बीमार पति को पत्नी ठुकरकर चली गई लेकिन नौकरानी बोली आपकी सेवा करूंगी, बस एक शर्त है
एक अधूरा वादा
सुबोध वर्मा एक नाम जो कभी शहर के सबसे अमीर और रसूखदार लोगों में गिना जाता था। आलीशान बंगला, लग्जरी गाड़ियां, पार्टियों की रौनक और एक खूबसूरत पत्नी मृणाल—सब कुछ था उसके पास। वह सफलता का जीता-जागता प्रतीक था। लेकिन जिंदगी ने एक ऐसी करवट ली, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
एक दिन ऑफिस में ही उसके सीने में तेज दर्द उठा। डॉक्टरों ने बताया कि उसके दिल और किडनी दोनों गंभीर हालत में हैं। इलाज लंबा चलेगा और सुबोध अब शायद कभी पहले जैसा नहीं हो पाएगा। पहले कुछ दिन तो सबने हमदर्दी दिखाई, लेकिन जैसे-जैसे उसकी बीमारी बढ़ी, सुबोध की दुनिया सिमटती गई। उसकी पत्नी मृणाल, जो कभी उसकी बाहों में दुनिया ढूंढती थी, अब रोज बहाने बनाने लगी। “मैं भी इंसान हूँ सुबोध। मैं यह सब नहीं झेल सकती,” उसने कहा। और एक सुबह, जब सुबोध पलंग से उठ भी नहीं पा रहा था, मृणाल चुपचाप अपना बैग उठाकर चली गई—बिना कुछ कहे, बिना पलटे।
उसके घर की दीवारें अब पहले जैसी चमकदार नहीं रही थीं। पार्टियाँ बंद हो चुकी थीं और रिश्तेदार तो जैसे थे ही नहीं। सिर्फ एक चेहरा था जो अब भी सुबह उठकर उसके कमरे में आता था: राधा। करीब 50 की उम्र, हल्के सफेद बाल और सादा साड़ी में लिपटी हुई। वह पिछले 10 साल से वर्मा हाउस में काम कर रही थी। कभी रसोई संभालती थी, कभी झाड़ू-पोछा। लेकिन अब वही एकमात्र इंसान थी जो सुबोध के पास थी।
एक दिन, सुबोध बहुत थका-थका और लगभग टूटा हुआ पलंग पर लेटा था। बारिश की बूंदें खिड़की से टकरा रही थीं और घर की खामोशी उसे काट रही थी। तभी राधा कमरे में आई। उसके हाथ में एक कप गर्म सूप था और आँखों में एक अजीब सी सख्ती थी। उसने सूप मेज पर रखा और कहा, “साहब, मैं आपका ध्यान रखूंगी, लेकिन मेरी एक शर्त है।”
सुबोध चौंक गया। “शर्त?” वह सोचने लगा, ‘क्या यह भी अब मुझसे कुछ मांगेगी? पैसे? प्रॉपर्टी? पर अब मेरे पास बचा ही क्या है?’ उसने धीमी आवाज में पूछा, “क्या शर्त है, राधा?”
राधा कुछ देर चुप रही, फिर कुर्सी पर बैठ गई और बड़ी नरमी से बोली, “आपको मुझसे वादा करना होगा कि आप हार नहीं मानेंगे।”
सुबोध की आँखें भर आईं। एक पल को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके भीतर के सूनापन को छू लिया हो। राधा आगे बोली, “मैं आपका इलाज, दवा, खाना सब देख लूंगी, पर आप कोशिश करेंगे ठीक होने की। क्योंकि जब आप ठीक हो जाओगे, तब आपको दूसरों के लिए वही करना है जो आपने कभी मेरे लिए किया था।”
सुबोध का माथा सिकुड़ गया। “मैंने?”
राधा मुस्कुराई। “वह बात फिर कभी। अभी आप बस यह वादा कीजिए कि आप फिर से खड़े होंगे—खुद के लिए और उन सबके लिए जो उम्मीद हार चुके हैं।”
कमरे की दीवारें अब भी वैसी थीं, लेकिन माहौल बदल गया था। सुबोध ने पहली बार, महीनों बाद, धीरे-धीरे सिर हिलाया। “ठीक है। वादा करता हूँ।”
राधा ने सूप उठाया और चम्मच से धीरे-धीरे उसके मुँह तक ले गई। वह कोई नौकरानी नहीं थी उस पल। वह एक माँ की तरह लग रही थी, एक फ़रिश्ते की तरह। सुबोध अब पहले जैसा नहीं रहा था, लेकिन उसके भीतर एक हल्की सी लौ फिर से जलने लगी थी। राधा की सेवा और उसके शब्दों में ऐसा अपनापन था जो दवाओं से ज्यादा असर कर रहा था। रोज सुबह वह चुपचाप उसके पलंग के पास बैठती, उसे नहलाती, दवा देती और फिर आराम से खाना खिलाती। सब कुछ बिना शिकायत के।
एक दिन सुबोध ने धीरे से पूछा, “राधा, तुम यह सब क्यों कर रही हो? मुझसे क्या रिश्ता है तुम्हारा?”
राधा ने मुस्कुराते हुए सिर्फ इतना कहा, “कभी आप ही ने मुझे इंसान समझा था, जब कोई और नहीं समझा।”
सुबोध की यादें धुंधली थीं। वह समझ नहीं पाया, लेकिन राधा ने और कुछ नहीं कहा।
एक शाम, बाहर हल्की बारिश हो रही थी। सुबोध अब थोड़ा-थोड़ा चलने लगा था, वॉकर के सहारे। वह हॉल में बैठा था। राधा ने टीवी चलाया। न्यूज़ में एक रिपोर्ट आ रही थी: “गाँवों में बालिकाओं को शिक्षा देने वाले आशा शिक्षा मिशन की नई पहल।” रिपोर्टर ने एक पुराने फोटो की झलक दिखाई , और सुबोध चौंक गया। फोटो में वह खुद था, एक युवा, एक संस्था के उद्घाटन में बच्चों को किताबें बांटता हुआ। उसकी आँखों में चमक आ गई। “यह तो मेरी ही फाउंडेशन थी!”
राधा ने उसी वक्त कहा, “साहब, वह फोटो मेरे लिए जिंदगी थी।”
सुबोध ने उसकी ओर देखा। अब उसकी आँखों में सवाल थे। राधा धीरे-धीरे बैठ गई और बोली, “बीस साल पहले, मैं एक गरीब किसान की विधवा बेटी थी। हमारे गाँव में स्कूल नहीं था। लड़की होकर पढ़ाई की तो माँ ने ताना दिया, समाज ने थूका। लेकिन तभी आपकी टीम गाँव में आई थी। आपने मुझे स्कूल में भर्ती करवाया, कपड़े, किताबें सब दीं और बोला था, ‘हर बेटी को पढ़ना चाहिए, चाहे कोई भी हो।’”
सुबोध अब पूरी तरह स्तब्ध था। राधा की आँखों से आँसू गिरने लगे। “फिर माँ की तबियत बिगड़ी, पढ़ाई छूट गई। नौकरी की तलाश में शहर आई और एक दिन जब काम की तलाश में इस बंगले में आई, तब जाकर पता चला कि यह उसी सुबोध साहब का घर है जिसने मुझे पढ़ाया था। तब से सोच लिया था कि अगर कभी आपको जरूरत पड़ी, तो मैं आपके साथ खड़ी रहूँगी। आपने बिना जाने मुझे जिंदगी दी, अब बारी मेरी थी।”
कमरे में सन्नाटा छा गया। सुबोध की आँखें भी भीग चुकी थीं। उसने काँपते हुए हाथों से राधा का हाथ थामा। “तुमने मुझे मेरी ही जिंदगी याद दिला दी। अब मैं जानता हूँ कि असली रिश्ते खून के नहीं, इंसानियत के होते हैं।”
राधा कुछ नहीं बोली, सिर्फ चुपचाप मुस्कुराई जैसे सालों का कर्ज आज पूरा हो गया हो।
अब हवाओं में एक अलग सी ताज़गी थी। वह घर जो पहले अकेलेपन और खामोशी से भरा था, अब उम्मीदों से गूंजने लगा था। सुबोध अब वॉकर के बिना भी थोड़ी दूरी तक चलने लगा था। उसका चेहरा धीरे-धीरे उस खोए हुए आत्मविश्वास से भरने लगा था जो कभी उसकी पहचान हुआ करता था।
राधा ने एक सुबह कहा, “अब बहुत दिन हो गए साहब। चलिए बाहर चलते हैं। थोड़ा धूप, थोड़ी हवा, दिल भी हल्का होगा।”
सुबोध मुस्कुराया। “हाँ राधा, अब जिंदगी की धूप महसूस करनी है, बस अतीत की छाँव में नहीं जीना।”
बाहर की दुनिया में लौटने के लिए सुबोध और राधा एक एनजीओ के कार्यालय पहुँचे। वही संस्था जिसे सुबोध ने सालों पहले शुरू किया था, लेकिन अब उसका संचालन दूसरों के हाथ में था। जैसे ही सुबोध ने दरवाजा खोला, रिसेप्शनिस्ट ने एक नजर डाली और कहा, “माफ कीजिए, यहाँ पर फाउंडर से मिलने का अपॉइंटमेंट लेना होता है।”
सुबोध ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं अपॉइंटमेंट लेकर नहीं आया। मैं वहीं हूँ जिसे तुम ढूंढ रहे हो—इस संस्था का पहला सपना।” रिसेप्शनिस्ट हक्का-बक्का रह गया। कुछ ही देर में संस्था के वर्तमान हेड आए। जैसे ही उन्होंने सुबोध को देखा, उनके होश उड़ गए। “सर, हमें माफ कर दीजिए। हमें लगा आप…”
सुबोध ने हाथ उठाकर रोक दिया। “बस। अब और माफ़ी की जरूरत नहीं। मैं यहाँ लौट आया हूँ और अब इस संस्था को फिर से उसकी असली राह पर लाना चाहता हूँ।”
सुबोध ने एक नई योजना शुरू की: “परछाई से पहचान तक।” यह योजना उन महिलाओं के लिए थी जो समाज के उपेक्षित हिस्से से आती थीं—विधवा, अकेली, बीमार या बुजुर्ग। सुबोध ने राधा को उसका प्रमुख समन्वयक बना दिया। राधा ने झिझकते हुए कहा, “साहब, मैं तो बस एक…”
सुबोध ने मुस्कुरा कर टोका। “तुम सिर्फ एक नौकरानी नहीं हो राधा। तुम मेरी गुरु हो, मेरी नई प्रेरणा।”
उस शाम सुबोध एक नई कुर्सी पर बैठा था। उसके चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक थी। सामने एक नया बैनर लगा था, जहाँ लिखा था, “जहाँ हर रिश्ता खून से नहीं, इंसानियत से जुड़ता है।” राधा आज पहली बार साड़ी में नहीं, एक सादी लेकिन साफ-सुथरी सलवार-कुर्ता में मंच पर आई और पूरे गाँव ने खड़े होकर तालियाँ बजाईं।
शाम ढल चुकी थी। एनजीओ के नए भवन में एक छोटी सी संगोष्ठी चल रही थी: “भरोसे की कहानियाँ।” लोग अपनी जिंदगी के सबसे गहरे अनुभव साझा कर रहे थे। सुबोध अपनी व्हीलचेयर से उठा, वॉकर के सहारे मंच तक गया। पूरे हॉल में सन्नाटा था। उसकी आँखों में कुछ कहने की तड़प थी। कुछ अधूरी यादें जो आज जुबान पर आने को बेताब थीं। उसने माइक थामा और कहा, “मैं आज एक ऐसा सच बताने जा रहा हूँ जिसे मैंने बरसों से अपने भीतर छुपा कर रखा है। एक अधूरी कहानी।”
“सालों पहले, एक बहुत गरीब घर में एक बच्ची काम करने आती थी। पतली सी काया, आँखों में सवाल और हाथों में चुपचाप मेहनत। वह खाना बनाती, झाड़ू लगाती और चुपचाप चली जाती। उसका नाम राधा था।”
हॉल में राधा की आँखों से आँसू बहने लगे।
सुबोध ने अपनी कहानी जारी रखी, “एक दिन मैंने उसे स्कूल में दाखिल कराने की कोशिश की, लेकिन उसकी माँ ने कहा, ‘बेटी काम करेगी तो पेट भरेगा, पढ़ाई से नहीं।’ उस दिन राधा बहुत रोई थी और मैंने वादा किया था कि अगर मैं कभी सफल हुआ, तो तुम्हें पढ़ाऊँगा। लेकिन वक्त, काम और जिंदगी की दौड़ में मैं भूल गया और वह वादा अधूरा रह गया।”
सुबोध ने राधा की ओर देखा। “राधा, शायद तुमने नहीं पहचाना, लेकिन मैं वही हूँ जिसने वह वादा किया था। और आज, जब तुमने मुझे सहारा दिया, मैं समझ गया। तुमने नहीं, भगवान ने मुझे दूसरा मौका दिया है उस अधूरे वादे को पूरा करने का।”
राधा मंच पर आई, उसकी आँखें भर आईं। “साहब, जब आपने मुझे सहारा देने की कोशिश की थी, तब मैं बहुत छोटी थी। पर मैं वह बात नहीं भूली। इसीलिए जब सब ने आपको छोड़ा, तब मैं आपके पास आई, क्योंकि आपने मुझे इंसान समझा था, नौकर नहीं।”
सुबोध ने राधा का हाथ थामा और कहा, “आज से हम मिलकर वह करेंगे जो अधूरा रह गया था। हर राधा को शिक्षा देंगे। हर टूटे सपने को जोड़ेंगे।” एनजीओ का नाम उसी दिन बदल दिया गया: “वादा: हर बेटी के लिए।”
पुरानी हवेली अब बदल चुकी थी। वहाँ बच्चों की हँसी गूँजती थी , राधा अब एक समाज सेविका बन चुकी थी और सुबोध हर सुबह एक नई उम्मीद के साथ उठता था। जिसे सबने नौकरानी समझा, वही उसकी सबसे बड़ी ताकत निकली। और जिसे सबने बीमार समझा, उसने समाज को फिर से जिंदा कर दिया।
अंत में, एक पंक्ति उभरती है: “रिश्ते खून से नहीं बनते, कुछ वादे निभाए जाने से बनते हैं।”
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