बस कंडक्टर ने अपनी जेब से दिया गरीब छात्र का टिकट, सालों बाद क्या हुआ जब वही छात्र इंस्पेक्टर बनकर

शुरुआत – कस्बे की धूल भरी सुबह

उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा कस्बा, रामगढ़। यहां की जिंदगी अपनी धीमी रफ्तार में चलती थी। कस्बे के बाहरी छोर पर एक कच्ची मिट्टी की झोपड़ी थी – किशनपाल का घर। किशनपाल एक भूमिहीन किसान था, जो जमींदार के खेतों में मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पालता था। उसकी पत्नी रामा और इकलौता बेटा अजय ही उसकी दुनिया थे।

अजय 20 साल का, होनहार, मेहनती और सपनों से भरा नौजवान था। उसने 12वीं की परीक्षा में जिले में टॉप किया था। उसका सपना था पुलिस अफसर बनना, ताकि गरीबी और बेबसी से बाहर निकल सके। वह अपने मां-बाप की बुढ़ापे की लाठी था और पूरे गांव की उम्मीद भी।

सपनों की उड़ान – मेहनत और जिद

अजय दिन में खेतों में पिता के साथ काम करता और रात को लालटेन की पीली रोशनी में किताबें पढ़ता। पुलिस सब-इंस्पेक्टर की भर्ती के लिए उसने पुरानी फटी किताबें खरीदीं। उसकी मेहनत रंग लाई – लिखित परीक्षा पास कर ली। अब इंटरव्यू के लिए लखनऊ बुलाया गया था। यह उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा मौका था। अगर पास हो जाता, तो परिवार की किस्मत बदल सकती थी।

इंटरव्यू का बुलावा – घर में दिवाली

जिस दिन लखनऊ से इंटरव्यू का बुलावा आया, उस दिन झोपड़ी में दिवाली जैसा माहौल था। रामा ने सालों से जोड़कर रखे मुड़े-तुड़े 100-100 के नोट निकाले – अपनी सारी बचत बेटे को दी। “बेटा, ये पैसे रख ले, रास्ते में काम आएंगे। और अपने लिए अच्छा सा पैंट-शर्ट भी खरीद लेना। अफसरों के सामने अच्छा दिखना चाहिए।”

किशनपाल ने बेटे के कंधे पर हाथ रखा, “जा बेटा, अपनी किस्मत आजमा। हमें तुझ पर पूरा भरोसा है। तू जरूर बड़ा अफसर बनेगा।” अजय ने मां-बाप के पैर छुए, “मैं आपका सिर कभी झुकने नहीं दूंगा।”

बस अड्डे की घटना – किस्मत का झटका

सोमवार सुबह अजय तैयार होकर रामगढ़ के बस अड्डे पहुंचा। वहां बहुत भीड़ थी। तभी अचानक भगदड़ मच गई – “जेबकतरा! जेबकतरा पकड़ो!”
भीड़ के धक्के में अजय जमीन पर गिर पड़ा। जब उठा, तो उसकी जेब कट चुकी थी। मां की दी हुई बचत, टिकट के पैसे – सब कुछ चला गया।
अजय वहीं धूल भरी जमीन पर बैठकर फूट-फूट कर रोने लगा। उसकी आंखों में सपनों का टूटना था।

कंडक्टर की नेकी – इंसानियत की जीत

लखनऊ जाने वाली बस आ गई। लोग चढ़ने लगे। दरवाजे पर खड़े कंडक्टर राजेंद्र कुमार की नजर रोते हुए अजय पर पड़ी।
“ऐ लड़के, क्या हुआ? रो क्यों रहा है? लखनऊ नहीं जाना क्या?”
अजय ने रोते हुए अपनी पूरी कहानी बता दी। राजेंद्र रोज ऐसे बहाने सुनता था, लेकिन अजय की आंखों में सच्ची बेबसी थी। उसके फटे लेकिन साफ कपड़े, हाथ में फाइल, सर्टिफिकेट – सब देखकर राजेंद्र का दिल पसीज गया। उसे अपना बेटा याद आ गया।

राजेंद्र ने नियमों के खिलाफ, लेकिन इंसानियत के हक में फैसला लिया। “चल, रोना बंद कर और बस में चढ़ जा। टिकट के पैसे मैं दूंगा।”
राजेंद्र ने अपनी वर्दी की जेब से बटुआ निकाला, 100-100 के दो नोट निकालकर टिकट काटा और अजय के हाथ में दे दिया।
अजय बोला, “चाचा जी, पैसे कैसे लौटाऊंगा?”
राजेंद्र मुस्कुराए, “बेटा, जब बड़ा अफसर बन जाओ, तो किसी और जरूरतमंद की मदद कर देना। समझ लेना मेरा कर्ज चुक गया।”

अजय हाथ जोड़कर नम आंखों से बस में चढ़ गया। उसे लगा जैसे भगवान ने बस कंडक्टर का रूप धर लिया हो।

सपना पूरा – मेहनत और दुआओं का असर

लखनऊ पहुंचकर अजय रिश्तेदार के घर गया। इंटरव्यू दिया – राजेंद्र की दुआओं का असर था, इंटरव्यू बहुत अच्छा गया।
कुछ हफ्तों बाद रिजल्ट आया – अजय का चयन उत्तर प्रदेश पुलिस में सब-इंस्पेक्टर के पद पर हो गया।
रामगढ़ में जश्न का माहौल था। किशनपाल और रामा की आंखों में खुशी के आंसू थे।
अजय ट्रेनिंग के लिए मुरादाबाद पुलिस एकेडमी चला गया। लेकिन दिल में राजेंद्र कुमार की आवाज हमेशा गूंजती रही – “बेटा, किसी और की मदद कर देना।”

राजेंद्र का संघर्ष – वक्त का पहिया

समय बीता, 10 साल गुजर गए। अजय मेहनत और ईमानदारी से इंस्पेक्टर बन गया – लखनऊ के बड़े थाने का इंचार्ज। मां-बाप को सरकारी आवास में ले आया।
राजेंद्र कुमार रिटायर हो चुके थे। पत्नी के साथ लखनऊ के बाहरी इलाके में रहते थे। उनकी पेंशन ही गुजारे का साधन थी। बेटा पढ़-लिखकर भी बेरोजगार था। घर में तनाव था।

राजेंद्र सोचते – जिंदगी भर लोगों की मदद की, लेकिन अब खुद मदद की जरूरत है तो कोई साथ नहीं। अजय नाम के उस लड़के और अपनी नेकी को कब का भूल चुके थे।

पुनर्मिलन – कर्ज का हिसाब

एक दिन इंस्पेक्टर अजय थाने में शिकायतें सुन रहे थे। एक बुजुर्ग थका-हारा आदमी आया – “साहब, मेरा बेटा बहुत सीधा है। कुछ लड़कों ने नौकरी का झांसा देकर किसी गलत काम में फंसा लिया। पुलिस पकड़कर ले आई है। वो बेकसूर है। उसे बचा लीजिए।”

अजय ने आवेदन लिया – नाम था राजेंद्र कुमार। दिल जोर से धड़का। सिर उठाकर चेहरा देखा – वही नेकी भरी आंखें।
“चाचा जी… रामगढ़ बस का टिकट…”
राजेंद्र की आंखों में 10 साल पुरानी पूरी फिल्म घूम गई। “तुम… अजय हो?”
अजय आगे बढ़ा, राजेंद्र के पैरों में गिर पड़ा – “चाचा जी, आज मैं जो कुछ भी हूं सिर्फ आपकी वजह से हूं। अगर उस दिन आपने टिकट ना दिया होता, तो मैं आज भी खेतों में मजदूरी कर रहा होता।”

राजेंद्र ने उसे सीने से लगा लिया। दोनों की आंखों से आंसू बह रहे थे। थाने में भावुक माहौल था।

कर्ज की अदायगी – बेटे का फर्ज

अजय ने राजेंद्र को कुर्सी पर बिठाया, खुद पानी लाकर दिया। सिपाहियों को बुलाकर बेटे के केस की फाइल मंगवाई।
पूरी रात जागकर केस की जांच की। पता चला – राजेंद्र का बेटा बेकसूर था, उसे साजिश में फंसाया गया था।
अजय ने असली अपराधियों को सलाखों के पीछे पहुंचाया और राजेंद्र के बेटे को बाइज्जत बरी करवा दिया।

राजेंद्र के बेटे के घर लौटने पर, राजेंद्र और पत्नी ने अजय को लाखों दुआएं दीं।
राजेंद्र बोले, “बेटा, तुमने मेरा कर्ज चुका दिया।”
अजय ने हाथ पकड़ लिए – “नहीं चाचा जी, कर्ज तो अभी बाकी है। वह तो वर्दी का फर्ज था। अब बेटे का फर्ज निभाने की बारी है।”

अंत – नेकी का फल

अगले हफ्ते अजय राजेंद्र के घर पहुंचा। हाथ में लिफाफा था – “चाचा जी, आपके बेटे के लिए नौकरी का इंतजाम कर दिया है। यह उसका अपॉइंटमेंट लेटर है।”
राजेंद्र और पत्नी की आंखों में खुशी के आंसू थे।
“अब आप दोनों मेरे घर में रहेंगे। मेरे मां-बाप भी वहीं रहते हैं। उन्हें भी साथी मिल जाएगा और मुझे अपने खोए हुए पिता का।”

राजेंद्र के पास शब्द नहीं थे। वे रोते रहे और ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करते रहे – उस फैसले के लिए, जो उन्होंने 10 साल पहले एक अनजान लड़के के लिए अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनकर लिया था।

सीख और संदेश

यह कहानी सिखाती है कि नेकी कभी बेकार नहीं जाती। राजेंद्र के ₹10 के टिकट ने एक जिंदगी और भविष्य बचाया।
10 साल बाद वही नेकी उन्हें इंस्पेक्टर बेटे के रूप में लौटी।
हमें उन लोगों को कभी नहीं भूलना चाहिए जिन्होंने मुश्किल वक्त में हमारा हाथ थामा हो।

आपका एक छोटा सा अच्छा काम किसी के लिए पूरी दुनिया बदल सकता है।

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