पुलिस वाले ने एक भूखे लड़के को रोटी की बेकरी से रोटी चुराते हुए देख लिया , फिर उसने जो किया उसे देख

वर्दी और रोटी: भूख का क़ानून
लुधियाना—पंजाब का वह औद्योगिक शहर जो अपनी तेज़ रफ़्तार और चमकती ज़िंदगी के लिए जाना जाता है। ऊँची फ़ैक्ट्रियों की चिमनियों से निकलता धुआँ, सड़कों पर दौड़ती महँगी गाड़ियाँ और शोरूम की चकाचौंध… इस सब के पीछे एक और दुनिया बसती थी—झुग्गियों की, तंग गलियों की, और उन लाखों बेबस जिंदगियों की जो हर रोज़ सिर्फ़ दो वक़्त की रोटी के लिए जूझती थीं।
रेलवे लाइन के किनारे बसी ऐसी ही एक पुरानी झुग्गी बस्ती में शारदा अपने दो बच्चों—दस साल के राहुल और छह साल की पिंकी—के साथ रहती थी। उनकी झोंपड़ी बाँस और प्लास्टिक के तिरपाल से बनी एक अस्थाई संरचना थी, जो बारिश में टपकती और सर्दियों में काँपती थी। रामलाल, शारदा का पति, एक मेहनती मज़दूर था, जिसका सपना था बच्चों को पढ़ा-लिखाकर इस नर्क जैसी ज़िंदगी से बाहर निकालना। मगर कुछ साल पहले एक फ़ैक्ट्री हादसे ने उसे हमेशा के लिए छीन लिया। मालिक ने कुछ हज़ार रुपए देकर पल्ला झाड़ लिया, और शारदा की दुनिया उजड़ गई।
शारदा ने हिम्मत नहीं हारी। वह आसपास की कोठियों में झाड़ू-पोंछा और बर्तन माँजने का काम करने लगी। दिन भर की कड़ी मेहनत से जो कुछ पैसा मिलता, उससे वह जैसे-तैसे घर का चूल्हा जलाती और बच्चों की स्कूल फ़ीस भरती। राहुल, जो अपनी उम्र से कहीं ज़्यादा समझदार हो चुका था, हर पल अपनी माँ की जद्दोजहद को महसूस करता। वह जानता था कि जिस रोटी को माँ उन्हें प्यार से खिलाती है, उसके पीछे अक्सर उसका अपना भूखा पेट छिपा होता है।
भूख की दहलीज
पिछले कुछ महीनों से हालात और भी बदतर हो गए थे। लगातार काम और ठीक से खान-पान न होने के कारण शारदा की सेहत गिर गई थी। उसे सूखी खाँसी और कमज़ोरी ने घेर लिया। डॉक्टर ने आराम और अच्छी खुराक की सलाह दी थी, मगर शारदा के लिए ये दोनों ही शब्द किसी महँगी विलासिता से कम नहीं थे।
उस शाम जब सूरज शहर की ऊँची इमारतों के पीछे छिप रहा था, शारदा की तबीयत अचानक बहुत बिगड़ गई। वह तेज़ बुखार में काँप रही थी और चारपाई से उठने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। घर में न दवा के पैसे थे और न ही अनाज का एक दाना। राहुल और पिंकी दोनों के पेट सुबह से भूख के मारे ऐंठ रहे थे। पिंकी रोते हुए अपनी माँ से लिपट गई, “माँ, मुझे बहुत भूख लगी है।”
माँ की लाचारी भरी आँखों से आँसू बह निकले। यह दर्द राहुल के छोटे से दिल को चीर रहा था। वह जानता था कि अगर कुछ नहीं किया गया, तो वे तीनों टूट जाएँगे। उसने एक फ़ैसला किया। एक ऐसा फ़ैसला जो उसकी मासूमियत और उसके हालात के बीच की गहरी खाई को दर्शाता था।
“माँ, तुम चिंता मत करो। मैं अभी कुछ खाने के लिए लेकर आता हूँ,” कहकर वह खाली जेब और भारी मन से झोंपड़ी से बाहर निकल पड़ा।
एक मासूम गुनाह
राहुल चलते-चलते शहर के मुख्य बाजार में आ पहुँचा। यहाँ की दुनिया उसकी दुनिया से बिल्कुल अलग थी। रंग-बिरंगी रोशनियों से नहाई दुकानें, हँसते-बोलते लोग, और हवा में समोसे, जलेबी तथा पकवानों की मोहक महक, जो राहुल के पेट की आग को और भड़का रही थी।
उसकी नज़रें एक बड़ी बेकरी पर जाकर टिक गईं। शीशे के काउंटर के अंदर तरह-तरह की ब्रेड, बिस्किट और केक सजे हुए थे। उसकी आँखों में एक ही तड़प थी: काश, इसमें से बस एक रोटी मिल जाए। वह जानता था कि उसके पास पैसे नहीं हैं।
काफ़ी देर तक वह वहीं खड़ा काँपता रहा। एक तरफ़ उसकी माँ की सिखाई हुई ईमानदारी थी, तो दूसरी तरफ़ माँ और बहन की भूख की तड़प। आख़िरकार, भूख की तड़प ने उसकी हिम्मत तोड़ दी। उसने तय किया कि वह एक रोटी चुराएगा।
दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। उसने बिजली की तेज़ी से काउंटर के पास रखी ब्रेड की एक पूरी लोफ़ उठाई, उसे अपनी फ़टी हुई कमीज़ के अंदर छिपाया और भागने लगा।
वह भाग ही रहा था कि अचानक एक मज़बूत हाथ ने उसका कंधा जकड़ लिया।
इंस्पेक्टर असलम खान
सामने खाकी वर्दी में एक लंबा-चौड़ा, रौबदार चेहरे वाला पुलिस वाला खड़ा था। यह थे इंस्पेक्टर असलम खान—लुधियाना के एक जाने-माने, सख्त मिज़ाज के अफ़सर। उनकी छवि ऐसी थी जो अपराधियों से कोई रियायत नहीं करती थी। 20 साल की नौकरी ने उनके स्वभाव को कठोर बना दिया था।
“चल! क्या चुराया है? निकाल बाहर,” असलम खान की आवाज़ में कड़कपन था।
राहुल इतना डर गया कि उसकी ज़बान लड़खड़ा गई। उसने काँपते हाथों से ब्रेड का पैकेट निकाला।
“अच्छा, तो तू चोर है! इतनी छोटी उम्र में चोरी करना सीख गया। चल थाने!” असलम खान ने उसका हाथ पकड़ा और घसीटने लगे।
राहुल फूट-फूट कर रोने लगा। “साहब, मुझे छोड़ दीजिए! मैंने पहली बार चोरी की है। मेरी माँ बहुत बीमार है। मेरी छोटी बहन सुबह से भूखी है। घर में खाने को एक दाना नहीं है, इसीलिए मैंने यह रोटी चुराई है!”
इस बार असलम खान के कदम एक पल के लिए ठिठक गए। उन्होंने राहुल को घूर कर देखा। उसकी आँखों में आँसू थे, डर था, पर झूठ नहीं था। असलम खान ने अपनी ज़िंदगी में अनगिनत बहाने सुने थे, पर इस बच्चे की आवाज़ में एक ऐसी सच्चाई थी जिसने उनके कठोर दिल पर एक हल्की सी दस्तक दी।
“नहीं साहब, मैं सच कह रहा हूँ। आप मेरे साथ चल कर देख लीजिए। अगर मैं झूठ बोल रहा हूँ, तो आप मुझे जो चाहें सजा दे दीजिएगा।”
असलम खान कुछ देर सोचते रहे। उनके अंदर का पुलिस वाला कह रहा था कि यह सब एक चाल है, पर उनके अंदर कहीं गहरे में दबा हुआ इंसान कह रहा था कि एक बार इस बच्चे की बात सुननी चाहिए।
“ठीक है! चल, दिखा कहाँ है तेरा घर। अगर तेरी बात झूठी निकली, तो याद रखना…” उन्होंने राहुल का हाथ छोड़ा और उसके पीछे-पीछे चलने लगे।
करुणा की वर्षा
राहुल उन्हें तंग, बदबूदार गलियों से ले जाता हुआ झुग्गी बस्ती की ओर बढ़ रहा था। असलम खान अपनी महँगी वर्दी और चमकते जूतों में उस कीचड़ और गंदगी से बचते-बचाते चल रहे थे। जैसे-जैसे वे झुग्गी के अंदर जा रहे थे, ग़रीबी और लाचारी का असली मंज़र असलम खान की आँखों के सामने खुलता जा रहा था। खुली नालियाँ, कचरे के ढेर और एक अजीब सी घुटन भरी बदबू।
आख़िरकार, राहुल एक झोंपड़ी के सामने रुका। “यही है मेरा घर, साहब।”
झोंपड़ी के अंदर का नज़ारा देखकर असलम खान का दिल धड़कना भूल गया। ज़मीन पर फटी हुई चटाई पर शारदा लेटी हुई थी, बुखार में काँपती हुई। उसका शरीर कमज़ोर और पीला पड़ चुका था। पास में पिंकी, जिसकी आँखें भूख से सूजी हुई थीं, माँ से लिपटकर सिसक रही थी।
यह गरीबी नहीं, गरीबी का सबसे क्रूर और नग्न रूप था।
राहुल दौड़कर अपनी माँ के पास गया। “माँ, देखो! मैं आ गया।”
इससे पहले कि राहुल कुछ कहता, असलम खान झोंपड़ी के अंदर दाखिल हुए। उनकी वर्दी, उनका रौब, सब कुछ उस लाचारी के सामने बौना पड़ गया था। असलम खान की अनुभवी, कठोर आँखें, जिन्होंने न जाने कितने भयानक दृश्य देखे थे, आज भर आईं।
“यह तुम इन लोगों के लिए चुरा रहे थे?” असलम खान की आवाज़ भर्रा गई।
उस एक पल में इंस्पेक्टर असलम खान की दुनिया बदल गई। उन्हें अपने आप पर शर्म आने लगी। वह कानून के रखवाले थे, पर आज उन्हें एहसास हुआ कि भूख का क़ानून हर क़ानून से बड़ा होता है। वह उस बच्चे को चोर समझ रहे थे, पर असली अपराधी तो वह समाज और व्यवस्था थी, जो इन मासूमों को इस हाल में जीने पर मजबूर करती है।
असलम खान की आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। वह चुपचाप उस झोंपड़ी से बाहर निकले। राहुल और शारदा को लगा कि अब उन्हें गिरफ़्तार किया जाएगा।
मगर असलम खान खाली हाथ नहीं लौटे। वह पास की दुकान से दूध, ब्रेड, बिस्किट, फल और दवाइयों के पैकेट ख़रीदकर लाए। उन्होंने सारा सामान शारदा के पास रखा। “बहन जी, पहले इन बच्चों को कुछ खिलाइए, फिर यह दवा ले लीजिएगा।”
फिर उन्होंने अपनी जेब से पर्स निकाला और उसमें जितने भी पैसे थे, सब निकालकर शारदा के हाथ में रख दिए।
“ये… ये रख लीजिए। और मुझे… माफ़ कर दीजिए।”
वह कठोर पुलिस वाला एक भूखे बच्चे की माँ के सामने हाथ जोड़ रहा था, और उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे।
“बेटा, आज से तुम्हें चोरी करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। तुम्हारी माँ का इलाज मैं करवाऊँगा। तुम्हारी और तुम्हारी बहन की पढ़ाई की ज़िम्मेदारी भी आज से मेरी है,” असलम खान ने राहुल के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
वर्दी का मान
उस दिन के बाद, असलम खान सचमुच बदल गए। वह सिर्फ़ एक पुलिस वाले नहीं, बल्कि राहुल और पिंकी के लिए एक फ़रिश्ता बन गए। उन्होंने शारदा को शहर के सबसे अच्छे सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाया, और राहुल-पिंकी का दाख़िला पास के एक अच्छे स्कूल में करवाया।
दस साल बीत गए। असलम खान की उस एक रात की नेकी ने एक मुरझाते परिवार को नई ज़िंदगी दे दी थी। शारदा पूरी तरह स्वस्थ हो चुकी थी और असलम खान की मदद से अपनी झोंपड़ी के बाहर एक छोटी सी सिलाई की दुकान चलाती थी। पिंकी स्कूल की होनहार छात्रा थी, जिसकी आँखों में अब डॉक्टर बनने के सपने थे।
और राहुल… वह दस साल का डरा-सहमा बच्चा अब बीस साल का आत्मविश्वासी नौजवान बन चुका था। असलम खान, जिन्हें वह अब ‘बाबा’ कहकर पुकारता था, ने उसकी पढ़ाई में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। राहुल ने अपनी मेहनत और लगन से सबको चकित कर दिया। उसका एक ही सपना था: एक बड़ा पुलिस ऑफ़िसर बनना। वह असलम खान जैसा बनना चाहता था, ताकि वह उस व्यवस्था का हिस्सा बन सके, जिसने कभी उसे चोर बनाया था, और यह सुनिश्चित कर सके कि कोई और राहुल भूख की वजह से चोर न बने।
राहुल ने दिन-रात एक करके यूपीएससी की तैयारी की। जब भी वह कमज़ोर पड़ता, उसे वह रात याद आ जाती—वो बेकरी, वो रोटी और वो खाकी वर्दी वाला फ़रिश्ता।
और फिर वह दिन आया। मेहनत ने क़िस्मत को भी झुकने पर मजबूर कर दिया। राहुल ने यूपीएससी की परीक्षा पास कर ली थी। वह एक आईपीएस ऑफ़िसर बन गया था!
राहुल की रसोई और पिंकी की पाठशाला
अपनी ट्रेनिंग पूरी करने के बाद, क़िस्मत का खेल देखिए—राहुल की पहली पोस्टिंग असिस्टेंट सुपरिटेंडेंट ऑफ़ पुलिस (एएसपी) के तौर पर उसी शहर लुधियाना में हुई।
जिस दिन राहुल ने अपनी नई वर्दी पहनी, वह सबसे पहले रिटायर हो चुके डीएसपी असलम खान के पास गया। असलम खान उसे वर्दी में देखकर अपने आँसू रोक नहीं पाए।
“बाबा, यह वर्दी, यह सितारे सब आपके हैं। अगर उस रात आपने मेरे हाथ में हथकड़ी की जगह रोटी रखी होती, तो आज मैं देश की किसी जेल में सड़ रहा होता। आपने सिर्फ़ मेरा पेट नहीं भरा था, आपने मेरी क़िस्मत लिख दी थी,” राहुल ने उनके पैरों पर गिरते हुए कहा।
कुछ दिनों बाद, एएसपी राहुल ने अपने ऑफ़िस में एक मीटिंग की। उन्होंने एक ऐसी योजना का प्रस्ताव रखा जिसे सुनकर सब हैरान रह गए।
“मैं शहर के हर थाने में एक रोटी बैंक और एक किताब बैंक स्थापित करना चाहता हूँ। जहाँ कोई भी ज़रूरतमंद आकर सम्मान के साथ खाना और बच्चों के लिए किताबें ले जा सके। हमारी पुलिस सिर्फ़ अपराधियों को नहीं पकड़ेगी, बल्कि उन मजबूरियों को भी ख़त्म करने की कोशिश करेगी जो एक इंसान को अपराध की दुनिया में धकेलती हैं।”
एक पुराने अफ़सर ने सवाल किया, “सर, यह सब पुलिस का काम नहीं है। इसके लिए बहुत फ़ंड लगेगा।”
राहुल मुस्कुराए। “इंसानियत किसी काम या विभाग की मोहताज नहीं होती। और रही बात फ़ंड की, तो उसकी शुरुआत मैं अपनी पहली तनख़्वाह से करता हूँ।”
फिर उन्होंने भरी सभा में अपनी कहानी सुनाई, कैसे एक भूखे बच्चे ने रोटी चुराई थी और कैसे एक पुलिस वाले ने उसे सज़ा देने की जगह उसकी मदद की थी। उन्होंने कहा, “वह बच्चा मैं ही था, और वह फ़रिश्ता पुलिस वाला और कोई नहीं, हमारे अपने रिटायर्ड डीएसपी असलम खान साहब हैं।”
पूरी सभा तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठी। उस दिन के बाद, लुधियाना पुलिस की छवि ही बदल गई। हर थाने में ‘राहुल की रसोई’ और ‘पिंकी की पाठशाला’ के नाम से केंद्र खुल गए।
एक शाम राहुल और असलम खान उसी बाज़ार में, उसी बेकरी के सामने खड़े थे।
“बाबा,” राहुल ने कहा, “चलिए, आज यहाँ से ब्रेड ख़रीदते हैं… इस बार पैसे देकर।”
दोनों हँस पड़े।
उन्होंने सड़क के किनारे बैठे कुछ गरीब बच्चों को देखा। राहुल उनके पास गए, उन्हें प्यार से उठाया और कहा, “चलो, आज एएसपी साहब तुम सबको पार्टी देंगे।”
असलम खान दूर खड़े यह सब देख रहे थे। उनकी आँखों में खुशी के आँसू थे। उन्होंने सोचा: एक नेकी की फ़सल कितनी मीठी हो सकती है, यह आज उन्होंने अपनी आँखों से देख लिया था।
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