दोस्त की शादी में मेहमान बनकर गया था लेकिन किस्मत ने उसी को दूल्हा बना दिया , फिर जो हुआ देख सब

“मेहमान से दूल्हा – किस्मत का खेल”
क्या होता है जब किस्मत आपकी जिंदगी की किताब में एक ऐसा पन्ना जोड़ दे, जिसके बारे में आपने कभी सोचा भी न हो? क्या होता है जब आप किसी की खुशियों में शरीक होने जाएं और वही खुशियां आपकी झोली में आ गिरें, वो भी तब जब आप उसके काबिल भी न समझे जाते हों?
यह कहानी है अनुज की। एक ऐसे गरीब लड़के की, जो अपने जिगरी दोस्त की आलीशान शादी में सिर्फ एक मेहमान बनकर पहुंचा था। उसके पास देने के लिए महंगे तोहफे नहीं थे, बस दिल में सच्ची दोस्ती और आंखों में अपने दोस्त के लिए खुशी थी।
पर उस दिन किस्मत ने ऐसी करवट ली कि दूल्हे के चेहरे की जगह ऐसी अदला-बदली हुई कि अनुज, जो सिर्फ बारात का हिस्सा था, खुद दूल्हा बन बैठा। उसे उस लड़की का हाथ थामना पड़ा, जिसके ख्वाब देखने की भी उसने कभी हिम्मत नहीं की थी। यह कोई खुशी का पल नहीं था, बल्कि एक मजबूरी थी, एक इज्जत बचाने का सौदा था।
पर जब सालों बाद वक्त ने फिर पन्ने पलटे और वो मेहमान दूल्हा एक कामयाब इंसान बनकर सबके सामने आया, तो उस दिन जो हुआ उसने हर उस शख्स को हैरान कर दिया जिसने कभी उसे मेहमान से ज्यादा समझने की भूल की थी।
यह कहानी है दोस्ती की, किस्मत के खेल की और उस अटूट विश्वास की, जो बताता है कि इंसान की असली कीमत उसके कपड़ों या उसकी जेब से नहीं, उसके किरदार और उसकी नीयत से होती है।
भाग 1 – अनुज का बचपन और दोस्ती
उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गुमनाम गांव में, जहां आज भी जिंदगी बैलगाड़ी की रफ्तार से चलती थी, वहीं अनुज का जन्म हुआ था। मिट्टी का कच्चा घर, दो बीघा बंजर जमीन और सिर पर बूढ़े मां-बाप की जिम्मेदारी – बस यही उसकी कुल जमा पूंजी थी।
अनुज के पिता गांव के छोटे से मंदिर के पुजारी थे, जिनकी कमाई इतनी थी कि बस जैसे-तैसे दो वक्त की रोटी जुट पाती थी। अनुज पढ़ाई में तेज था, पर गरीबी ने उसे 10वीं के बाद स्कूल का मुंह नहीं देखने दिया। वह खेतों में मजदूरी करता, कभी गांव में किसी की छोटी-मोटी मदद कर देता और जो कुछ पैसे मिलते, उससे घर का चूल्हा जलता और मां की दवाइयां आतीं।
पर इस गरीबी के अंधेरे में भी अनुज के पास एक चीज थी जो अनमोल थी – उसकी दोस्ती।
विक्रम उसका बचपन का दोस्त था, गांव के जमींदार का बेटा। दोनों की दुनिया बिल्कुल अलग थी, पर बचपन में ना जमींदारी की दीवार होती है, न गरीबी की खाई। वे साथ खेले थे, साथ पढ़े थे जब तक अनुज पढ़ सका, और एक-दूसरे पर जान छिड़कते थे।
विक्रम थोड़ा शरारती और जिद्दी था, पर दिल का बुरा नहीं था। अनुज शांत, समझदार और बेहद वफादार था।
वक्त बदला, विक्रम पढ़ने के लिए शहर चला गया, फिर विदेश। अनुज वहीं गांव की मिट्टी में रच-बस गया। पर उनकी दोस्ती की डोर कमजोर नहीं पड़ी। विक्रम जब भी छुट्टियों में गांव आता, वह अनुज से जरूर मिलता। वह अनुज के लिए शहर से तोहफे लाता और अनुज उसे अपने हिस्से की रोटी भी खिलाने को तैयार रहता।
भाग 2 – शादी का न्योता और अनुज की मुश्किलें
विक्रम के पिता चाहते थे कि विक्रम उनके कारोबार को संभाले और एक बड़े घर की लड़की से शादी करके उनकी शान बढ़ाए। उन्होंने विक्रम की शादी दिल्ली के सबसे बड़े उद्योगपतियों में से एक, मिस्टर सरीन की इकलौती बेटी प्रिया से तय कर दी।
प्रिया बेहद खूबसूरत, पढ़ी-लिखी और संस्कारी लड़की थी। विक्रम ने भी इस रिश्ते के लिए हां कर दी थी, शायद इसलिए कि प्रिया उसकी शान के मुताबिक थी या शायद इसलिए कि वह अपने पिता को नाराज नहीं करना चाहता था।
शादी की तैयारियां जोरों पर थीं। यह शादी नहीं, बल्कि दो बड़े कारोबारी घरानों का मिलन था। कार्ड छपे, करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जाने लगे।
विक्रम ने अनुज को फोन किया – “अनुज, तुझे मेरी शादी में आना ही होगा। तेरे बिना मेरी शादी अधूरी है।”
अनुज की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसका जिगरी दोस्त दूल्हा बन रहा था। पर अगले ही पल वो उदास हो गया। इतनी बड़ी शादी दिल्ली शहर, वो वहां क्या करेगा? उसके पास ना ढंग के कपड़े थे, ना देने के लिए कोई कीमती तोहफा।
“अनुज, मैं कैसे आ पाऊंगा?” उसने हिचकिचाते हुए कहा।
“विक्रम, कोई बहाना नहीं चलेगा अनुज। तू मेरा भाई है और भाई अपनी भाई की शादी में मेहमान नहीं होता। तू बस आजा, बाकी सब मैं देख लूंगा।”
अनुज ने मां-बाप से इजाजत ली। मां ने अपनी सालों पुरानी इकलौती अच्छी साड़ी बेचकर अनुज के लिए एक सस्ता सा कुर्ता-पैजामा खरीदा और रास्ते के खर्च के लिए कुछ रुपए दिए।
अनुज के पास विक्रम को देने के लिए कुछ नहीं था, सिवाय गांव के मंदिर के प्रसाद और अपने हाथों से बनी एक छोटी सी लकड़ी की नक्काशी वाली डिबिया के, जिसे उसने विक्रम के लिए बचपन में बनाया था।
वो टूटी-फूटी बस में बैठकर दिल्ली पहुंचा। विक्रम ने उसे लेने के लिए स्टेशन पर अपनी महंगी गाड़ी भेजी थी। अनुज उस गाड़ी में बैठते हुए भी हिचकिचा रहा था।
विक्रम का फार्म हाउस किसी महल से कम नहीं था। हजारों मेहमान, जगमगाती रोशनी, विदेशी फूलों की सजावट – अनुज उस भीड़ में बिल्कुल अकेला और खोया हुआ महसूस कर रहा था। उसके दाव वाले कपड़े और उसकी हिचकिचाहट लोगों की नजरों में चुभ रही थी।
विक्रम उससे मिला पर बहुत व्यस्त था। उसने अनुज को गले लगाया और नौकर को उसे एक कमरा दिखाने को कहा – “आराम कर अनुज, शाम को संगीत है।”
अनुज उस कमरे में पहुंचा, जो उसके गांव के घर से भी बड़ा था। पर उसे वहां घुटन महसूस हो रही थी। वो इस दुनिया का हिस्सा नहीं था।
भाग 3 – संगीत की रात और प्रिया से पहली मुलाकात
शाम को संगीत का कार्यक्रम था। बड़े-बड़े सिंगर आए थे। लोग नाच-गा रहे थे, महंगी शराब पी रहे थे। अनुज एक कोने में चुपचाप खड़ा यह सब देख रहा था।
तभी उसकी नजर प्रिया पर पड़ी। दुल्हन के लिबास में वह किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थी। पर उसकी आंखों में वह खुशी नहीं थी, जो एक दुल्हन की आंखों में होनी चाहिए। वह खोई-खोई सी लग रही थी, जैसे वह वहां होकर भी वहां नहीं थी।
अनुज ने उसे पहले कभी नहीं देखा था, पर उसे देखकर अनुज के दिल में एक अजीब सी हलचल हुई। एक अनजाना सा दर्द महसूस हुआ।
भाग 4 – मंडप का तूफान
शादी का दिन आ गया। फार्म हाउस मेहमानों से खचाखच भरा था। बैंड-बाजा, शहनाइयां सब कुछ चरम पर था।
विक्रम सोने की शेरवानी पहने घोड़े पर सवार होकर बारात लेकर पहुंचा। उसका चेहरा खुशी से दमक रहा था। अनुज भी बारात में शामिल था, पर वह सबसे पीछे एक कोने में चल रहा था। उसकी नजरें बस प्रिया के घर के गेट पर टिकी थीं। वह बस एक बार प्रिया की झलक पाना चाहता था।
बारात दुल्हन के दरवाजे पर पहुंची। आरती हुई, मालाएं बदली गईं। सब कुछ रीति-रिवाज के अनुसार हो रहा था।
पर जैसे ही विक्रम मंडप की तरफ बढ़ा, अचानक कुछ ऐसा हुआ जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।
पुलिस की गाड़ियों के सायरन गूंजने लगे। कई पुलिस जीपें तेजी से फार्म हाउस के अंदर घुस आईं। उनमें से हथियार बंद पुलिस वाले उतरे और उन्होंने पूरे मंडप को घेर लिया।
एक सीनियर इंस्पेक्टर सीधा विक्रम के पास पहुंचा – “मिस्टर विक्रम, आपको हमारे साथ चलना होगा।”
सब लोग सन रह गए। विक्रम के पिता जमींदार साहब गुस्से से आगे बढ़े – “यह क्या बकवास है? आप जानते हैं यह कौन है? यह मंत्री जी का होने वाला दामाद है।”
इंस्पेक्टर ने शांति से कहा – “हम सब जानते हैं साहब, पर कानून अपना काम करेगा। इनके खिलाफ धोखाधड़ी और एक पुराने मर्डर केस में शामिल होने के पुख्ता सबूत मिले हैं। हमें इन्हें गिरफ्तार करना होगा।”
मंडप में जैसे बम फट गया। प्रिया के पिता मंत्री सरीन साहब, जो अब तक मुस्कुरा रहे थे, उनका चेहरा सफेद पड़ गया। प्रिया वहीं मंडप में मूर्ति की तरह खड़ी रह गई।
विक्रम चीखने लगा – “यह झूठ है, यह साजिश है, पापा कुछ कीजिए!”
जमींदार साहब ने अपनी सारी पहुंच लगाने की कोशिश की, पर इंस्पेक्टर के पास ऊपर से आदेश थे। पुलिस विक्रम को लगभग घसीटते हुए वहां से ले गई।
मंडप में मौत जैसा सन्नाटा छा गया। शहनाइयां बंद हो गईं। मेहमान कानाफूसी करने लगे। दुल्हन बनी प्रिया जमीन पर बैठने ही वाली थी कि उसकी सहेलियों ने उसे संभाला। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे।
मंत्री सरीन साहब का चेहरा शर्मिंदगी और गुस्से से लाल हो गया था। उनकी इज्जत, उनकी सालों की साख आज मिट्टी में मिल गई थी। उनकी बेटी, जिसके लिए उन्होंने इतने सपने देखे थे, आज मंडप में अकेली खड़ी थी।
बारात लौट चुकी थी। मेहमान खिसकने लगे थे।
भाग 5 – अनुज की किस्मत बदलती है
अनुज जो यह सब दूर खड़ा देख रहा था, उसका दिल टूट गया। विक्रम के लिए दुख था, पर उससे ज्यादा दुख उसे प्रिया की हालत देखकर हो रहा था।
वो लड़की जिसकी आंखों में उसने कल रात उदासी देखी थी, आज उसकी जिंदगी सचमुच तबाह हो गई थी।
तभी मंत्री सरीन साहब की नजर अनुज पर पड़ी। अनुज जो अपने सस्ते कुर्ते-पजामे में भी उस भीड़ में अपनी सादगी और आंखों की सच्चाई के कारण अलग दिख रहा था।
वह विक्रम का दोस्त था, गांव से आया था। सरीन साहब ने जमींदार साहब से उसके बारे में पूछा था। जमींदार साहब ने बताया था कि लड़का गरीब है, पर हीरा है – ईमानदार, मेहनती और वफादार।
सरीन साहब के दिमाग में अचानक एक तूफान उठा। उनकी इज्जत दांव पर थी। अगर आज उनकी बेटी की शादी नहीं हुई तो वह समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। उनका राजनीतिक करियर तबाह हो जाएगा।
वह धीरे-धीरे अनुज के पास आए। अनुज उन्हें देखकर घबरा गया।
“बेटा, तुम्हारा नाम अनुज है?”
“जी साहब।”
“तुम विक्रम के दोस्त हो?”
“जी।”
सरीन साहब ने गहरी सांस ली – “बेटा, आज तुमने देखा क्या हुआ? मेरी बेटी, मेरी इज्जत, सब कुछ दांव पर है।”
अनुज चुप रहा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि मंत्री जी उससे यह सब क्यों कह रहे हैं।
“बेटा, मैं तुमसे एक मदद मांगना चाहता हूं। क्या तुम मेरी बेटी से शादी करोगे? अभी इसी मंडप में?”
अनुज के पैरों तले जमीन खिसक गई। क्या वह और प्रिया से शादी – यह कैसे हो सकता है? वह एक गरीब मजदूर और वह मंत्री की बेटी!
“नहीं साहब, यह पाप है। मैं यह नहीं कर सकता।”
“पाप नहीं है बेटा,” सरीन साहब की आंखों में आंसू आ गए। “यह पुण्य होगा। तुम एक लड़की की इज्जत बचाओगे, एक बाप की पगड़ी बचाओगे। मैं जानता हूं तुम विक्रम के दोस्त हो, पर आज तुम्हें इंसानियत का फर्ज निभाना होगा।”
अनुज ने प्रिया की तरफ देखा। वो रो रही थी, पर उसकी आंखों में एक अजीब सी उम्मीद भी थी, जैसे वह भी यही चाहती हो। अनुज के अंदर एक द्वंद छिड़ गया।
उसका दोस्त जेल में था, उसकी होने वाली दुल्हन अब उसकी दुल्हन बनने वाली थी। यह धोखा था या किस्मत का लिखा था?
उसने अपने मां-बाप का चेहरा याद किया – उनकी गरीबी, उनकी उम्मीदें। फिर उसने प्रिया का रोता हुआ चेहरा देखा। उसने एक फैसला किया, जो उसकी जिंदगी को हमेशा के लिए बदलने वाला था।
“ठीक है साहब,” उसकी आवाज कांप रही थी, “अगर आपकी बेटी राजी है तो मैं तैयार हूं।”
सबकी नजरें प्रिया पर टिक गईं। प्रिया ने धीरे से अपनी रोती हुई आंखें उठाई और अनुज की तरफ देखा। उसने कुछ कहा नहीं, बस धीरे से सिर हिला दिया।
उस रात, उसी सूने मंडप में बिना बैंड-बाजे, बिना मेहमानों के अनुज और प्रिया की शादी हो गई।
अनुज जो मेहमान बनकर आया था, दूल्हा बनकर विदा हुआ। पर यह विदाई खुशी की नहीं, आंसुओं और अनिश्चितता से भरी थी।
भाग 6 – नई जिंदगी की शुरुआत
अनुज प्रिया को लेकर अपने गांव वापस लौटा। गांव वाले हैरान थे – जमींदार का बेटा जेल में और पुजारी का बेटा उसकी दुल्हन ले आया। तरह-तरह की बातें होने लगीं।
अनुज के मां-बाप भी सक्ते में थे – मंत्री की बेटी, उनकी बहू!
प्रिया के लिए यह किसी नर्क से कम नहीं था। कहां दिल्ली का आलीशान महल और कहां यह मिट्टी का कच्चा घर – ना बिजली, ना पानी, ना कोई सुख-सुविधा।
पर प्रिया ने उफ तक नहीं की। शायद वह अपनी किस्मत को स्वीकार कर चुकी थी या शायद अनुज की आंखों में उसे वह सच्चाई दिखी थी, जो विक्रम की आंखों में कभी नहीं थी।
अनुज ने प्रिया से कहा, “मैं जानता हूं यह तुम्हारे लायक नहीं है, पर मैं वादा करता हूं मैं इतनी मेहनत करूंगा कि तुम्हें किसी चीज की कमी ना हो।”
प्रिया ने सिर्फ इतना कहा, “मुझे कुछ नहीं चाहिए अनुज, बस तुम मेरा साथ मत छोड़ना।”
अनुज ने फिर से खेतों में मजदूरी शुरू कर दी। वह दिन-रात काम करता। प्रिया भी घर के कामों में हाथ बंटाने लगी। उसने शहर की लड़की होने के बावजूद गोबर उठाया, चूल्हा फूंका और हर मुश्किल में अनुज का साथ दिया।
अनुज की मां, जो पहले डरी हुई थी, अब प्रिया को अपनी बेटी की तरह प्यार करने लगी थी।
मंत्री सरीन साहब ने अनुज की मदद करने की पेशकश की। उन्होंने कहा कि वह अनुज को दिल्ली में कोई अच्छी नौकरी दिलवा देंगे।
पर अनुज ने मना कर दिया – “नहीं साहब, मैं अपनी किस्मत अपने हाथों से बनाऊंगा। मुझे आपकी दौलत नहीं, बस आपका आशीर्वाद चाहिए।”
सरीन साहब अनुज की इस खुद्दारी से बहुत प्रभावित हुए।
भाग 7 – संघर्ष, मेहनत और बदलाव
अनुज सिर्फ मेहनती ही नहीं, दिमाग का भी तेज था। उसने देखा कि गांव के किसान अपनी फसल बिचौलियों को औने-पौने दामों में बेचने पर मजबूर हैं।
उसने गांव के कुछ और नौजवानों को इकट्ठा किया। उन्हें समझाया कि अगर वे सब मिलकर अपनी फसल सीधे शहर की मंडियों में ले जाएं, तो उन्हें अच्छा दाम मिलेगा।
यह काम आसान नहीं था। बिचौलियों ने उन्हें धमकाया, रास्ते रोके, पर अनुज ने हार नहीं मानी। प्रिया ने भी उसका पूरा साथ दिया। वह पढ़ी-लिखी थी, उसने हिसाब-किताब संभाला, शहर के व्यापारियों से बात की।
धीरे-धीरे उनकी मेहनत रंग लाने लगी। गांव के किसानों को उनकी फसल का अच्छा दाम मिलने लगा। गांव में थोड़ी खुशहाली आने लगी।
अनुज ने गांव में ही एक छोटा सा कोऑपरेटिव यानी सहकारी समिति शुरू की। वह किसानों से उचित मूल्य पर अनाज खरीदता और उसे प्रोसेस करके शहर में बेचता।
5 साल बीत गए। इन 5 सालों में अनुज ने अपनी मेहनत और ईमानदारी से गांव की तस्वीर बदल दी थी।
वह कच्चा घर अब पक्का बन गया था। गांव में बिजली आ गई थी। बच्चे स्कूल जाने लगे थे।
राम भरोसे अब सिर्फ एक किसान नहीं, बल्कि ग्राम सुधार कोऑपरेटिव का मैनेजिंग डायरेक्टर था, जिसका सालाना टर्नओवर अब करोड़ों में था।
उसने गांव में एक छोटा सा अस्पताल भी खुलवा दिया था। वो अब गांव का हीरो बन चुका था।
प्रिया उसकी सबसे बड़ी ताकत थी। उन दोनों के बीच अब सिर्फ मजबूरी का रिश्ता नहीं, बल्कि गहरा प्यार और सम्मान था। उनका एक छोटा सा बेटा भी था।
भाग 8 – विक्रम की वापसी और माफी
विक्रम को मर्डर केस में तो सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया, पर धोखाधड़ी के मामले में उसे 7 साल की सजा हुई।
जेल ने उसके घमंड को तोड़ दिया था। जब वह सजा काट कर बाहर निकला तो उसके पास कुछ नहीं बचा था।
जमींदार पिता सदमे से गुजर चुके थे, जमीन बिक चुकी थी, दोस्त साथ छोड़ चुके थे। वो बिल्कुल अकेला और कंगाल था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह कहां जाए, क्या करे।
उसे अनुज की याद आई – वही अनुज जिसे वह अपना भाई कहता था और जिसकी जिंदगी उसने अनजाने में ही सही बदल दी थी।
पर क्या अनुज उसे माफ करेगा?
वह हिम्मत करके पैदल ही कई दिनों का सफर तय करके अनुज के गांव पहुंचा। गांव को देखकर वह हैरान रह गया। यह वह पिछड़ा हुआ गांव नहीं था जिसे वह जानता था।
यहां पक्की सड़कें थीं, अच्छे मकान थे, स्कूल था। उसने लोगों से अनुज का पता पूछा। लोग उसे अनुज भैया के शानदार पर सादे घर तक ले आए।
दरवाजे पर प्रिया खड़ी थी – बिल्कुल वैसे ही खूबसूरत, पर अब उसकी आंखों में उदासी नहीं, बल्कि शांति और आत्मविश्वास था।
प्रिया ने विक्रम को पहचाना। एक पल के लिए वह ठिठकी, फिर बोली, “आप?”
विक्रम की आंखें भर आईं। वह कुछ बोल नहीं पाया, बस सिर झुकाए खड़ा रहा।
तभी अंदर से अनुज आया। उसने विक्रम को देखा – उसके चेहरे पर ना गुस्सा था, ना नफरत, बस एक गहरी शांति।
“विक्रम, तुम यहां?”
विक्रम उसके पैरों पर गिर पड़ा – “मुझे माफ कर दो अनुज। मैंने तुम्हारे साथ, प्रिया के साथ बहुत गलत किया। मैं बर्बाद हो गया हूं, मेरे पास कुछ नहीं बचा है।”
अनुज ने उसे उठाया – “उठो विक्रम, जो हुआ वो किस्मत का खेल था। उसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं थी।”
“नहीं अनुज,” प्रिया ने कहा, “गलती थी। गलती थी दौलत के घमंड की, गलती थी रिश्तों को ना समझने की।”
अनुज ने विक्रम की तरफ देखा – “तुम यहां क्यों आए हो?”
“बस तुम्हें देखने, शायद तुम मुझे कोई छोटा-मोटा काम दे सको, मैं कुछ भी कर लूंगा।”
विक्रम की आवाज में बेबसी थी।
अनुज कुछ देर चुप रहा, फिर मुस्कुराया – “हां विक्रम, काम तो है। मेरे कोऑपरेटिव को एक अच्छे मैनेजर की जरूरत है, शहर का काम देखने के लिए। रहोगे?”
विक्रम को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ – “मैनेजर? वो अनुज उसे नौकरी दे रहा है? पर अनुज, मैं…”
“मेरे दोस्त हो विक्रम, और दोस्त मुश्किल में काम आते हैं।”
उस दिन विक्रम उस घर में मेहमान बनकर रुका, जहां की बहू कभी उसकी होने वाली थी। उसने अनुज और प्रिया की आंखों में अपने लिए नफरत नहीं, बल्कि हमदर्दी देखी।
उसने देखा कि असली दौलत पैसों में नहीं, बल्कि प्यार, सम्मान और माफी में होती है।
उसने अनुज के साथ मिलकर काम किया। अपनी गलतियों से सीखा और सालों बाद विक्रम भी एक बदला हुआ, बेहतर इंसान बन गया।
भाग 9 – कहानी का संदेश
दोस्तों, यह कहानी हमें सिखाती है कि किस्मत कब, कहां, कैसे पलट जाए, कोई नहीं जानता।
पर जो चीज हमेशा हमारे साथ रहती है, वह है हमारा किरदार, हमारी इंसानियत।
अनुज मेहमान बनकर गया था, पर दूल्हा बनकर उसने ना सिर्फ एक इज्जत बचाई बल्कि अपनी सच्ची किस्मत भी पाई।
अगर अनुज की इस कहानी ने आपके दिल को छुआ है, तो इस कहानी को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें ताकि यह संदेश हर किसी तक पहुंच सके कि सच्ची अमीरी दिल की होती है।
और ऐसी ही और दिल को छू लेने वाली सच्ची और प्रेरणादायक कहानियों के लिए हमारे चैनल को सब्सक्राइब करना ना भूलें।
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