पागल समझकर अस्पताल में भर्ती किया गया बुज़ुर्ग निकला ISRO का पूर्व वैज्ञानिक —फिर अस्पताल में जो हुआ

हीरे की पहचान – डॉ. रामास्वामी की गुमनाम जिंदगी 

क्या होता है जब कोई जीनियस, समाज के लिए खुद को खपा देने वाला महान वैज्ञानिक, वक्त की ठोकरों और अकेलेपन की मार से इतना टूट जाए कि लोग उसे पहचान तक न पाएं? क्या हमारी संवेदनहीनता और लापरवाही, हीरे को कूड़े में फेंक देने जितनी घातक हो सकती है?

यह वह कहानी है, जो भारत जैसे महान देश में आज भी हजारों प्रतिभाओं के साथ घट जाती है: एक गुमनाम बुजुर्ग, जिसे सब “पागल” समझते रहे, जबकि हकीकत में वह इसरो का वो सिरमौर वैज्ञानिक था, जिसने भारत को अंतरिक्ष की ऊंचाई तक पहुंचाने में अपना जीवन झोंक दिया। और जिसे, जब देश को अपने सबसे बड़े हीरो की सबसे ज्यादा जरूरत थी, उसी देश ने उसे पागलखाने की अंधेर कोठरी में डाल दिया।

बेंगलुरु – मायावी शहर और एक गुमनाम बूढ़ा

आधुनिकता और तकनीकी विकास की मिसाल, बेंगलुरु, जहाँ चिकनी सड़कों पर फर्राटा भरती गाड़ियों, आईटी कंपनियों की गगनचुंबी इमारतों के साये में एक दूसरी ही दुनिया पलती है। उसी चकाचौंध के फासले पर, फटी चप्पलों, बिखरे बालों और धुंधली आंखों वाला एक बूढ़ा, जिसे कोई नाम नहीं पता था– लोग उसे ‘रॉकेट बाबा’, ‘पगला बाबा’, या सीधा ‘पागल’ कहकर अनदेखा कर देते।

कोयले, चौक, या जमीन से मिट्टी उठाकर वह सड़क किनारे, दीवारों, पत्थरों—हर जगह कुछ न कुछ आकृतियाँ, जटिल गणितीय समीकरण, चित्र, रॉकेट के डाइग्राम्स बनाता रहता। वह बहुत कम बोलता, अक्सर आसमान की ओर ताकता, और कभी-कभी रहस्यमयी आवाज़ में “लॉन्च सीक्वेंस”, “ऑर्बिट”, “मिशन फेल” जैसे शब्द बड़बड़ाता।

लोगों ने उसकी अजीबो-गरीब हरकतों को सिरफिरापन मान लिया—कुछ छेड़ते, कुछ दुत्कारते, कुछ बस अनदेखा कर लेते। जैसे उसकी कोई अहमियत ही नहीं—न समाज में, न विज्ञान जगत में, न परिवार में।

समाज की बेरूखी और पागलखाने की जेल

एक दिन, भीड़-भरे बाज़ार में वह ज़ोर-ज़ोर से “एबॉट मिशन…लॉन्च सीक्वेंस गड़बड़…” चिल्लाने लगा। डर और अफरा-तफरी मची, पुलिस आई, बूढ़े को उठाकर सरकारी मानसिक अस्पताल (पागलखाना) में डाल दिया। आसमान में झांकती बिल्डिंगों के नीचे, अस्पताल की जर्जर दीवारों और सीलन वाली बदबूदार हवा में अब उसकी जुबान, उसकी सोच, उसकी यादें—सब कैद हो गईं। डॉक्टरों, नर्सों और कर्मचारियों के लिए वह भी बस एक नया ‘केस नंबर’ बन गया—बस रोज़ की कुछ दवाएं, दया और उपेक्षा का बेजान मिश्रण। उन्होंने तय कर लिया—”सिर्फ सिज़ोफ्रेनिया, अधिक जांच की ज़रूरत नहीं।”

डॉ. अनन्या शर्मा – बदलाव की शुरुआत

लेकिन उसी अस्पताल में थी एक युवा डॉक्टर, डॉ. अनन्या, जिसने हाल ही में एमबीबीएस और मनोचिकित्सा में स्पेशलाइजेशन किया था। उसके नज़रिए में हर मरीज बस एक केस नहीं, एक इंसान था।

“रॉकेट वाले बाबा” का केस उसी को सौंपा गया। अनन्या ने महसूस किया—उनके चित्र, समीकरण, उन सबमें एक अनोखी गहराई है। बड़ी से बड़ी मानसिक बीमारी किसी इंसान के भीतर छुपे जीनियस को बाहर आने से नहीं रोक सकती। वह बाबा के पास बैठने लगी, बात करती, मुस्कुराती, समझाने की कोशिश करती…

एक दिन उसने बाबा से पूछा, “आप कौन हैं?” वे मुस्कराए, बोले, “तारों को कभी बात करते देखा है, डॉक्टर? हर तारा एक कहानी सुनाता है, बस ज़रूरत है उसे समझने की।”

वो उनके चित्रों की तस्वीरें चुपके से अपने पुराने भौतिकी प्रोफेसर को भेज देती हैं—और जो उत्तर आता है, पूरा तंत्र हिल जाता है।

सच का खुलासा – वह कोई पागल नहीं, एक वैज्ञानिक है

प्रोफेसर ने हैरानी से फोन घुमाया– “अनन्या, यह तो ऑर्बिटल मेकैनिक्स, रॉकेट साइंस और क्रायोजेनिक प्रपल्शन के कैलकुलेशन हैं, जो देश में मुट्ठीभर लोगों को ही आते हैं!” अब डॉ. अनन्या की नजर उस गुमनाम बूढ़े के तले नहीं झुकी, अब वह सच के खुलासे की लड़ाई में कूद पड़ी। पुराने वैज्ञानिकों, अखबारों की खबरें पलटती है, आखिर एक दो साल पुरानी खबर में यह नाम सामने आता है—डॉ. अरुण रामास्वामी! देश का राष्ट्रीय हीरो, आर्यभट्ट मिशन की कोर टीम के महान वैज्ञानिक, शोधकर्ता, पद्मभूषण विजेता। पत्नी के निधन और डिमेंशिया, अल्जाइमर का शिकार, बच्चे दूर विदेश में, और एक दिन घर छोड़कर कहीं चले गए—पूरे देश में खोज-खबर, फिर दी हिम्मत हार ली…फोल्डर बंद कर दिया गया था।

इंसाफ और सच्चाई का पलटवार

अनन्या ने सारी हिम्मत और सबूतों के साथ ISRO मुख्यालय संपर्क किया—सारे चित्र, सारे तथ्य, डॉक्टर साहब की तस्वीर, DNA आदि भेजा। एक ही दिन में विज्ञान जगत, प्रशासन, सरकार तक सनसनी फैल गई: “डॉ. अरुण रामास्वामी एक पागलखाने की कोठरी में मिले हैं!”

टीवी, मीडिया, अस्पताल प्रशासन, CM, PMO–सभी स्तब्ध; डॉक्टरों और स्टाफ की नींदें गायब। ISRO प्रमुख खुद दौड़ कर अस्पताल पहुंचे, आंखें भर आईं। लिपटकर बोले—”सर, हमें माफ कर दो…आपका देश आपको पहचान न सका!”

सम्मान की वापसी और इंसाफ की नजीर

अगले ही घंटे मंत्री जी ने अस्पताल में प्रेस कांफ्रेंस बुलाई। उन्होंने माफी मांगी और तीन घोषणाएं कीं:

    डॉ. रामास्वामी का इलाज देश के सबसे अच्छे अस्पताल में पूर्ण सरकारी सम्मान और सुरक्षा के साथ होगा।
    पुराने मानसिक अस्पताल को तोड़कर बड़े राष्ट्रीय न्यूरो-साइंस और मानसिक स्वास्थ्य संस्थान का निर्माण किया जाएगा, जो हर गरीब/विकलांग/मरीज को इज्जत और सेवा देगा।
    नये इंस्टीट्यूट का नाम ‘डॉ. अरुण रामास्वामी राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान’ रखा जाएगा।

साथ ही, युवा डॉक्टर अनन्या की संवेदनशीलता को सलाम करते हुए, उन्हें उस संस्थान की रिसर्च टास्क फोर्स का प्रमुख नियुक्त किया गया।

गहरी सीख – हीरे की पहचान हमें बदलनी होगी

डॉ. रामास्वामी कमज़ोर से, बीमार से, बेनाम होते हुए भी अपने आखिरी दिन बेहद सम्मानित, सुखद और अपने चाहने वालों के साथ जिए। उनकी याददाश्त पूरी तरह नहीं लौटी, मगर अब उनके चेहरे पर वह खालीपन नहीं था।

और जिस जगह को लोग पहले “पागलखाना” समझते थे, आज वह देश का सबसे बड़ा मानसिक स्वास्थ्य केंद्र बनकर हजारों को नया जीवन देता है।

यह कहानी हमें बड़ी सीख देती है: हम कभी भी किसी को उसके कपड़े, उसका हाल, उसका झुकाव देखकर उसकी पहचान, उसकी बुद्धिमता, उसकी इंसानियत नहीं आंक सकते। हर जुनून, हर अनकहे शब्द, हर गुमनाम चेहरा अपने भीतर कोई कहानी छिपा सकता है—ज़रूरत सिर्फ साहसी, मानवीय और संवेदनशील नजरिए की होती है।

अगर यह कहानी आपके दिल तक पहुंची हो, दिल से शेयर करें—शायद कोई और हीरा समाज के कूड़े में ना गंवाए!

सदैव याद रखें, संवेदनशीलता और इंसानियत सबसे बड़ा विज्ञान है।

शुक्रिया! ❤️