तलाक के बाद सब्ज़ी बेचने को मजबूर हो गई पत्नी मंगलसूत्र ने फिर जोड दिया टूटा हुआ रिश्ता

टूटे रिश्तों की नई सुबह – विक्रम और कविता की कहानी

भाग 1: मंडी में मुलाकात

विक्रम आज फल खरीदने के लिए इंदौर की सब्जी मंडी आया था। चिलचिलाती धूप में, मंडी की भीड़-भाड़ के बीच उसकी नजर अचानक सड़क किनारे बैठी एक महिला पर पड़ी। वह महिला कोई और नहीं, उसकी तलाकशुदा पत्नी कविता थी। कविता ने एक पुरानी चादर बिछाकर उस पर थोड़ी सी सब्जी सजाई थी – कुछ आलू, ताजे टमाटर, हरी मिर्च, नींबू, और धब्बेदार फूल गोभी। एक लकड़ी की कैरेट में आम भी थे, जिनके ऊपर सूखी घास रखी थी।

विक्रम के कदम ठिठक गए। आठ साल बाद वह कविता को देख रहा था। कविता का चेहरा थका हुआ, बुझा-बुझा लग रहा था, आंखों में इंतजार था। विक्रम को याद आया, कविता अक्सर कहा करती थी, “तुमसे 100 गुना अच्छा पति मिलेगा मुझे।” लेकिन आज वह अकेली सब्जी बेच रही थी।

मन में एक अजीब सी खुशी हुई – शायद कविता की जिंदगी बर्बाद हो गई है। मगर अगले ही पल उसे खुद पर शर्म आई। क्या सच में कविता इतनी मजबूर हो गई है? उसने रुमाल से अपना चेहरा ढक लिया। आठ सालों में वह बदल चुका था – थोड़ा मोटा, रंग साफ, सूट-बूट में साहब जैसा। कविता उसे पहचान न पाए, इसलिए उसने चेहरा छुपा लिया।

वह धीरे-धीरे कविता के पास पहुंचा। कविता बहुत दुबली हो गई थी, चेहरा मुरझाया हुआ, रंग सांवला। विक्रम को शक हुआ कि शायद वह कोई और हो। मगर माथे का बड़ा सा तिल उसकी पहचान था। कविता ने उम्मीद भरी नजरों से उसकी तरफ देखा और बोली, “क्या चाहिए साहब?”

पास ही सब्जी बेच रही दूसरी महिला ने टोका, “इसके पास तो बाजी सब्जी है, साहब ताजा चाहिए तो इधर आ जाइए।” कविता झट से बोली, “बाजी नहीं है साहब, बस धूप में थोड़ी मुरझा गई है, वरना आज सुबह ही खरीदी थी।”

विक्रम को उसके चेहरे पर बेबसी और लाचारी साफ दिख रही थी। छः साल वह इसी औरत के साथ रहा था। तलाक जरूर हुआ था, लेकिन उन छः सालों में कुछ खूबसूरत लम्हे भी थे। वह बिना कुछ बोले आमों की कैरेट की ओर झुका, घास हटाकर आम देखने लगा। “यह तो सच में खराब हो चुके हैं,” उसने कहा।

कविता अधीर होकर बोली, “नहीं साहब, खराब नहीं हुए हैं, बस थोड़े अलसाए हुए लग रहे हैं। एक खाकर देख लीजिए, अगर पसंद न आए तो मत लीजिए।” विक्रम जाने लगा, मगर कविता की आवाज फिर आई, “ले लो ना साहब, शाम का वक्त हो गया है, सस्ते लगा दूंगी।”

तभी कविता की जुबान से निकला, “दो दिन से बेटी की तबीयत खराब है, दुकान ठीक से नहीं लगा पा रही।” विक्रम का दिल धक से रह गया। उसकी प्यारी बेटी रिया… तलाक के वक्त पांच साल की थी, अब तो बारह साल की हो गई होगी। कविता ने आम उठाकर उसकी तरफ बढ़ाया, मगर विक्रम तो बेटी के ख्यालों में खो गया।

“सारे आम तोल दो,” उसने जल्दी से कहा। कविता खुशी-खुशी आम तोलने लगी। दस किलो निकले। “एक सौ पचास किलो बेच रही थी, मगर आप पूरे ले रहे हैं तो एक सौ किलो में दे दूंगी।” विक्रम ने पांच सौ के तीन नोट पकड़ाए और जाने लगा।

कविता पीछे से पुकार उठी, “साहब, एक सौ पचास किलो के हिसाब से जोड़े तब भी 1050 होते हैं, आपके 500 वापस लीजिए।” विक्रम ठिटक गया। कविता उठकर पास आई और उसकी हथेली पर नोट रख दिए, “भीख नहीं चाहिए साहब, भीख न मांगनी पड़े इसलिए दुकान लगाई है।”

विक्रम ने उसकी आंखों में देखा। कुछ देर चुप रहने के बाद बोला, “तुम्हारा पति कुछ नहीं करता क्या?”
कविता हल्की मुस्कान के साथ बोली, “पति से दस साल पहले तलाक हो गया था साहब।”
विक्रम चौंक गया। वह बिना कुछ बोले आगे बढ़ गया, लेकिन चलते-चलते बोला, “तुम जैसी खुद्दार औरत के साथ तुम्हारे पति ने जरूर कुछ गलत किया होगा, तभी रिश्ता टूट गया।”

कविता पीछे से जवाब देती बोली, “नहीं साहब, पति अच्छा था, बस दिन खराब थे।”

भाग 2: बीते दिनों की यादें

विक्रम वहां रुक नहीं सका, तेजी से अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गया। मगर जाते-जाते मुड़कर देखा, कविता अपनी दुकान समेट रही थी। शायद उसकी आज की कमाई हो गई थी, इसलिए अंधेरा होने से पहले घर जा रही थी। विक्रम का मन किया उसके पीछे जाए, यह देखने कि वह कहां रहती है, और रिया को देखने की बेचैनी भी बढ़ गई थी।

कविता ने तलाक के बाद किसी से शादी नहीं की, यह बात भी उसके दिल में खटक रही थी। कविता अपनी सब्जी के झोले को कंधे पर डालकर घर की ओर चल पड़ी। विक्रम भी धीरे-धीरे उसके पीछे हो लिया, काफी फासला बनाकर ताकि वह उसे देख न पाए।

विक्रम के मन में सवाल था – कविता इंदौर में कैसे आई? उसका घर तो गांव में था, वहां उसके दो भाई थे। तलाक के वक्त तो बड़े उछल रहे थे, अब बहन को अकेला कैसे छोड़ दिया? लेकिन उसे तसल्ली हुई कि कविता आज भी उसे बुरा नहीं मानती थी।

चलते-चलते विक्रम को वह रात याद आई जब कविता ने कहा था, “आप मेरे स्वाभिमान की रक्षा कर लेना, जी बाकी आपके साथ रहकर मैं सब कुछ सह लूंगी।” मगर विक्रम उसकी इज्जत की रक्षा नहीं कर पाया था। उसकी भाभी कविता को अक्सर जलील करती थी, मगर वह चुपचाप खड़ा सुनता रहता था। कविता खुद्दार थी, बिना गलती के सर झुकाना उसे पसंद नहीं था। एक दिन अपमान सहते-सहते वह मायके चली गई। विक्रम ने भाभी की बातों में आकर उसे तलाक का नोटिस भेज दिया। यह उसकी सबसे बड़ी गलती थी।

चार साल शादीशुदा जिंदगी बहुत अच्छी चली, लेकिन पांचवें साल से झगड़े शुरू हो गए। कविता को सबसे ज्यादा तकलीफ तब होती थी जब भाभी किसी बात पर रिया को थप्पड़ मार देती थी। रोज झगड़े होते। कविता अलग होने का दबाव बना रही थी, मगर विक्रम को यह बिल्कुल पसंद नहीं था। उसका भाई और भाभी पुश्तैनी दुकान का बंटवारा नहीं चाहते थे। जब उसे और कविता को पैसों की जरूरत होती तो भाभी से मांगने पड़ते। कविता यह बर्दाश्त नहीं कर पाई।

भाग 3: कविता का संघर्ष

कविता ने रास्ते में एक मेडिकल स्टोर से दवाइयां ली और एक तंग गली में मुड़ गई। विक्रम निश्चित दूरी बनाकर उसके पीछे चल रहा था। कुछ देर बाद वह शहर के बाहरी इलाके की एक बस्ती में पहुंची। एक टूटा-फूटा सा घर, जिसके बाहर चौक में दो खाट पड़ी थी। एक खाट पर रिया लेटी थी – कमजोर, बीमार, सूखी हुई। दूसरी खाट पर कविता की मां थी।

कविता घर में घुसी तो उसकी मां धीरे-धीरे उठकर बैठ गई। रिया भी उठ गई। वह पहले से बड़ी हो गई थी, लेकिन बहुत कमजोर और बीमार लग रही थी। विक्रम की आंखें नम हो गईं। उसे याद आया जब रिया छोटी थी तो हर वक्त उसकी गोद में चिपकी रहती थी। आज वह उससे इतनी दूर थी।

विक्रम खुद को रोक नहीं पाया। उसका दिल किया दौड़ कर जाए और रिया को सीने से लगा ले। लेकिन नहीं, वह लाख चाहकर भी घर के अंदर नहीं जा सकता था। कुछ देर तक वही खड़ा रहा, रिया को देखता रहा और उसकी आंखों से आंसू बहते रहे। फिर धीरे-धीरे वह वहां से लौट आया।

भाग 4: विक्रम का फैसला

विक्रम के दिल में गुस्से का तूफान था। भाभी ने उसके हंसते-खेलते घर को बर्बाद कर दिया था। तलाक के समय भाभी ने गर्व से कहा था, “चिंता मत कर, जल्दी ही तुम्हारी दूसरी शादी कर दूंगी।” दस साल बीत गए, शादी तो क्या, अब तक विक्रम अकेला ही जी रहा।

अब हर शाम विक्रम कविता की दुकान पर जाने लगा। रुमाल से चेहरा ढककर वहां जाता, ढेर सारी सब्जियां और फल खरीदता ताकि कविता रिया का अच्छे से ख्याल रख सके। मगर खुद को बेनकाब करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। जितनी सब्जी लाता, उसमें से जितनी जरूरत होती, कविता रख लेती, बाकी आवारा पशुओं को खिला देती।

कुछ दिन बाद विक्रम का भाई दुकान पर हिसाब लेने आया। “बचत के पैसे कहां गए?”
“खर्च हो गए।”
“इतने सारे पैसे कहां खर्च कर दिए?”
“काम था, खर्च हो गए।”
“आज तक तुमने तो कभी बेवजह खर्च नहीं किया, अब अचानक इतने पैसे क्यों उड़ा रहे हो?”
विक्रम ने पहली बार हिम्मत करके कहा, “गुस्सा क्यों हो रहे हो भाई? कमाई भी तो मैंने ही की थी, इसलिए खर्च भी मैंने कर दिए। मेरी भी कुछ जरूरतें हैं।”

भाई आग बबूला हो गया, “तुम्हें शर्म नहीं आती? मुझसे जुबान लड़ाने लगे?”
विक्रम ने ठंडी आवाज में जवाब दिया, “मैं जुबान नहीं लड़ा रहा, बस एक बात कह रहा हूं। मैं कमाता हूं तो खर्च भी कर सकता हूं।”
फिर सीधा भाई की आंखों में देखा, “यह घर और दुकान जो आपने मेरे नाम पर खरीदी थी, अब मुझे सौंप दो।”

भाई चौंक गया, “क्या मतलब?”
“आपके पास पुश्तैनी घर और बड़ी दुकान है, उसे आप रखिए। लेकिन यह छोटा सा घर और दुकान मुझे दे दीजिए। अब मैं अकेला जीना चाहता हूं।”

भाई सन रह गया, फिर जोर से हंसते हुए बोला, “तू कैसी बातें कर रहा है? मैं तुझे अकेले कैसे छोड़ सकता हूं? अभी तो तेरी शादी करानी है। तेरा फिर से घर बसाना है।”

विक्रम बिना बोले उसे देखता रहा। अब उसे किसी और के फैसले की जरूरत नहीं थी, वह खुद तय करेगा कि उसकी जिंदगी कैसे चलेगी। “अब मेरी झूठी फिक्र करना बंद करो।” विक्रम की आवाज में अब दर्द के साथ गुस्सा भी था। “आप और भाभी ने मिलकर मुझे मेरी बीवी से अलग कर दिया, मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया। दस साल हो गए मेरी शादी टूटे हुए, लेकिन आपने कभी मेरी शादी की बात भी नहीं चलाई। क्यों? क्योंकि आप दोनों मेरी शादी करवाना ही नहीं चाहते थे। आपको तो फ्री में एक नौकर मिल गया था और साथ में मेरी प्रॉपर्टी भी।”

विक्रम का बड़ा भाई अब चुप था। उसके चेहरे पर कोई जवाब नहीं था।
“अगर पापा मेरी शादी करवाकर नहीं मरे होते, तो शायद आप लोग मेरी शादी भी नहीं होने देते।”

विक्रम की आंखों में आंसू थे, लेकिन गुस्से से भरे हुए। “अब मैं खुद अपनी शादी करूंगा और आप दोनों भगवान के लिए मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो।”
“और अगर मुझसे फिर कोई चालबाजी करने की कोशिश की तो मैं गांव जाकर अपनी प्रॉपर्टी में हिस्सा लेकर रहूंगा।”

भाई को अब समझ आ गया कि उसकी चालाकी पकड़ में आ चुकी है। अब उसकी और उसकी बीवी की यहां एक भी नहीं चलने वाली थी। वह कुछ नहीं बोला और चुपचाप वहां से निकल गया।

अब विक्रम पूरी तरह भाई और भाभी के चंगुल से आजाद हो चुका था।

भाग 5: पुनर्मिलन की राह

विक्रम को अब बस कविता और रिया की याद सता रही थी। वह दोपहर होते ही कविता की दुकान पर पहुंच गया। कविता आज ढंग के कपड़े पहनकर बैठी थी, लेकिन उसकी आंखों में चिंता और उदासी साफ छलक रही थी।

विक्रम ने धीरे से पूछा, “आपकी बेटी अब कैसी है?”
कविता ने उसकी आंखों में देखा और गहरी आवाज में बोली, “क्यों, वह आपकी बेटी नहीं है?”
विक्रम चौंक पड़ा। रुमाल से मुंह ढका था, फिर भी कविता ने उसे पहचान लिया था।

कविता ने गहरी नजरों से उसकी आंखों में झांका, “रोज उसका हालचाल पूछने चले आते हो, लेकिन उससे मिलने की हिम्मत नहीं होती। क्या आपके भाई और भाभी ने मना किया है कि अपनी बेटी से मत मिलो?”

विक्रम ने सिर झुका लिया, “मैंने भैया और भाभी से सारे रिश्ते तोड़ दिए हैं।”
फिर रुमाल हटाकर अपनी भरी हुई आंखों से कविता को देखा, “बहुत मन करता है उससे मिलने का।”

कविता की आंखें नम। हल्की मुस्कान के साथ कहा, “मिल लो, मैंने कब मना किया है? रिश्ता मुझसे टूटा है, बेटी से तो नहीं।”

विक्रम ने धीरे से पूछा, “तुमने मुझे कैसे पहचाना?”
कविता ने हल्के से आह भरी, “पत्नी रही हूं ना तुम्हारी? पीछे की चाल देखकर पहचान लिया। पहले दिन ध्यान नहीं दिया, लेकिन दूसरे दिन समझ गई थी। जब भी तुम रिया के बारे में पूछते हो, तुम्हारी आंखों में जो दर्द होता है, वही मेहना जल रही है। सिर्फ एक पिता की आंखों में ही हो सकता है। अपना चेहरा तो छुपा लिया, मगर बेटी से मिलने की तड़प छुपा नहीं पाए।”

कविता ने पर्स से एक कागज निकाला, “यह घर का पता है, वहां चले जाओ, रिया से मिलो। मैं शाम तक घर आऊंगी।”

विक्रम ने कागज नहीं लिया, “नहीं, तुम साथ चलो, तभी मैं उससे ठीक से बात कर पाऊंगा।”
उसकी आवाज कांप रही थी, “जब मुझसे दूर गई थी, तब बहुत छोटी थी, अब शायद वह मुझे पहचाने भी न।”

कविता की आंखों में आंसू, उसने जल्दी से आंसू पोंछ लिए, “शादी की एल्बम आज भी मेरे पास है। रोज तुम्हारी तस्वीर देखती है, तुम्हें जरा भी नहीं भूली।”

भाग 6: दिल की बात

विक्रम ने विनती की, “नहीं, तुम मेरे साथ चलो, मैं तुम्हारे साथ ही मिलना चाहता हूं।”
कविता झुंझला गई, “क्यों गरीब के पेट पर लात मार रहे हो? धंधे का टाइम है, अगर दुकान बंद कर दी तो कुछ भी नहीं बिकेगा।”

विक्रम बिना सोचे बोल पड़ा, “सारा सामान मैं खरीद लूंगा, लेकिन तुम मेरे साथ चलो। प्लीज।”
कविता का दिल धड़क उठा, उसने तंज कसा, “क्यों? तुम्हारी दूसरी पत्नी यहां आने से मना करती है क्या?”

विक्रम की आंखों में दर्द झलक आया, “मैंने दूसरी शादी नहीं की, ना जाने क्यों…”

यह सुनकर कविता के दिल को थोड़ी राहत मिली। वह बिना कुछ कहे दुकान बाजू वाले को संभालने के लिए बोलकर विक्रम के साथ गाड़ी में बैठ गई।

रास्ते में कविता ने पूछा, “तुम इस शहर में क्या कर रहे हो?”
विक्रम ने सारी कहानी सुना दी, “अब मैं हमेशा के लिए यहीं रहूंगा, भाई-भाभी से हमेशा के लिए रिश्ता तोड़ लिया है।”

कविता को सुनकर अजीब लगा, सोचने लगी, काश यह रिश्ता पहले टूट गया होता, तो आज हम दोनों साथ होते। हमारा तलाक नहीं हुआ होता।

थोड़ी देर बाद विक्रम ने धीमे से पूछा, “तुम यहां कैसे आई?”
कविता का चेहरा उतर गया, “भैया और भाभियों के ऊपर बोझ बन गई थी। धीरे-धीरे सबने किनारा कर लिया। यह घर मेरे मामा का है, वे मुंबई में रहते हैं, मां के पास इसकी चाबी थी, हम यहां रहने आ गए।”

भाग 7: मुलाकात – रिश्तों की मरम्मत

विक्रम ने हिम्मत करके पूछा, “क्या आज भी मेरी याद आती है?”
कविता चुप रही, चेहरा दूसरी तरफ घुमा लिया। कविता की आंखों में आंसू आ गए थे। बाहर देखते हुए बोली, “अब किसी की याद नहीं आती, सुबह से शाम तक बस यही सोचती हूं कि रोटी कैसे कमाऊं।”

विक्रम का दिल मायूस हो गया। रास्ते भर वह चुप रहा। कविता रास्ता बताती गई, वह गाड़ी चलाता रहा। उसे बताने की जरूरत नहीं पड़ी कि वह पहले भी इस गली में आ चुका है – छुप-छुप कर बेटी की झलक देखने।

जैसे ही घर के अंदर कदम रखा, विक्रम का दिल तड़प उठा। घर की हालत बहुत खराब थी। दीवारों का प्लास्टर झड़ चुका था, दरवाजे पुराने और जर्जर। कविता उसे अंदर ले गई। कमरे के पास पहुंचकर बोली, “रिया देखो कौन आया है।”

रिया अब ठीक हो चुकी थी। वह बाहर आई और सामने खड़े विक्रम को टुकुर-टुकुर देखने लगी। तभी कविता की मां भी बाहर आ गई। रिया ने विक्रम को देखा और तुरंत अपनी मां से लिपट गई। कविता मुस्कुरा कर बोली, “डरो मत बेटा, यह तुम्हारे पापा हैं।”

रिया के मासूम होठ हिले, “पापा, मगर यह गंदे पापा हैं, इन्होंने आपको बहुत रुलाया है।”
विक्रम की आंखें भर आईं। उसने सांस के पैर छूने की कोशिश की, लेकिन वह पीछे हट गई, “दूर रहो हमसे, अब हमारा तुमसे कोई रिश्ता नहीं है।”

विक्रम घुटनों के बल बैठ गया, आंखों में दर्द था। कांपते हाथों से बेटी को बाहों में बुलाया, लेकिन रिया वहीं खड़ी रही। कविता ने उसकी पीठ थपथपाई, “जाओ बेटा, पापा से मिलो।”
बस इतना सुनते ही रिया दौड़कर विक्रम के गले लग गई। विक्रम उसे कसकर भींच लिया, “माफ कर दो मेरी गुड़िया, बहुत बड़ी गलती कर दी मैंने।”
वो फफक पड़ा।

फिर गाड़ी की ओर भागा, डिग्गी खोलते हुए बोला, “देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूं।”
थैली में चॉकलेट, बिस्किट, खिलौने, कपड़े – हर चीज थी जिससे रिया खुश हो जाए। रिया खिलखिलाने लगी। कविता चुपचाप खड़ी देख रही थी, उसका दिल जोर से धड़क रहा था। क्या इसमें मेरे लिए भी कुछ होगा?

लेकिन जब थैली खाली हो गई तो उसकी आंखों में हल्की मायूसी उतर आई। रिया खुशी से उछल रही थी और कविता बस खामोश।

भाग 8: नया संसार

लौटने लगे तो कविता कार में चुपचाप बैठ गई। विक्रम ने हल्की मुस्कान के साथ पूछा, “अगर तुम्हारे लिए कुछ लाता तो तुम लेती?”
कविता ने तिरछी नजरों से देखा, फिर उदास होकर बोली, “जब लाते तब देखते, अब छोड़ो यह सब।”

विक्रम झट से बोला, “लाया हूं।” कविता का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसने बेचैनी छिपाते हुए कहा, “लाओ दे दो, अब इतने प्यार से लाए हो तो मना कैसे कर सकती हूं?”

विक्रम ने अपनी जेब से कुछ निकाला, अपनी मुट्ठी में छुपा लिया। धीरे-धीरे कविता के हाथ में रख दिया। जैसे ही कविता ने हाथ खोला, उसकी सांसे थम गईं। वह एक मंगलसूत्र था। कविता स्तब्ध रह गई।

विक्रम ने गाड़ी किनारे रोक दी, कांपती आवाज में कहा, “ना मत करना, नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा।”
कविता ने मंगलसूत्र को मुट्ठी में कसकर पकड़ लिया, आंखें नम हो गईं। विक्रम की आवाज कांप रही थी, “मैंने बहुत देर कर दी कविता, लेकिन अब तुम्हारा हाथ कभी नहीं छोड़ूंगा। हम फिर से नया संसार बसाएंगे, जहां रिया को अच्छी परवरिश मिलेगी, जहां अम्मा का बुढ़ापा सुकून से बीतेगा।”

कविता की आंखों में आंसू छलक पड़े। उसने मंगलसूत्र वापस करने के लिए हाथ बढ़ाया, लेकिन विक्रम ने हाथ जोड़ लिए। कविता ने एक गहरी सांस ली, “अपने हाथों से पहना दो।”

विक्रम की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। कांपते हाथों से उसने मंगलसूत्र कविता के गले में डाल दिया। कविता ने उसका हाथ थाम लिया और मुस्कुराकर कहा, “अब दुकान नहीं जाना, अपने घर ले चलो।”

विक्रम ने गाड़ी मोड़ी, रिया और अम्मा को अंदर बिठाया और खुशी-खुशी अपने घर की ओर रवाना हो गया।
आज वह मकान सच में एक घर बनने जा रहा था।

समाप्त

(यह कहानी आपके दिए गए संवाद और भावनाओं के आधार पर विस्तारपूर्वक, संवेदनशीलता और भावनाओं के साथ लिखी गई है। यदि आपको किसी विशेष दृश्य या भाव को और विस्तार चाहिए, तो बताएं।)