तीर्थ घुमाने के बहाने बेटे ने बुज़ुर्ग माता-पिता को बद्रीनाथ धाम छोड दिया फिर जो हुआ…

माता-पिता का त्याग और बेटे की बेवफाई

1. त्याग की शुरुआत

शांति देवी और मोहनलाल एक छोटे से गांव में रहते थे। उनकी पूरी जिंदगी बेटे विक्रम की परवरिश में गुजर गई। उन्होंने अपनी भूख, नींद, सपने सब कुछ बेटे के लिए कुर्बान कर दिए। खेतों में मजदूरी कर-करके बेटे को पढ़ाया, जेवर बेचकर उसकी फीस भरी, खुद फटे कपड़ों में रहकर भी उसे अच्छे कपड़े पहनाए। माता-पिता का बस एक ही सपना था—मेरा बेटा बड़ा आदमी बने।

विक्रम सचमुच बड़ा आदमी बन गया, शहर में नौकरी मिली, शादी हुई। लेकिन जैसे-जैसे विक्रम की जिंदगी में पैसा और शोहरत आई, माता-पिता उसके लिए बोझ बनते गए। उसकी पत्नी प्रिया अक्सर ताने देती—”घर छोटा है, खर्चा बड़ा है, ऊपर से आपके मां-बाप! कब तक इन्हें ढोते रहेंगे?”

विक्रम कभी चुप रह जाता, कभी हल्के गुस्से में कह देता—”मां-पिताजी, संभल कर रहा करो, क्यों हर बार बीमार हो जाते हो?”
शांति देवी और मोहनलाल सब सुनते, मगर शिकायत का एक शब्द नहीं लाते। उनके लिए तो बेटे के घर की देहरी ही मंदिर थी।

2. बेटे की योजना

प्रिया के तानों ने विक्रम के मन में जगह बना ली। उसने सोचना शुरू कर दिया—सही कहती है, मां-पिताजी अब बोझ बन गए हैं। अगर ये ना रहें तो घर में शांति रहे।
एक दिन उसने ठान लिया कि माता-पिता से छुटकारा पाना ही होगा। लेकिन सीधे बाहर निकालना अच्छा नहीं लगता, इसलिए उसने एक योजना बनाई।

विक्रम ने मां-पिताजी से कहा—”अब आपकी बरसों की तमन्ना पूरी करने का वक्त आ गया है। मैं आपको बद्रीनाथ धाम के दर्शन कराने ले चलूंगा।”
यह सुनकर शांति देवी और मोहनलाल की आंखें भर आईं। उन्होंने बेटे का चेहरा पकड़कर आशीर्वाद दिया—”भोलेनाथ तुझे लंबी उम्र दे बेटा, तूने हमारी जिंदगी का सबसे बड़ा सपना पूरा कर दिया।”

रात भर उन्होंने अपनी सबसे अच्छी साड़ी और धोती निकाल रखी, पुराने बेलपत्र, चावल और वह माला रखी जो बरसों से भगवान को अर्पित करने की सोच रहे थे।
उनके होठों पर बस यही बात थी—बद्रीनाथ के दरबार में जाएंगे, जीवन सफल हो जाएगा।

3. तीर्थ यात्रा और धोखा

सुबह कार में बैठते हुए शांति देवी ने आसमान की ओर देखा और बुदबुदाई—”धन्यवाद भोले, तूने हमारी सुन ली।”
रास्ते भर वे उत्साहित होकर बेटे से बातें करते—”बचपन में जब तुझे तेज बुखार आया था, मैंने मनौती मानी थी कि तुझे ठीक कर दें तो बद्रीनाथ लेकर जाऊंगी। आज तू हमें ले जा रहा है, यह तेरे संस्कार हैं।”

बद्रीनाथ धाम की सीमा में प्रवेश करते ही माहौल बदल गया। सड़कों पर जयकारे, दुकानों पर बेलपत्र, मंदिर की घंटियों की गूंज। शांति देवी और मोहनलाल की आंखें भर आईं।
उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर कहा—”बद्रीनाथ, आज हमारी तपस्या पूरी हुई।”

मंदिर परिसर में पहुंचकर शांति देवी और मोहनलाल भीड़ में किसी बच्चे की तरह हर ओर देखने लगे। विक्रम ने माता-पिता से कहा—”मां-पिताजी, आप यहीं विश्रामालय की सीढ़ियों पर बैठ जाइए, मैं प्रसाद और पूजा की पर्ची लेकर आता हूं। भीड़ में आप थक जाएंगे।”
माता-पिता बेटे पर आंख बंद कर भरोसा कर सीढ़ियों पर बैठ गए। चेहरे पर संतोष, आंखों में आस्था।
उन्होंने मन ही मन कहा—”बाबा, जब तक बेटा लौटे, मैं तेरा नाम जपती रहूंगी।”

4. इंतजार और दर्द

वक्त बीतने लगा—आधा घंटा, एक घंटा, दो घंटे। सूरज ढलने लगा, लेकिन विक्रम लौटा नहीं।
शांति देवी और मोहनलाल बेचैन होकर इधर-उधर देखने लगे। हर आते-जाते चेहरे में उन्हें बेटे का चेहरा नजर आता।
धीरे-धीरे उनके दिल में शक की चिंगारी उठी—कहीं विक्रम हमें छोड़कर तो नहीं चला गया?

रात उतर आई थी। मंदिर के शिखर पर दीप जल उठे। श्रद्धालु लौटने लगे।
शांति देवी और मोहनलाल अब भी सीढ़ियों पर बैठे थे। भूख से पेट जल रहा था, पांव शून्य हो रहे थे, लेकिन दिल बस एक ही बात पर अटका था—हमारा बेटा आएगा, जरूर आएगा।

किसी ने आकर पूछा—”माई, बाबूजी, कहां से आए हो? अकेले क्यों बैठे हो?”
शांति देवी ने कांपती आवाज में कहा—”मेरा बेटा गया है प्रसाद लेने, वह अभी आता ही होगा।”
पर उस रात वह बेटा कभी नहीं आया। भीड़ छंट गई, मंदिर के बाहर सन्नाटा छा गया।

अब मां-बाप का दिल समझ चुका था—बेटा उन्हें छोड़कर चला गया है।
लेकिन मां-बाप का दिल अजीब होता है, धोखा साफ दिखते हुए भी वो बेटे के लिए दुआ ही करते हैं—”बद्रीनाथ, हमारा विक्रम जहां भी रहे, सुखी रहे।”

आंखों से बहते आंसुओं के बीच उन्होंने बाबा धाम के शिखर की ओर देखा और बोले—”अब हमारी जिंदगी तेरे हवाले, बाबा।”

5. इंसानियत की नई उम्मीद

रात के तीसरे पहर अचानक उनके आंचल पर किसी ने हल्के हाथ से स्पर्श किया।
यह आवाज एक मंदिर के पुजारी की थी। शांति देवी ने कांपते हुए कहा—”हमारा बेटा गया है प्रसाद लेने, आएगा अभी।”
पुजारी ने उनकी हालत देखी और तुरंत समझ गया कि यह कोई साधारण स्थिति नहीं है।

पास ही खड़ी एक समाजसेवी महिला मीरा भी उधर से गुजरी। उसने जब बूढ़े माता-पिता की आंखों से बहते आंसू और कांपते हाथ देखे तो उसका दिल पिघल गया।
मीरा ने धीरे से उनके कंधे पर हाथ रखा—”मां-बाप, आप चिंता मत कीजिए, यहां कोई किसी को अकेला नहीं छोड़ता। बाबा बद्रीनाथ की नगरी में इंसानियत अभी जिंदा है।”

मीरा ने उन्हें सहारा देकर उठाया और पुजारी के साथ अपने छोटे से घर ले गई। वहां उन्हें खाना दिया गया, पानी पिलाया गया।
शांति देवी हर कौर खाते हुए रो पड़ती—”आज तक मैं बेटे को खिलाकर ही संतुष्ट होती थी, आज पहली बार अजनबी मुझे खिला रहे हैं।”

6. नई शुरुआत

मीरा और पुजारी ने मिलकर उन्हें मंदिर के बाहर छोटी सी जगह दिला दी। एक पुरानी टोकरी और कुछ फूल लेकर शांति देवी और मोहनलाल ने बाबा बद्रीनाथ के दरवाजे पर फूल बेचने का काम शुरू किया।
पहले दिन ही उनकी झिझक साफ झलक रही थी। कांपते हाथों से बेलपत्र और फूलों की माला सजाते और श्रद्धालुओं से कहते—”बाबा के लिए बेलपत्र ले लो, बाबा आशीर्वाद देंगे।”

लोग उनके चेहरे की मासूमियत और आंखों की सच्चाई देखकर रुक जाते। कोई उनसे फूल लेता, कोई बिना लिए भी उनके पैर छूकर आशीर्वाद मांगता।
धीरे-धीरे श्रद्धालुओं में यह बात फैल गई—माता-पिता से फूल लो, उनका आशीर्वाद साथ मिलेगा।

दिन गुजरते गए, छोटा सा काम अब चलने लगा। उनकी दुकान टोकरी से बढ़कर एक छोटी मेज तक पहुंची, फिर दुकान की शक्ल लेने लगी।
अब शांति देवी और मोहनलाल हर सुबह खुद फूल सजाते, साफ-सुथरे कपड़े पहनते, दुकान पर बैठ जाते। उनके चेहरे पर दुख की परछाई धीरे-धीरे मिट रही थी।

7. सम्मान और आत्मनिर्भरता

मीरा ने हंसकर कहा—”मां-बाप, देखो बाबा ने आपको कितना बड़ा तोहफा दिया है। जिसने आपको छोड़ा, उसने तो सोचा भी नहीं होगा कि आप एक दिन इतने मजबूत बन जाएंगे।”
शांति देवी ने आसमान की ओर देखा—”सही कहा बेटी, बेटे ने हमें बोझ समझा, लेकिन बाबा ने हमें सहारा दिया। अब यह फूल ही हमारा जीवन है और यही हमारी पहचान।”

समय के साथ उनकी दुकान मंदिर की सबसे प्रसिद्ध फूल की दुकान बन गई। लोग दूर-दूर से सिर्फ मां-बाप से फूल लेने आते।
अब उनके पास ना सिर्फ सम्मान था बल्कि पैसों की कोई कमी भी नहीं रही। लाखों रुपए तक उनकी दुकान से कमाई होने लगी।

माता-पिता के चेहरे पर अब दर्द नहीं, बल्कि संतोष और आत्मविश्वास था। वे कहते—”बाबा बद्रीनाथ की नगरी में जो भी आता है, खाली हाथ नहीं जाता। हमें बेटा छोड़ गया था, लेकिन बाबा ने हमें नया परिवार दे दिया।”

8. बेटे का पछतावा

बरसों बीत गए। बद्रीनाथ की गलियों में अब एक नाम हर जुबान पर था—शांति देवी की फूलों की दुकान।
बूढ़े शांति देवी और मोहनलाल अब सिर्फ फूल नहीं बेचते थे, बल्कि हर फूल के साथ आशीर्वाद भी देते थे।

इसी बीच एक दिन मंदिर परिसर में भीड़ में अचानक एक चेहरा दिखा—विक्रम।
उसके चेहरे पर वही तेज था, लेकिन अब थकावट और परेशानी की गहरी लकीरें थीं। कारोबार में भारी नुकसान, घर टूटने की कगार पर, पत्नी भी छोड़कर जा चुकी थी।

जैसे ही उसकी नजर फूलों की दुकान पर बैठे माता-पिता पर पड़ी, उसके कदम थम गए।
वह वहीं पत्थर बनकर खड़ा रह गया। यह वही माता-पिता थे जिन्हें उसने बोझ समझा था, तीर्थ यात्रा के बहाने यहां छोड़ गया था।

आज वही माता-पिता मंदिर के बाहर सम्मान की मूरत बन चुके थे।

वह दौड़कर माता-पिता के पैरों में गिर पड़ा और फूट-फूट कर रोने लगा—”मां-पिताजी, मुझे माफ कर दो। मैंने बहुत बड़ा पाप किया। मैंने तुम्हें धोखा दिया, तुम्हें छोड़ा और आज देखो मेरी हालत। कृपया मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें घर ले जाना चाहता हूं।”

आसपास खड़े श्रद्धालु यह दृश्य देखकर स्तब्ध रह गए। सबकी नजरें माता-पिता पर टिक गईं।

9. माफ़ी और सीख

शांति देवी ने बेटे के सिर पर हाथ रखा—”बेटा, माता-पिता अपने बच्चों को कभी श्राप नहीं देते। जिस दिन तूने हमें यहां छोड़ा था, उसी दिन हमने तुझे माफ कर दिया था। लेकिन याद रख, इंसान के कर्म ही उसका भाग्य लिखते हैं। तूने हमें बोझ समझा था, पर बाबा ने हमें सहारा दिया। अब हमारा घर यही है, हमारा परिवार यही है। हम तेरे साथ नहीं जाएंगे।”

विक्रम ने सिर झुका लिया। उसके पास कहने को शब्द नहीं बचे थे। पछतावे का बोझ उसके कंधों पर और भारी हो गया।

भीड़ में खड़े लोगों की आंखें नम हो गईं। किसी ने धीमे से कहा—”देखो, यही भगवान का न्याय है। जिसने माता-पिता को छोड़ा, वह आज खाली हाथ रह गया और जिसे छोड़ा गया, वही माता-पिता आज हजारों का सहारा बन गए।”

माता-पिता ने अंतिम बार बेटे को उठाया और कहा—”अगर तुझे सच में हमारी माफी चाहिए तो जा और अपने कर्म बदल। माता-पिता को बोझ समझना सबसे बड़ा अपराध है। भगवान तुझे सुधरने का अवसर दे, यही हमारी अंतिम दुआ है।”

विक्रम रोते-रोते वहीं जमीन पर बैठ गया। माता-पिता ने मंदिर की ओर देखा और अपनी फूलों की दुकान पर बैठ गए।
उनके चेहरे पर अब किसी छोड़े गए इंसान का दर्द नहीं था, बल्कि उस माता-पिता का गर्व था जो अपने त्याग और आत्मनिर्भरता से समाज को सिखा रहे थे कि माता-पिता को कभी बोझ मत समझो।

10. अंतिम संदेश

जिनसे तुम मुंह मोड़ते हो, वही भगवान उन्हें और मजबूत बना देते हैं और तुम्हें पछतावे के सिवा कुछ नहीं मिलता।

अब सवाल आपसे है:
क्या माता-पिता का यह फैसला सही था कि उन्होंने बेटे को माफ तो कर दिया, लेकिन उसके साथ कभी नहीं गए?
अगर आप माता-पिता की जगह होते, तो क्या यही करते?

अपनी राय जरूर बताइए। अगर कहानी ने दिल छू लिया हो, तो इसे शेयर करें। रिश्तों की कीमत समझिए।

जय हिंद, जय भारत।

समाप्त