पत्नी बोली — फैसला कर लो… इस घर में तेरा बाप रहेगा या मैं… लेकिन फिर जो हुआ
बेटे के फैसले ने रिश्तों को आईना दिखा दिया”
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज शहर की इस कहानी में रिश्तों की असली कीमत और आज के समाज की सच्चाई छुपी है।
आदित्य और रीना की शादी की पहली सालगिरह थी। घर मेहमानों से भरा था, केक काटा गया, तालियां बजीं। रीना मुस्कुरा रही थी, आदित्य केक का टुकड़ा उसके होठों की तरफ बढ़ा ही रहा था, तभी आदित्य का फोन बजा। स्क्रीन पर चमक रहा था – “पापा कॉलिंग”। आदित्य की मुस्कान गायब हो गई।
आदित्य ने फोन रिसीव किया, “नमस्ते पापा।”
उधर से कांपती आवाज आई, “बेटा, मुझे अपने पास बुला ले। अब नहीं रहा जाता मुझसे। तुम्हारी भाभी ने आज भी मुझे खाना नहीं दिया और तुम्हारे भाई ने मुझ पर हाथ उठाया।”
आदित्य के हाथ से केक की प्लेट गिर गई। वह कुर्सी पर बैठ गया। पापा की आवाज जारी थी, “मुझे बहुत बुरा लग रहा है बेटा। मैं अब यहां और नहीं रह सकता। मेरी तबीयत भी ठीक नहीं है। मैं तेरे पास आना चाहता हूं।”
आदित्य की आंखें भर आईं। रीना ने देखा कि आदित्य का चेहरा उतर गया है। उसने पूछा, “क्या हुआ?”
आदित्य ने धीरे से कहा, “पापा थे। कह रहे हैं कि भाई-भाभी उन्हें तंग करते हैं और आज तो भाई ने हाथ भी उठा दिया।”
रीना चुप रही, फिर उसका चेहरा सख्त हो गया। उसने ठंडी लेकिन तंज भरी आवाज में पूछा, “तो अब क्या सोच रहे हो?”
आदित्य ने कहा, “मुझे लगता है, मुझे पापा को अपने पास बुला लेना चाहिए।”
बस यही सुनते ही रीना ने आदित्य की आंखों में आंखें डालकर कह दिया, “अगर तुमने पापा को इस घर में लाने की कोशिश की तो मैं यह घर छोड़ दूंगी।”
कमरे में सन्नाटा फैल गया। आदित्य दो रिश्तों के बीच फंस गया – एक ओर पत्नी का हुक्म, दूसरी ओर बाप की कांपती आंखें।
उस रात आदित्य ने करवटें बदलते हुए खिड़की से बाहर देखा। शहर की लाइटें जगमगा रही थीं, लेकिन उसे अंधेरा दिख रहा था। पापा की कांपती आवाज – “बेटा, अब और नहीं सहा जाता…” उसके दिल के हर कोने में गूंज रही थी।
तीन दिन बीत गए। आदित्य ने पापा को दोबारा कॉल नहीं किया। न रीना से बात कर सका, न खुद से। उसे डर था – अगर उसने रीना की मर्जी के खिलाफ कोई फैसला लिया तो सब कुछ छिन सकता है – घर, अमीरी, रीना।
पर उसी शाम जब आदित्य बालकनी में अकेले बैठा था, दरवाजे पर धीमी दस्तक हुई। आदित्य ने झांका – सामने पापा मोहनलाल जी थे, थके हुए, आंखों में बेबसी, भीगे कपड़े, कांपते लफ्ज – “बेटा, दरवाजा खोल, मैं तेरे पास आ गया हूं।”
आदित्य का पूरा वजूद ठहर गया। उसके सामने उसका बाप खड़ा था, जिसने उसे गोद में उठाकर चलना सिखाया था, स्कूल के पहले दिन उंगली थामकर ले गया था – आज उसी बेटे के दरवाजे पर बारिश में कांप रहा था।
आदित्य ने दरवाजा खोलने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि पीछे से रीना की कड़कती आवाज आई – “रुको आदित्य!”
वो तेजी से आई और आदित्य के हाथ पर अपना हाथ रख दिया, “कौन है बाहर?”
“पापा हैं,” आदित्य की आवाज कांप रही थी।
“यहां क्यों आए हैं वो?”
“बीमार हैं, कहां जाएंगे?”
“जहां से आए हैं वहीं लौट जाएं,” रीना ने नजरें चुराकर नहीं, आंखों में आंख डालकर कहा।
“वो मेरे पापा हैं रीना…” आदित्य ने कहा, जैसे आखिरी उम्मीद हो।
“और मैं तुम्हारी बीवी हूं। इस घर में मैं कोई बूढ़ा बोझ नहीं चाहती,” रीना ने ठंडे लेकिन ताने भरे लहजे में जवाब दिया।
आदित्य के पास शब्द नहीं बचे थे। उसका बाप दरवाजे के बाहर बारिश में खड़ा था, पत्नी दरवाजे के अंदर दीवार बन चुकी थी। आदित्य का हाथ अब भी दरवाजे के हैंडल पर था, लेकिन उस पर रीना का कसता हुआ हाथ लोहे की जंजीर बन गया था।
आरपार झांकती आंखें, बाहर पापा भीगते हुए दरवाजा खुलने की आस में दीवार के सहारे खड़े थे। एक झुर्रियों भरा चेहरा, जिसने अपनी जवानी बेटे की खातिर खपा दी थी, आज उसी बेटे के दरवाजे पर भीग रहा था।
“बेटा, दरवाजा खोल, मुझे ठंड लग रही है…”
लेकिन दरवाजा अब भी बंद था।
आदित्य की आंखों से आंसू बह निकले। उसने रीना की ओर देखा, “कम से कम इतनी इजाजत दे दो कि उन्हें अंदर आने दूं, अभी तो बस रात के लिए ही…”
“नहीं आदित्य, यह घर तुम्हारे पापा के लिए नहीं है। समझ लो यह बात हमेशा के लिए। अगर तुमने दरवाजा खोला तो मैं इसी वक्त इस घर को छोड़ दूंगी।”
यह कहकर रीना कमरे में चली गई और दरवाजा अंदर से लॉक कर दिया।
आदित्य दीवार के सहारे बैठ गया। जैसे किसी ने उसका वजूद भी उसी बारिश में भीगा दिया हो। रात हुई, बिजली की आवाजें गूंजने लगीं, आसमान फट पड़ा। आदित्य ने खिड़की का पर्दा हटाकर देखा – मोहनलाल जी दीवार के पास सिकुड़कर बैठे थे, दोनों हाथ सीने पर, आंखें बंद। शायद नींद में नहीं, बेहोशी में।
आदित्य का धैर्य जवाब दे गया। वह दौड़कर कमरे में गया, रीना को झकझोरते हुए बोला, “चाबी दो रीना, पापा मर जाएंगे बाहर!”
“तुम ज्यादा ड्रामा मत करो आदित्य, वो सुबह तक चले जाएंगे, वैसे भी यह घर तुम्हारे बाप के लिए नहीं बना…”
आदित्य ने तकिए के नीचे से चाबी निकाली। रीना ने झपटकर उसकी कलाई पकड़ ली, “चाबी नहीं मिलेगी…”
लेकिन आदित्य अब वो आदित्य नहीं था। उसने उसकी कलाई झटकी, चाबी छीनी और दरवाजे की ओर दौड़ पड़ा।
“रुक जाओ आदित्य! अगर अब वह घर में आए तो मैं चली जाऊंगी!” रीना की चीख पीछे गूंजती रही। लेकिन इस बार वह किसी आवाज की परवाह नहीं कर रहा था।
उसने ताला खोला, दरवाजा खोला। बाहर कदम रखा – पापा जमीन पर बेहोश पड़े थे, चेहरे पर पानी की बूंदें, सांस बहुत धीमी, आंखें बंद।
“पापा!” आदित्य चीख पड़ा, “पापा आंखें खोलिए ना प्लीज! मैं आ गया…”
उसने उन्हें उठाया, लेकिन मोहनलाल जी का शरीर बेजान सा लग रहा था।
आदित्य ने पापा को गोद में उठाया, गाड़ी की ओर दौड़ा। बारिश अब भी उसी जोर से बरस रही थी, जैसे आसमान भी उस रात इंसानियत पर रो रहा हो।
अस्पताल पहुंचा, इमरजेंसी बेल बजाई, डॉक्टर दौड़े, पापा को लेकर अंदर भागे। आदित्य वहीं कॉरिडोर में बैठ गया – भीगा हुआ, कांपता हुआ, खुद से नजरें चुराता हुआ।
अगर एक बेटा अपने बाप को सिर छुपाने की जगह न दे सके, तो क्या वह अमीरी का हकदार है?
थोड़ी देर बाद डॉक्टर बाहर आए, “हमने उन्हें स्टेबल कर दिया है, लेकिन अगले 24 घंटे बहुत नाजुक हैं। उनकी हालत बेहद गंभीर है। कमजोर शरीर और मानसिक आघात ने उन्हें अंदर से तोड़ दिया है।”
आदित्य कमरे में दाखिल हुआ। पापा बेसुद लेटे थे, ऑक्सीजन मास्क, मशीनें, तारें। आदित्य ने उनका हाथ थामा, धीरे से बोला, “पापा, मैं यहीं हूं। कहीं नहीं जाने दूंगा आपको। सब ठीक हो जाएगा।”
मोहनलाल जी ने आंखें खोली, आदित्य को देखा, एक फीकी मुस्कान आई, “बेटा… अब मत छोड़ना…” और फिर आंखें बंद कर लीं।
आदित्य वहीं बैठा रहा पूरी रात, ना रीना को कॉल किया, ना किसी दोस्त को।
सुबह सूरज उगा, लेकिन आदित्य की आंखों के आगे अब भी अंधेरा था। तभी रीना का मैसेज आया, “तुम अस्पताल के ही होकर रह गए हो, ऑफिस की जिम्मेदारियां भी कोई चीज होती है। आदित्य, तुमने सब कुछ बर्बाद कर दिया।”
उस मैसेज को पढ़कर आदित्य ने फोन बंद कर दिया, खुद से कहा –
अगर अमीरी की कीमत यह है कि मैं अपने पिता को खो दूं, तो मुझे वो अमीरी नहीं चाहिए।
भगवान ने उस दिन उसका साथ दिया। अगली शाम डॉक्टर ने कहा, “अब खतरा टल चुका है, लेकिन देखभाल की जरूरत है।”
आदित्य की आंखों में राहत के आंसू थे, शुक्रिया के आंसू थे, उस प्यार के आंसू थे जो उसने पहली बार इतनी गहराई से पिता के लिए महसूस किया।
कुछ दिन बाद पापा को डिस्चार्ज मिल गया। अस्पताल से लौटते समय आदित्य खुद से सवाल पूछ रहा था – क्या मैं फिर उसी घर लौट रहा हूं, जहां मेरे पापा को इंसान नहीं, बोझ समझा गया था?
घर का दरवाजा खुला – सामने रीना थी, चेहरा सख्त, ना गर्मजोशी, ना अपनापन।
“अब इन्हें वापस क्यों लाए हो? ठीक हो गए तो भेज देते, जरूरत क्या थी यहां रखने की?”
आदित्य पापा को धीरे-धीरे अंदर लाया, सोफे पर बिठाया, कंधों पर शॉल डाली, पानी का गिलास पकड़ाया। पापा की आंखों में वही डर था – जैसे वह जान गए हों कि इस घर में अब भी मेहमान हैं, शायद अवांछित।
तभी दरवाजे की घंटी बजी। आदित्य के बड़े भाई-भाभी आए। रीना ने ताने से उनका स्वागत किया, “अब तो पापा ठीक हैं, क्यों ना आप लोग इन्हें वापस ले जाएं?”
भाभी बोली, “हम क्यों ले? यह तुम्हारे पति के बाप हैं, हमारी जिम्मेदारी क्यों बने?”
पल भर में माहौल जहरीला हो गया। तीनों तरफ से बहस, ताने, नफरत। पापा एक कोने में चुपचाप बैठे थे – चेहरे पर बेबसी, अकेलापन।
तब आदित्य उठ खड़ा हुआ। आवाज धीमी थी, लेकिन शांति में तूफान छिपा था।
“बस बहुत हो गया…”
सब चुप हो गए। आदित्य ने रीना की ओर देखा, “रीना, मैंने तुम्हारी हर बात मानी, हर फैसले का सम्मान किया। लेकिन आज मैं खुद से नजर नहीं मिला पा रहा, क्योंकि तुम्हारे डर और घमंड के बीच मैं वो बेटा खो बैठा हूं जो अपने बाप को कभी तकलीफ में नहीं देख सकता था।”
रीना कुछ कहने ही वाली थी, आदित्य ने हाथ उठाकर रोका,
“तुम्हारे पास तीन महीने हैं सोचने के लिए। अगर तुम्हें रिश्तों की अहमियत, बुजुर्गों का मान और इंसानियत की समझ है तो इन तीन महीनों में उसे साबित कर दो। वरना यह रिश्ता अब सिर्फ एक समझौता रह जाएगा और मैं समझौतों के सहारे जिंदगी नहीं जी सकता। मैं आज अभी इस घर को छोड़कर जा रहा हूं। और शायद अब कभी लौटूं भी नहीं।”
रीना का चेहरा सफेद पड़ गया।
“आदित्य, तुम ऐसा नहीं कर सकते। मैंने गलती की, लेकिन तुम इतनी बड़ी सजा दोगे? पापा को यही रहने दो, मैं सब ठीक कर दूंगी, प्लीज बस एक मौका…”
वो आदित्य के पैरों में गिर पड़ी, “मैं वादा करती हूं, सब बदल दूंगी। तुम जहां कहोगे जैसे कहोगे मैं वैसे करूंगी, प्लीज मत जाओ…”
लेकिन इस बार आदित्य की आंखों में पानी नहीं था, बस पत्थर जैसी शांति और एक साफ फैसला।
“मैं थक चुका हूं रीना। मैंने सब झेला, लेकिन अब नहीं। पापा को कोई और तकलीफ नहीं दूंगा। मैं उनका बेटा हूं और इस बार उन्हें बचाने जा रहा हूं – खुद से भी, इस दुनिया से भी।”
उसने पापा का हाथ पकड़ा, धीरे से सहारा देकर उठाया, बिना पीछे देखे दरवाजे से बाहर निकल गया।
रीना वही जमीन पर बैठ गई, सिसकती रही, लेकिन आदित्य नहीं रुका।
उसी दिन आदित्य ने किराए का एक फ्लैट ले लिया। अब उस छोटे से घर में दो इंसान थे – एक पिता, एक बेटा।
घर छोटा था, लेकिन वहां कोई ताना नहीं था, कोई अपमान नहीं था, सिर्फ प्यार था, सेवा थी, बेटे का फर्ज था।
आदित्य अब खुद खाना बनाता, पापा के पैरों को दबाता, रात को उनके बगल में बैठकर वो कहानियां सुनाता जो कभी पापा ने बचपन में सुनाई थी।
पापा अब मुस्कुराते हैं, क्योंकि अब वो सिर्फ जिंदा नहीं हैं, वो सम्मान के साथ जी रहे हैं।
आदित्य को अब किसी पछतावे का डर नहीं है, क्योंकि उसने वही किया जो एक सच्चे बेटे को करना चाहिए।
सीख:
अगर किसी रिश्ते में सिर्फ शब्द रह जाएं और आत्मा मर जाए तो उसे निभाना नहीं चाहिए, छोड़ देना चाहिए। कभी-कभी इंसान को अपना सम्मान बचाने के लिए सबसे करीब के रिश्तों से भी दूर जाना पड़ता है, क्योंकि जहां सम्मान नहीं, वहां संबंध भी नहीं टिकते।
अब सवाल आपसे –
अगर आप आदित्य की जगह होते, क्या आप भी वही करते या पत्नी के डर, घमंड और पैसे की वजह से अपने पिता को अपमान के बीच जीने के लिए मजबूर कर देते?
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तब तक खुश रहिए, अपनों के साथ रहिए और रिश्तों की कीमत समझिए।
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