डॉक्टर बहू ने सास को अनपढ़ कहा… पर सास की असली जानकर पैर पकड़ ली फ़िर जो हुआ

सास-बहू, अहंकार और इंसानियत की सीख

जयपुर शहर में सुनीता जी का घर आज दुल्हन की तरह सजा हुआ था। उनके इकलौते बेटे रोहित की शादी थी, और पूरा घर खुशियों से भरा था। रिश्तेदार, दोस्त, सब डीजे की धुन पर नाच रहे थे। सुनीता जी का बेटा रोहित पढ़ा-लिखा और समझदार था, और आज उसकी शादी सिया से हो रही थी। सिया अपने माता-पिता की इकलौती बेटी और एक होनहार डॉक्टर थी। उसके माता-पिता ने उसकी पढ़ाई पर खूब मेहनत और पैसा लगाया था, और सिया ने भी उन्हें गर्वित किया था। लेकिन सिया के दिल में अपनी नौकरी, डिग्री और हैसियत का घमंड भी आ गया था। वह सोचती थी, “मैंने इतनी मेहनत की है, इतना कमाया है, मेरे सामने कौन टिक सकता है?”

शादी बड़े धूमधाम से संपन्न हुई। सिया अपनी नई जिंदगी शुरू करने ससुराल आई, लेकिन उसके दिल में वही घमंड था जो उसे हर किसी को छोटा दिखाने पर मजबूर करता था। रोहित का परिवार छोटा था—सुनीता जी, उनकी बेटी नेहा और अब नई बहू सिया। रोहित के पिता का देहांत तब हो गया था जब वह सिर्फ 15 साल का था। हार्ट अटैक ने उन्हें छीन लिया, और तब से सुनीता जी ने अकेले ही अपने बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया।

शादी के अगले दिन घर में नई बहू की मुंह दिखाई की रस्म थी। सुनीता जी ने अपनी बेटी नेहा को बुलाया और कहा, “बिटिया, जाओ अपनी भाभी को बोलो कि मेहमान हॉल में इकट्ठा हो गए हैं। उन्हें अच्छे से सजधज कर आने को कहो।” नेहा उत्साह से सिया के कमरे की ओर बढ़ी। लेकिन तभी सिया तेज कदमों से बाहर निकल आई। मेहमानों की नजरें उस पर टिक गईं और सबके चेहरे पर हैरानी छा गई। नई बहू जिसे लहंगे, साड़ी और गहनों में सजना चाहिए था, वो जींस और टॉप में थी।

मेहमान आपस में खुसरफुसर करने लगे, “अरे ये क्या? नई बहू तो बिल्कुल अलग अंदाज में है।”
सुनीता जी ने धीरे से कहा, “बेटा, जाओ साड़ी पहनकर आओ। मेहमान तुम्हारी मुंह दिखाई के लिए आए हैं।”
लेकिन सिया का जवाब सुनकर सबके होश उड़ गए। उसने तीखे लहजे में कहा, “मां जी, मुझे क्या समझा रही हैं? मैं पढ़ी-लिखी हूं। कोई आप जैसी गंवार नहीं जो साड़ी में लिपटी रहूं। इतनी गर्मी में 5 मीटर की साड़ी मैं नहीं लपेट सकती। वैसे भी सुना है आप किसी छोटे से गांव की हैं, तभी आपकी सोच इतनी पुरानी है। हम मॉडल लोग जींस और टॉप पहनते हैं।”

सुनीता जी का चेहरा लाल हो गया। मेहमानों के सामने उनकी बहू ने उनकी ऐसी बेइज्जती की थी जो उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। लेकिन वह चुप रहीं। उन्होंने मेहमानों की ओर देखा और हल्की मुस्कान के साथ कहा, “अरे गर्मी बहुत है ना, इसलिए बहू ने कपड़े बदल लिए। चलो कोई बात नहीं, रस्म ऐसे ही कर लेते हैं।”
उनका दिल टूट रहा था, लेकिन उन्होंने घर की इज्जत बचाने के लिए अपनी भावनाओं को दबा लिया।

अगले दिन सुबह पहली रसोई की रस्म थी। नेहा उत्साहित होकर सिया के कमरे में गई और मुस्कुराते हुए बोली, “भाभी, मां ने आपको किचन में बुलाया है। आज आपकी पहली रसोई की रस्म है। और हां, रस्म के बाद मेरे लिए गरमागरम पकोड़े और चाय बना देना। मेरी सहेलियां भी आएंगी, उन्हें भी आपके हाथ का खाना खिलाने का मन है।”
नेहा की मासूम बात सुनकर सिया भड़क उठी। उसने सख्त लहजे में कहा, “ननद जी, जिसे चाय-पकोड़े खाने हैं, वह अपने हाथ-पैर चलाए और बनाएं। मैं तुम्हारे घर शादी करके आई हूं, कोई नौकरानी नहीं बनी। मेरे सामने ऑर्डर देने की हिम्मत मत करना। यह मत सोचो कि भाभी आई है तो घर में रेस्टोरेंट खुल गया। मैं सिर्फ रस्म निभाने के लिए किचन में जाऊंगी। वैसे भी मैं तुमसे कहीं ज्यादा पढ़ी-लिखी हूं। मैंने डॉक्टर की डिग्री ली है, तुमने मुश्किल से ग्रेजुएशन किया होगा, वो भी शायद नकली डिग्री लेकर। मैं हॉस्पिटल में काम करती हूं, तुम्हारी तरह बेकार नहीं। अगर तुम्हें कोई छोटी-मोटी नौकरी भी मिल जाए तो ₹4000 से ज्यादा नहीं कमा पाओगी। यह घर तो मेरे और रोहित के पैसों से ही चलेगा।”

नेहा के दिल में सिया की बातें तीर की तरह चुभ गईं। उसकी आंखें छलक आईं, लेकिन वह चुप रही। वह नहीं चाहती थी कि घर का माहौल खराब हो। वह आंसुओं को छुपाते हुए अपने कमरे में चली गई।
इधर सिया रसोई में पहुंची। सुनीता जी ने पहले से ही खीर बनाकर रखी थी। सिया ने बस कड़छी से खीर को हिलाया, थोड़ी चीनी और मेवे डाले और रस्म पूरी कर दी। जब वह मेहमानों को खीर परोसने गई तो उसने फिर सबके सामने चिल्लाकर कहा, “मां जी, मैं आज के जमाने की मॉडल लड़की हूं।”

रस्म के दौरान बड़ी मामी ने सिया को चांदी की अंगूठी दी। सिया ने मुंह बनाते हुए कहा, “मामी जी, हमारे यहां तो सिर्फ गोल्ड और डायमंड पहना जाता है। चांदी की अंगूठी तो नौकरानियां पहनती हैं।”
बुआ जी ने उसे ₹1000 का नोट दिया तो उसने ताना मारा, “बुआ जी, ₹1000 में क्या होगा? हमारे यहां तो नौकरों को भी इतना नहीं दिया जाता। खैर, कोई बात नहीं। मेरे पापा ने सबके लिए लिफाफे दिए हैं।”

वो कमरे से लिफाफे लाई और मेहमानों को बांटने लगी, “यह लीजिए बुआ जी ₹1100, और यह मामी जी आपके लिए। हमारा रुतबा ही कुछ और है। हम छोटे-मोटे जॉब नहीं करते, बड़ी कंपनियों और हॉस्पिटल्स में काम करते हैं।”
सुनीता जी ने फिर समझाया, “बेटा, शगुन के लिफाफे तो ठीक है लेकिन बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद भी ले लो।” लेकिन सिया फिर भड़क गई, “मां जी, आपने मुझे कोई नौकरानी समझ रखा है? इतने लोगों के पैर छूने से मेरी कमर टूट जाएगी। मैं कोई पुराने जमाने की बहू नहीं। मैंने डॉक्टर की डिग्री ली है, मेरा पैकेज तो आपको पता ही होगा। मुझसे यह उम्मीद मत रखना कि मैं आपके रिश्तेदारों के पैर दबाऊंगी।”

मेहमानों में खुसरफुसुर तेज हो गई। कोई बोल रहा था, “सुनीता की किस्मत ही खराब है जो ऐसी बहू मिली।”
सुनीता जी की आंखें नम थी, लेकिन वह फिर भी चुप रहीं।

सच का खुलासा और बहू का घमंड टूटना

एक दिन सिया का ममेरा भाई पवन विदेश से आया। सिया खुशी से झूम उठी, “भाई, शाम को 5 बजे किसी अच्छे रेस्टोरेंट में मिलते हैं। रोहित भी साथ आएगा।”
लेकिन पवन सरप्राइज देने के लिए 2 घंटे पहले ही ससुराल पहुंच गया। डोरबेल बजी, नेहा ने दरवाजा खोला। सामने एक स्मार्ट सूट-बूट में सजा शख्स खड़ा था। “जी आप कौन?”
“मैं पवन, सिया का ममेरा भाई, दुबई से आया हूं।” नेहा ने उसे अंदर बुलाया। तभी सुनीता जी किचन से बाहर आईं, “कौन है बिटिया?”
“मां, ये भाभी के भाई हैं।”
पवन ने सुनीता जी को देखा और उनकी आंखें चमक उठीं। वो दौड़कर उनके पैर छूने लगा, “मैम, मैं आपको कितने सालों से ढूंढ रहा था, आप यहां!”
सुनीता जी हैरान थीं, “बेटा, तुम कौन हो?”
पवन ने कहा, “मैम, मैं पवन कुमार, दिल्ली यूनिवर्सिटी का आपका स्टूडेंट। आपको याद है, मेरे पास फीस भरने के पैसे नहीं थे। अगर आपने मेरी फीस ना भरी होती, किताबें ना दिलाई होती, मुझे फ्री में क्लासेस ना पढ़ाई होती, तो मैं आज कुछ भी नहीं होता। आज मैं जो कुछ भी हूं, आपकी वजह से हूं।”

धीरे-धीरे सुनीता जी को याद आने लगा। उनकी आंखें नम हो गईं।
तभी सिया घर लौटी। उसने देखा कि उसका भाई पवन उसकी सास के पैर छू रहा है और उन्हें “मैम” कह रहा है।
सिया को यकीन नहीं हुआ, “पवन, तुम क्या कह रहे हो? मेरी सास तो अनपढ़ है, ये कोई प्रोफेसर नहीं हो सकती।”
पवन ने गंभीरता से कहा, “गरिमा, तुम गलत हो। ये सुनीता वर्मा हैं, दिल्ली यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर। इन्होंने मुझे पढ़ाया, मेरी जिंदगी बनाई।”

सिया का दिल धड़कने लगा। वो दौड़कर सुनीता जी के कमरे में गई और उनकी अलमारी खोली। वहां उसे ढेर सारी डिग्रियां, सर्टिफिकेट्स और अवार्ड्स मिले। उसकी आंखें चौंधिया गईं।
वो रोते हुए बोली, “मां जी, अगर आप इतनी पढ़ी-लिखी थीं तो मुझे क्यों नहीं बताया? मैं आपको अनपढ़ समझकर इतना कुछ कहती रही।”
सुनीता जी शांत स्वर में बोलीं, “बेटा, मैंने कई बार कोशिश की लेकिन तुमने मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया। मैं वही सुनीता वर्मा हूं जो दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थी। लेकिन मेरे लिए मेरे बच्चों की परवरिश और परिवार की जिम्मेदारी सबसे बड़ी थी। जब रोहित के पिता का देहांत हुआ, तब मुझे अकेले बच्चों को संभालना पड़ा। फिर जब मेरे ससुर जी बीमार हुए, तो मुझे जयपुर आना पड़ा। उनकी सेवा के लिए मैंने नौकरी छोड़ दी। मैंने ट्यूशन पढ़ाए, बच्चों को संभाला और हर मुश्किल का सामना किया।”

उसी वक्त दरवाजे की घंटी बजी। कुछ स्टूडेंट्स सुनीता जी को टीचर्स डे की बधाई देने आए थे। वे मिठाइयां, बुके और साड़ियां लाए थे। एक स्टूडेंट बोला, “मैम, आपके बिना मैं गोल्ड मेडल ना जीत पाता।”
सिया की आंखें खुली की खुली रह गईं। जिस सास को वह अनपढ़ समझती थी, उन्हें लोग इतना सम्मान दे रहे थे।

तभी पवन ने सुनीता जी से कहा, “मैम, मैं आपकी बेटी नेहा का हाथ मांगना चाहता हूं। मुझे विश्वास है कि आपने उसे अपने संस्कार दिए होंगे।”
सुनीता जी ने खुशी से हां कर दी।
सिया का सिर शर्म से झुक गया। वो रोते हुए सुनीता जी के पास गई और बोली, “मां जी, मुझे माफ कर दीजिए। मैंने आपको इतना बुरा भला कहा।”
सुनीता जी ने उसके आंसुओं को पोंछा और कहा, “बेटा, कभी किसी को कम मत समझना। हर इंसान की अपनी काबिलियत होती है। तुमने जो किया वह तुम्हारी नादानी थी। अब इसे भूल जाओ और जाओ मेरे स्टूडेंट्स के लिए चाय और पकोड़े बनाओ। यही तुम्हारी सजा है।”

सिया मुस्कुराते हुए किचन में चली गई। उसने मन ही मन ठान लिया कि वह अब कभी अपनी नौकरी या डिग्री का घमंड नहीं करेगी और घर के काम में सुनीता जी की मदद करेगी।

सीख:
इस कहानी से हमें सीख मिलती है कि हमें कभी किसी को कम नहीं आंकना चाहिए। नौकरी करना, पढ़ा-लिखा होना या पैसा कमाना हमें दूसरों से ऊपर नहीं बनाता।
बड़े-बुजुर्गों का सम्मान करना, घर के काम में हाथ बटाना और अपने अहंकार को छोड़ना ही हमें सच्चा इंसान बनाता है।
सुनीता जी ने अपनी काबिलियत को कभी घमंड नहीं बनने दिया। उन्होंने अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दिए और यही संस्कार नेहा को एक अच्छा जीवन साथी दिलाने में काम आए।

तो दोस्तों, क्या आपको लगता है कि सुनीता जी ने सिया को माफ करके सही किया? अपनी राय हमें कमेंट में जरूर बताएं।
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फिर मिलते हैं एक और दिल को छूने वाली कहानी के साथ।
जय हिंद!