दुबई के एक लेबर कैम्प में रोजाना बिल्लियां गायब हो जाती थी, जब सच्चाई सामने आयी तो सभी के होश उड़ गए

“लेबर कैंप की बिल्लियां: दुबई की चकाचौंध के पीछे इंसानियत की जंग”
दुबई… एक ऐसा शहर, जिसे दुनिया सपनों का शहर कहती है। ऊंची-ऊंची इमारतें, जगमगाते मॉल्स, सोने के बाजार। पर इन चमकदार इमारतों की नींव में जिन हाथों का पसीना है, उनकी अपनी एक अलग और सच्ची दुनिया है। शहर के बाहरी इलाकों में बने लेबर कैंपों में हजारों मजदूर रहते हैं – भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, फिलीपींस और अफ्रीका से आए हुए। उनकी जिंदगी में न रंग है, न रौनक, बस है तो मेहनत, थकान और अपने घर की याद।
इसी अलखैल गेट के पास के एक कैंप के ब्लॉक नंबर सात में रहती थी यह कहानी। यहां की सबसे बड़ी खासियत थी – बिल्लियां। दर्जनों बिल्लियां, जो किसी एक की नहीं थीं, पूरे कैंप की थीं। मजदूरों के खाने का बचा-खुचा टुकड़ा, उनकी गोद की गर्माहट और उनके अकेलेपन की साथी थीं ये बिल्लियां। रहीम शेख, बांग्लादेश का एक 40 साल का मजदूर, उन्हीं में से एक था जिसे सफेद बिल्ली ‘रानी’ से बड़ा लगाव था। खान बाबा, 60 साल के पाकिस्तानी पठान, अपने भूरे बिल्ले के बिना अधूरे थे। संदीप, पंजाब का हंसमुख लड़का, बिल्लियों के बच्चों के साथ खेलकर अपना दिन काटता था।
जिंदगी की इस बेरंग किताब में बिल्लियां जैसे एक रंगीन पन्ना थीं। लेकिन फिर अचानक एक दिन बिल्लियां गायब होने लगीं। पहले रहीम की रानी, फिर खान बाबा का भूरा बिल्ला, फिर एक-एक करके सारी बिल्लियां। जिस अहाते में हमेशा दस-बारह बिल्लियां घूमती थीं, वहां अब मुश्किल से दो-चार ही बची थीं।
रहीम बेचैन था। उसने बाकी मजदूरों से बात की – किसी ने कहा, “गर्मी बढ़ गई है, कहीं और चली गई होंगी।” किसी ने कहा, “नगर पालिका वाले पकड़कर ले गए होंगे।” मगर रहीम को यकीन नहीं हुआ। उसके दिल में डर था कि इन बेजुबानों के साथ कुछ बुरा हो रहा है।
उसने गौर किया कि फिलीपीनी मजदूर, जो बाकी लोगों से अलग-थलग रहते थे, अब और भी चुप-चाप हो गए हैं। उनके कमरों से कभी-कभी अजीब गंध आती थी। रहीम ने अपनी शंका खान बाबा और संदीप के साथ बांटी। खान बाबा ने कहा, “बिना सबूत किसी पर इल्जाम लगाना ठीक नहीं।” मगर तय हुआ कि वे तीनों मिलकर रात में पहरा देंगे।
पहली दो रातें यूं ही बीत गईं। तीसरी रात, ब्लॉक के पीछे पानी की टंकियों के पास छिपे खान बाबा ने देखा – लियो नाम का एक फिलीपीनी मजदूर एक कटोरे में दूध लेकर एक काली बिल्ली के पास गया, जैसे ही बिल्ली खाने लगी, उसने कपड़ा डालकर उसे दबोच लिया। फिर अंधेरे में ले जाकर उसका गला काट दिया। खान बाबा पत्थर की तरह वहीं खड़े रह गए। थोड़ी देर बाद लियो अपने कमरे में लौट गया, उसके कपड़ों पर खून के धब्बे थे।
खान बाबा ने रहीम और संदीप को बुलाया, सबने मिलकर तय किया कि अब कंपनी के इंजीनियर मिस्टर अब्दुल्ला के पास जाएंगे। अगली सुबह, सभी मजदूर काम छोड़कर कंपनी के हेड ऑफिस पहुंचे। मिस्टर अब्दुल्ला ने उनकी बात गंभीरता से सुनी और भरोसा दिलाया कि दोषियों को सजा मिलेगी। उन्होंने गुप्त रूप से ब्लॉक के पीछे सीसीटीवी कैमरे लगवा दिए।
एक हफ्ते बाद, कैमरे में वही हरकत रिकॉर्ड हो गई – लियो और उसके दो साथी फिर एक बिल्ली को मारते हुए पकड़े गए। अगले ही दिन पुलिस और कंपनी की सिक्योरिटी टीम ने उन तीनों को रंगे हाथों पकड़ लिया। उनके कमरे से बिल्ली का मांस भी बरामद हुआ। पूछताछ में उन्होंने कबूल किया कि उनके देश के कुछ इलाकों में बिल्लियों का मांस खाया जाता है, और उन्हें लगा कि यहां कोई नहीं देखेगा।
उन तीनों पर जानवरों के प्रति क्रूरता का केस चला, वीजा कैंसिल हुए और उन्हें हमेशा के लिए यूएई से डिपोर्ट कर दिया गया। रहीम, खान बाबा और संदीप को कंपनी ने बहादुरी और समझदारी के लिए इनाम दिया। कैंप में जो कुछ बिल्लियां बची थीं, उनका अब और भी ज्यादा ख्याल रखा जाने लगा। इस घटना ने भारतीय, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी मजदूरों के बीच एक अनकहा, मजबूत रिश्ता जोड़ दिया था।
रहीम अब भी अपने कमरे के बाहर बैठता है। रानी तो कभी वापस नहीं आएगी, लेकिन अब एक छोटा सा भूरे रंग का बिल्ली का बच्चा उसकी गोद में बैठ जाता है। उसकी आंखों में रहीम को विश्वास दिखता है – वही विश्वास, जिसकी हिफाजत के लिए उसने और उसके साथियों ने इतनी बड़ी लड़ाई लड़ी थी।
सीख:
यह कहानी हमें बताती है कि इंसानियत और दया की जंग हर जगह लड़ी जाती है – चाहे वह आलीशान दफ्तर हो या मजदूरों का छोटा सा कमरा। बेजुबान जानवरों के प्रति हमारा व्यवहार ही हमारी असली इंसानियत का पैमाना है। रहीम और उसके साथियों ने साबित कर दिया कि अगर दिल में दया और हिम्मत हो, तो अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई जा सकती है।
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