख रहा हूँ। क्या हुआ?” वो धीरे से बोला।

पूजा थोड़ी सहमी, लेकिन फिर बोली, “वैशाली एक्सप्रेस छूट गई… और मेरा टिकट, मोबाइल, चार्जर सब ट्रेन में रह गया।”

अध्याय 2: अजनबी की सच्चाई

लड़के ने कुछ देर कुछ नहीं कहा। उसकी आँखों में निराशा की हल्की सी झलक थी, लेकिन आवाज़ में एक अजीब सी स्थिरता थी।

फिर वह बोला, “मैं आदित्य हूँ। दरभंगा जा रहा हूँ। पर मेरा भी इंटरव्यू था, छूट गया। जनरल डिब्बे का टिकट लिया है। अब घर लौट रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि आप मुझ पर पूरी तरह भरोसा नहीं करेंगी, पर… अगर भरोसा कर सको, तो चलो। मैं तुम्हें मंज़िल तक छोड़ देता हूँ। मैं कोई ग़लत इंसान नहीं हूँ। मैं बस इंसान हूँ।”

पूजा उसकी बात पर पूरी तरह भरोसा नहीं कर सकी। पर उसकी आँखों में सच्चाई थी, जो उसके टूटे हुए चेहरे पर साफ झलक रही थी।

“मैं टिकट ख़ुद ले लूँगी। बस किसी से बात करनी है।”

“तो चलिए, सबसे पहले आपका मोबाइल चार्ज करवा देते हैं। मैं जानता हूँ, प्लेटफ़ॉर्म आठ पर एक केबिन है जहाँ चार्जिंग पॉइंट होता है।”

पूजा कुछ पल चुप रही। फिर धीमे स्वर में बोली, “थैंक यू। कोई पहली बार बिना सवाल के मदद कर रहा है।”

दोनों प्लेटफॉर्म 8 की तरफ़ चल पड़े। दो अजनबी—एक मजबूरी से, दूसरा संवेदना से—एक साथ चलने लगे।

अध्याय 3: इंसानियत का स्टेशन

प्लेटफॉर्म आठ की तरफ़ चलते हुए, आदित्य ने ध्यान दिया कि पूजा बार-बार इधर-उधर देख रही थी। डर और घबराहट अब भी उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी।

“डरो मत। मैं कोई नुकसान नहीं पहुँचाऊँगा,” आदित्य ने हल्की मुस्कान के साथ कहा।

पूजा ने धीरे से सिर हिलाया। “डर तो अब आदत बन गया है। लड़कियों को हर अजनबी, अजनबी नहीं, खतरा लगता है।”

कुछ देर की चुप्पी के बाद दोनों चार्जिंग पॉइंट पर पहुँचे। आदित्य ने ख़ुद का चार्जर निकालकर पूजा को दिया। थोड़ी देर में फोन ऑन हो गया। पूजा ने माँ को कॉल किया। माँ ने शायद बहुत कुछ पूछा होगा, क्योंकि पूजा बार-बार सिर्फ़ यही कह रही थी, “मैं ठीक हूँ, मम्मी। सच में ठीक हूँ।”

फोन कटने के बाद आदित्य चुपचाप बगल में बैठ गया। पूजा ने पहली बार उसे ठीक से देखा। साधारण कपड़े, घिसा हुआ बैग, एक पुरानी घड़ी, लेकिन आँखों में साफ़ नीयत।

“तुमने कहा था तुम्हारा भी इंटरव्यू छूट गया?” पूजा ने पूछा। “हाँ, दिल्ली में क्लर्क की पोस्ट के लिए था। लेकिन जो ट्रेन मुझे लानी थी, वो लेट हो गई। इंटरव्यू सेंटर बंद हो चुका था।” “तो अब वापस जा रहे हो?” “हाँ। शायद एक साल और तैयारी करूँ। पापा कहते हैं, ‘बेटा, कभी गिरा तो उठाना मत भूलना।’ बस वही कर रहा हूँ।”

पूजा ने लंबी साँस ली और अचानक बोली, “मैंने कभी नहीं सोचा था कि इस शहर में कोई ऐसा भी मिल सकता है जो बिना किसी चाहत के मदद करे।” आदित्य मुस्कुराया। “शहर बड़ा हो या छोटा, इंसानियत का कोई स्टेशन नहीं होता। वह तो बस सही वक़्त पर रुकती है।”

“तुम्हारा टिकट जनरल का है ना?” पूजा की आँखें थोड़ी नम थीं। “हाँ, काफ़ी भीड़ होगी, लेकिन पहुँच जाएँगे।” “क्या मैं भी आ जाऊँ तुम्हारे साथ?”

“मैं तो यही कह रहा था! लेकिन तुम्हारी हिम्मत देखकर लगता है सफ़र आसान हो जाएगा।”

अध्याय 4: जनरल बोगी का सफर

शाम होने लगी थी। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर बिहार जाने वाली जनरल बोगियों में पहले से ही भीड़ ठसाठस भर चुकी थी।

“क्या हम इसमें बैठ पाएँगे?” पूजा ने संदेह से पूछा। “अगर बैठ नहीं पाए तो खड़े होकर चलेंगे। लेकिन घर तो पहुँचेंगे ना,” आदित्य ने आत्मविश्वास के साथ कहा।

ट्रेन का इंजन हॉर्न से सीटी बजाता है। दरवाज़े पर लड़कों की भीड़, हाथों में बोरियाँ, छोटे बच्चों को गोद में लिए महिलाएँ… सबकी आँखों में एक ही जद्दोजहद—जगह मिल जाए।

“तुम यहीं रुको। मैं पहले चढ़कर बैग और सीट संभालता हूँ,” आदित्य ने पूजा से कहा।

भीड़ को चीरते हुए आदित्य ट्रेन में घुस गया। दो मिनट बाद वह बाहर झाँककर बोला, “आ जाओ! मैंने एक कोना पकड़ लिया है। बैठने की नहीं, लेकिन टिकने की जगह है।”

पूजा किसी तरह चढ़ी। अंदर धुएँ, पसीने और गर्मी का घुटन भरा माहौल था। लेकिन आदित्य की मुस्कान वही थी। “बैग ऊपर रख दो और पानी पी लो।”

पूजा बैठ तो नहीं पाई, लेकिन खिड़की के पास खड़ी होकर बाहर देखने लगी। उसने पहली बार महसूस किया—यह ट्रेन सिर्फ़ लोहे की नहीं थी। यह तो इंसानों की कहानियों से भरी हुई थी। कोई किसान था, कोई मज़दूर, कोई माँ अपने बीमार बच्चे को इलाज से लेकर लौट रही थी। और अब, एक अजनबी लड़का और एक छूटी हुई लड़की, जो हालात से हार नहीं मान रहे थे।

“तुम बैठ जाओ,” पूजा ने कहा। “नहीं, लड़कियाँ पहले बैठती हैं। मेरी माँ यही सिखाती है।” फिर वह थोड़ा शरारत में बोला, “मैं आदत से मजबूर शरीफ़ हूँ।”

दोनों हँस पड़े।

अध्याय 5: विश्वास की नींद

रात के करीब 10:00 बज चुके थे। जनरल डिब्बे की लाइटें अब धीमी हो चुकी थीं। भीड़ थोड़ी कम थी। पूजा अब एक कोने में बैठी थी, ज़मीन पर अखबार बिछाकर, और उसके ठीक बगल में आदित्य। दोनों चुपचाप बैठे थे। ट्रेन की खिड़की से बाहर दूर-दूर तक अँधेरा था, लेकिन मन के अंदर कुछ-कुछ उजाला-सा था।

“तुम्हें कभी डर नहीं लगता? किसी अजनबी की मदद करने में?” पूजा ने पूछा। “डर तो लगता है। लेकिन जब सामने वाला भी डरा हो, तो हम दोनों मिलकर थोड़ा मज़बूत हो सकते हैं, ना?” उसने फिर पूछा, “और तुम? अगर मैं ग़लत होती तो?” पूजा ने लंबी साँस ली। “तो शायद तुम्हारा यह विश्वास टूट जाता। लेकिन शुक्र है, मैं ग़लत नहीं हूँ।”

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद, पूजा बोली, “बस, कभी-कभी लगता है जैसे दुनिया में सब अकेला ही छोड़ जाते हैं। लेकिन आज लग रहा है कि शायद सब बुरा नहीं है। जब ट्रेन छूटी थी, तो एक पल के लिए लगा कि अब ख़त्म हो गया सब। लेकिन फिर तुम मिल गए और अब लग रहा है जैसे किसी ने फिर से मेरा हाथ थामा हो।”

“मैं कोई मसीहा नहीं हूँ पूजा। मैं तो ख़ुद टूटा हुआ इंसान हूँ। पर शायद टूटे हुए लोग ही एक-दूसरे को जोड़ना जानते हैं।”

“कभी कोई सपना है?” पूजा ने धीरे से पूछा। “हाँ,” आदित्य बोला, “एक दिन ऐसा स्कूल खोलूँ जहाँ गाँव के हर बच्चे को पढ़ने का मौक़ा मिले, बिना फ़ीस, बिना भेदभाव के।” “और तुम्हारा?” “बस, माँ को हर महीने दवा लाकर दे सकूँ और भाइयों को स्कूल छोड़ने न दूँ।”

ट्रेन चलती रही और जनरल बोगी में उस रात दो थके हुए मुसाफ़िरों ने एक-दूसरे के विश्वास के सहारे सबसे सुकून भरी नींद ली।

अध्याय 6: सिक्का और अलविदा

सुबह के करीब 5:15 बज रहे थे। ट्रेन अब समस्तीपुर स्टेशन पार कर चुकी थी और दरभंगा पहुँचने में बस कुछ घंटे बाकी थे।

“तुम सोए नहीं?” पूजा की आँख खुली। उसने देखा, आदित्य अब भी जाग रहा था। “नहीं। नींद आ नहीं रही थी। बस सोच रहा था कि यह सफ़र जब ख़त्म होगा, तो यह साद भी वहीं रुक जाएगा या…”

“तुम्हारा स्टेशन कौन सा है?” पूजा ने पूछा। “दरभंगा से एक स्टेशन पहले। लेकिन मैं तुम्हारे स्टेशन तक जाऊँगा।” “क्यों?” “क्योंकि इस सफ़र को बीच में छोड़ना ठीक नहीं लगता।”

कुछ ही देर में ट्रेन दरभंगा पहुँच गई। स्टेशन पर उतरते हुए पूजा ने अपने पर्स से कुछ निकाला। एक पुराना सिक्का, जिसे वह अपने पापा की याद में हमेशा साथ रखती थी। “यह मैं हमेशा किसी ख़ास को देना चाहती थी। जो बिना मतलब के मेरी मदद करे। अब समझ नहीं आ रहा, दूँ या नहीं।”

आदित्य ने मुस्कुराते हुए कहा, “रख लो। ताकि जब कभी तुम ख़ुद किसी मजबूर की मदद करो, तो यह तुम्हें याद दिलाए कि एक दिन तुम भी किसी की मदद से संभली थी।”

दोनों स्टेशन से बाहर निकले। माँ, छोटे भाई और एक पुरानी साइकिल पर खड़ा उनका पड़ोसी इंतजार कर रहे थे।

“यह कौन है?” माँ ने आदित्य की तरफ़ इशारा करके पूछा। पूजा ने मुस्कुराकर कहा, “एक मुसाफ़िर, जिसने मेरी मंज़िल से पहले मुझे ख़ुद से जोड़ दिया।” आदित्य हाथ जोड़कर मुस्कुराया। “अब चलूँ? शायद मेरी ट्रेन लौटने वाली है।” वह विदा हो गया, और पूजा ने देखा—उसकी आँखों में वही सच्चाई थी, जिससे इस पूरी कहानी की शुरुआत हुई थी।

अध्याय 7: एक साल बाद की चिट्ठी

एक साल बीत चुका था। दरभंगा के एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में अब एक नई नियुक्त नर्स काम कर रही थी—पूजा। उसके जीवन में बहुत कुछ बदल चुका था। माँ की दवाइयाँ समय पर आती थीं, और छोटे भाई स्कूल जाने लगे थे।

पर एक चीज़ नहीं बदली थी—वह पुराना सिक्का, जो पूजा अब भी अपने पर्स में संभाल कर रखती थी।

और फिर एक दिन पोस्टमैन दरवाज़े पर आया। “पूजा कुमारी? हाँ?” “तुम्हारे नाम एक चिट्ठी आई है।”

काँपते हाथों से चिट्ठी खोली।

प्रिय पूजा,

याद है उस दिन जब तुम्हारी ट्रेन छूटी थी और हमने जनरल कोच में साथ सफ़र किया था? मैं नहीं जानता कि वह सिर्फ़ एक संयोग था या कुछ ख़ास। लेकिन उस दिन के बाद मेरी ज़िंदगी भी बदली।

मैंने उसी साल फिर से परीक्षा दी और इस बार मेरी क्लर्क की नौकरी लग गई। माँ बहुत ख़ुश है। और अब मैं भी उन लोगों की मदद करता हूँ जिन्हें स्टेशन पर कोई नहीं पूछता। हर बार जब किसी की आँखों में डर देखता हूँ, तो तुम्हारी याद आ जाती है।

तुमसे विदा लेते वक़्त कुछ अधूरा रह गया था। इसलिए सोचा, यह चिट्ठी भेज दूँ ताकि तुम जान सको कि तुम्हारे भरोसे ने मुझे बदल दिया।

आदित्य दरभंगा शाखा, पूर्व मध्य रेलवे

चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते पूजा की आँखों से आँसू बहने लगे।

बगल में खड़े छोटे भाई ने पूछा, “दीदी, क्या हुआ?” पूजा ने मुस्कुराकर कहा, “कुछ नहीं। एक बार फिर ट्रेन छूट गई थी। पर मंज़िल मिल गई थी।”

अध्याय 8: मंज़िल का सफ़र

पूजा अब दरभंगा के सरकारी अस्पताल में कार्यरत थी। उसे भागलपुर में एक मेडिकल कैंप में शामिल होने जाना था। सुबह की ट्रेन थी, भागलपुर लोकल। पूजा स्टेशन पर पहुँची, ट्रेन में चढ़ी और हमेशा की तरह खिड़की के पास बैठ गई।

ट्रेन धीरे-धीरे चलने लगी। कुछ देर बाद किसी ने धीरे से कहा, “माफ़ कीजिए, क्या यह सीट ख़ाली है?”

पूजा ने सिर उठाया और साँस थम गई। वह आदित्य था।

आदित्य भी चौंक गया, लेकिन फिर मुस्कुराया। “क्या फिर से ट्रेन छूट गई थी?” पूजा भी हँसी। “नहीं, इस बार तो वक़्त से पहले पहुँची हूँ।”

“अभी सिक्का रखते हो?” आदित्य ने पूछा। पूजा ने अपना पर्स खोला और वही पुराना सिक्का उसकी हथेली पर था। “हाँ। अब यह मेरी ताक़त है।”

“तुम अब भी स्टेशन पर खड़े होकर लोगों की मदद करते हो?” पूजा ने पूछा। “अब तो मेरी पोस्टिंग है, लेकिन आदत नहीं गई। और तुम? अब डरती नहीं?” “अब मैं ख़ुद दूसरों की मदद करती हूँ।”

आदित्य ने एक गहरी साँस ली। “शायद यही तो ज़िंदगी है। जो कभी टूटती है, वही दूसरों को जोड़ने की वजह बनती है।”

ट्रेन भागलपुर स्टेशन पर रुकी। दोनों बाहर निकले। पूजा मेडिकल कैंप के लिए अस्पताल की वैन की ओर बढ़ी। आदित्य कुछ देर वहीं खड़ा रहा। फिर बोला, “पूजा, अगर कभी किसी स्टेशन पर तुम्हारी ट्रेन फिर छूट जाए, तो एक बार मुझे याद कर लेना।”

पूजा पलटी। उसकी आँखें भीग चुकी थीं, लेकिन चेहरे पर सुकून था। “अब मैं ट्रेन मिस नहीं करती… क्योंकि अब मैं ख़ुद किसी की मंज़िल बनने लगी हूँ।”

उन्होंने एक-दूसरे को देखा। ना कोई वादा, ना कोई आँसू। सिर्फ़ एक मौन रिश्ता जो समझ चुका था कि हर मुलाक़ात को नाम नहीं दिया जाता। कभी-कभी कोई रिश्ता नाम नहीं माँगता। बस एक सफ़र, एक सिक्का और एक विश्वास काफ़ी होता है। इंसानियत अगर सही वक़्त पर मिले, तो ज़िंदगी की सबसे छूटी हुई ट्रेन भी हमें मंज़िल तक पहुँचा देती है।