बीमार मां-बाप को छोड़ा था बेसहारा फिर किस्मत ने पलटी ऐसी बाज़ी, जानकर रूह कांप जाएगी!

“परिवार की विरासत – एक डॉक्टर की घर वापसी”
मुंबई की चकाचौंध और भागदौड़ भरी ज़िंदगी के बीच, एक हाईवे ढाबे की मध्यम रोशनी में अर्नव ने कदम रखा। विदेश से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी कर चार साल बाद वह अपने देश लौटा था। उसका चेहरा थकान से भरा था, लेकिन आंखों में अपने दादा-दादी से मिलने की बेताबी की चमक थी।
ढाबे में घुसते ही उसकी नजर एक बुजुर्ग महिला पर पड़ी—झुकी कमर, कांपते हाथ, झुर्रियों से भरा चेहरा। वह फर्श पर पोछा लगा रही थी। कुछ पल के लिए अर्नव ठिठक गया। दिल जोर से धड़का। वह चेहरा, वो आंखें सुनैना दादी से इतनी मिलती-जुलती थी कि उसे अपनी सांसे रोकनी पड़ी। नहीं, यह मुमकिन नहीं था। मम्मी-पापा ने तो कहा था कि दादा-दादी तीर्थ यात्रा पर गए हैं। फिर यह कौन थी?
हवा में सन्नाटा था। बस चाय की चुस्कियों और दूर हाईवे पर गाड़ियों की आवाजें गूंज रही थी। अर्नव ने हिम्मत जुटाई और धीरे-धीरे उस महिला के पास गया। पास पहुंचते ही उसकी आंखों में आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा। “दादी!” उसकी आवाज कांप रही थी। महिला ने चौंक कर सिर उठाया। एक पल को समय थम सा गया। फिर पोछा फर्श पर गिरा और वो लड़खड़ाते कदमों से अर्नव की ओर बढ़ी। “अरनव, मेरा लाडला!” सुनैना की बूढ़ी बाहों ने उसे जकड़ लिया। दोनों फूट-फूट कर रो पड़े जैसे सालों का दर्द उस एक पल में बाहर आ गया हो।
ढाबे के कोने में कुर्सी पर बैठे प्रभात दादाजी भी यह नजारा देख रहे थे। उनकी कमजोर आंखों में आंसू थे, पर होठों पर हल्की मुस्कान थी। लेकिन यह खुशी का मंजर अधूरा था। अर्नव का दिमाग सवालों से घिर गया—दादी ढाबे में पोछा क्यों लगा रही थी? दादाजी की हालत इतनी खराब क्यों थी? और मम्मी-पापा ने झूठ क्यों बोला?
सच का सामना
अरनव ने दादी की ओर देखा और पूछा, “यह सब क्या हो रहा है? आप लोग यहां ढाबे में क्यों हैं?” सुनैना ने एक गहरी सांस ली। “बेटा, हमें सच बताने में शर्मिंदगी होती है। पर अब तू हमारा सहारा है। बैठ, तुझे सब बताते हैं।”
ढाबे का मालिक रमेश चाय का गिलास लेकर आया। “अम्मा, आप रो मत, आपका नाती आ गया है ना,” उसने कहा और चुपचाप कोने में चला गया।
सुनैना ने शुरू किया, “जब तू विदेश गया तब तक हमारी जिंदगी में थोड़ी रोशनी थी। मुरादाबाद के उस छोटे से घर में हम खुश थे। प्रभात और मैं बूढ़े हो रहे थे, पर तेरा प्यार हमें ताकत देता था। तू बाजार से दवाइयां लाता, हमारे लिए फल खरीदता, और रात को बैठकर हमारी पुरानी कहानियां सुनता। तेरे मम्मी-पापा को भी तू समझाता था कि हमारा ख्याल रखें।”
प्रभात बोले, “पर जैसे ही तू गया, सब बदल गया। वरुण और निशा को हम बोझ लगने लगे। मेरी बीपी की बीमारी, तेरी दादी का शुगर—उन्हें हमारी हर जरूरत से चिढ़ होने लगी।”
अरनव का चेहरा सख्त हो गया। “फिर क्या हुआ?”
सुनैना ने कांपती आवाज में कहा, “तेरे पापा दिन-रात अपने काम में डूबे रहते। निशा को बस अपने सुख से मतलब था। हमें बासी खाना मिलता। जब प्रभात ने वरुण से शिकायत की, तो वह चिल्लाया, ‘अब तुम लोग क्या काम करते हो जो ताजा खाना चाहिए? जो मिल रहा है, चुपचाप खाओ।’ बेटा, जिन मां-बाप ने अपने बच्चों के लिए सब कुर्बान किया, वो बासी रोटियों के लिए तरस गए।”
अरनव की आंखें भर आईं। प्रभात ने आगे बताया, “पड़ोसियों को भी हम पर तरस आता था, पर वरुण और निशा को कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर एक दिन मेरी तबीयत बहुत बिगड़ गई। सीने में दर्द, सांसे तेज, इतनी कमजोरी कि बिस्तर से उठ ना सकूं। तेरी दादी डर गई। उसने वरुण से कहा, ‘बेटा, अपने पिताजी को अस्पताल ले चलो।’ पर वो भड़क उठा, बोला, ‘मुझे बस यही काम बचा है? दिनभर थकता हूं और तुम लोग हर बार नई मुसीबत लाते हो। जो करना है खुद करो।’”
सुनैना ने सिर झुकाकर कहा, “उसने एक पैसा भी नहीं दिया। मैंने अपने कांपते हाथों से प्रभात को सहारा दिया। सालों से साड़ी में बांधे पैसे निकाले और उन्हें ऑटो में कस्बे के हेल्थ सेंटर ले गई।”
डॉक्टर ने कहा कि बीपी और शुगर कंट्रोल से बाहर हैं। दवाइयां शुरू करनी होंगी। हम दवाइयां लेकर घर लौटे, पर रास्ते में तेज बारिश शुरू हो गई। ऑटो वाला हमें बीच में उतार गया। मैंने प्रभात को अपनी साड़ी से ढककर कीचड़ भरे रास्ते पर घर तक पहुंचाया।
घर पहुंचे तो वरुण और निशा ने ताने मारे, “इन लोगों ने हमारी इज्जत मिट्टी में मिला दी। बुढ़ापे में भी शर्म नहीं है।” अरनव का खून खौल रहा था।
मुंबई का सफर और नया संघर्ष
उस रात वरुण बड़े प्यार से बोला, “मां, पिताजी, आपकी तबीयत ठीक नहीं रहती। मैं आपको मुंबई के बड़े अस्पताल में ले जाऊंगा।” हमें लगा शायद उसे अपनी गलती का एहसास हो गया। हम तैयार हुए। वह हमें ट्रेन में मुंबई ले गया। लेकिन मुंबई में उसने हमें एक चबूतरे पर बिठाया और बोला, “डॉक्टर से बात करके आता हूं।” फिर वो कभी वापस नहीं आया।
अरनव सन्न रह गया। “क्या?”
सुनैना रो पड़ी। “हमें छोड़ गया बेटा। हमारे पास ना पैसे थे ना ठिकाना। मैंने इस ढाबे में काम मांगा। रमेश ने हमें रहने दिया। दिन भर पोछा लगाती हूं और जो खाना बचता है, वह प्रभात को देती हूं।”
तभी ढाबे का दरवाजा खुला। एक शख्स अंदर आया, जिसकी आंखों में कुछ छिपा था। उसने सुनैना को देखा और बोला, “अम्मा, वो लोग आपको ढूंढ रहे हैं। अभी आएंगे।” अरनव चौका, “कौन लोग?” शख्स ने कहा, “आपके बेटे के आदमी।” ढाबे में सन्नाटा छा गया।
अरनव ने दादा-दादी को ढाबे के पिछले कमरे में ले जाकर बिठाया। “आप लोग यहां रुकें। मैं बाहर देखता हूं।” सुनैना ने उसका हाथ पकड़ लिया, “बेटा, तू अकेले मत जा।” अर्नव ने मुस्कुरा कर कहा, “दादी, मैं डॉक्टर हूं। इंसानों को ठीक करना जानता हूं और जरूरत पड़ी तो उनकी अकड़ भी ठीक कर दूंगा।”
मुकाबला और सच्चाई
हाईवे की ठंडी हवा उसके चेहरे से टकराई। सामने कुछ ट्रक खड़े थे और दूर से गाड़ियों की हेडलाइट्स की रोशनी दिख रही थी। तभी एक काली एसयूवी ढाबे के सामने रुकी। उसमें से तीन लोग उतरे—दो हट्टेखट्टे मर्द और एक पतला सा शख्स जिसके हाथ में फोन था।
अरनव ने पूछा, “आप लोग कौन हैं? यहां क्या चाहिए?” शख्स बोला, “वरुण भैया ने अपने मां-बाप को वापस मुरादाबाद ले जाना चाहते हैं।”
“वापस ले जाना?” अर्नव चौका। “उन्हें तो वही छोड़ गया था।” शख्स ने कुटिल मुस्कान दी, “अब उनकी कीमत समझ आ गई है।”
अर्नव ने कहा, “मैंके नाती से बात किए बिना उन्हें कहीं नहीं जाने दूंगा।” शख्स ने फोन निकाला और वरुण से बात करवाई। वरुण बोला, “बेटा, गलती हो गई। मैं उन्हें वापस लाना चाहता हूं।”
अर्नव ने ठंडे लहजे में कहा, “पापा, आपने उन्हें बेसहारा छोड़ा और अब कहते हो गलती हो गई। पहले सच बताओ। आपको उनसे क्या चाहिए?” वरुण ने हिचकिचाते हुए कहा, “वो जमीन… हमें पैसों की जरूरत है।”
अर्नव को जैसे बिजली का झटका लगा। “जाओ और अपने भैया को बोलो कि दादा-दादी अब मेरे साथ हैं। उनकी जमीन तुम्हें नहीं मिलेगी।”
तभी उनमें से एक ने चाकू निकाल लिया। अर्नव पीछे हटा। ढाबे के अंदर से रमेश की आवाज आई, “अरे, यह क्या कर रहे हो?” वह बाहर दौड़ा। पर शख्स आगे बढ़ा। अरनव ने कहा, “रुक जाओ! मैं डॉक्टर हूं। जान बचाना जानता हूं और जरूरत पड़ी तो लेना भी। मेरे दादा-दादी को हाथ लगाने की हिम्मत मत करना।”
रमेश हाथ में लोहे की छड़ लिए बाहर निकला। “पुलिस को बुलाऊंगा।” पतला शख्स हंसा, “पुलिस यहां हाईवे पर जब तक आएगी, हमारा काम हो जाएगा।”
तभी पीछे से ढाबे के पिछले हिस्से से धुआं उठता है। आग लग गई थी। रमेश ने दादा-दादी को पिछले गली से बाहर निकाला। पर यह आग उन गुंडों ने लगाई थी। अर्नव ने पुलिस को फोन किया। गुंडे एसयूवी की ओर भाग गए। अर्नव ने दादा-दादी को ट्रक ड्राइवर की मदद से पास के ढाबे तक पहुंचाया।
अगवा और संघर्ष
तभी अर्नव का फोन बजा। निशा थी। “अरनव, वरुण ने उन गुंडों को भेजा था। वो अभी मुंबई में है। तुझे रोकना चाहता है।” पुलिस पहुंच चुकी थी। पर तभी ट्रक ड्राइवर चिल्लाया, “अरे वो बुजुर्ग लोग कहां गए?” अर्नव पलटा। सुनैना और प्रभात गायब थे। वहां सिर्फ सुनैना की साड़ी का एक फटा टुकड़ा पड़ा था।
कीचड़ में कुछ जूतों के निशान थे जो पास की झाड़ियों की ओर जा रहे थे। अर्नव ने देखा, एक कागज का टुकड़ा पड़ा था—”अगर अपने दादा-दादी को जिंदा देखना चाहता है तो मुंबई के पुराने गोदाम में आ, अकेले।”
अर्नव ने पुलिस को बताया, लेकिन अकेले ही गोदाम की ओर निकल गया। वहां एक लंबा दुबला शख्स शंकर था, जिसने प्रभात और सुनैना को बांध रखा था। शंकर ने जमीन और पुराने खजाने की मांग की। प्रभात ने बताया, “हां बेटा, हमारे पास कुछ पुराने सोने के सिक्के हैं।”
शंकर ने पिस्तौल निकाली। तभी पुलिस की गाड़ी आ गई। अर्नव ने शंकर पर झपटा, पिस्तौल छिटक गई। पुलिस ने शंकर को पकड़ लिया। वरुण भाग गया, लेकिन एक लिफाफा छोड़ गया—”यह खत्म नहीं हुआ। मैं लौटूंगा।”
परिवार की वापसी
अर्नव ने दादा-दादी को सुरक्षित घर ले गया। उनकी देखभाल की, इलाज कराया। दिन बीतते गए, परिवार फिर से मुस्कुराने लगा। लेकिन वरुण की धमकी अभी भी परेशान कर रही थी।
एक दिन निशा ने फोन किया, “वरुण मुरादाबाद में है। वह जमीन बेचने की कोशिश कर रहा है।” अर्नव मुरादाबाद पहुंचा। वकील ने बताया, जमीन अभी प्रभात जी के नाम है। वरुण बिना मंजूरी के कुछ नहीं कर सकता।
अरनव ने वरुण से सामना किया। वरुण ने स्वीकारा, “मैं कर्ज में डूब गया था। गलत रास्ता चुन लिया।” अर्नव ने कहा, “आप अभी भी माफी मांग सकते हैं।”
वरुण ने फोन पर सुनैना से माफी मांगी। सुनैना ने रोते हुए कहा, “बेटा, तू हमारा खून है। हम तुझे कैसे छोड़ सकते हैं? वापस आजा।” वरुण फूट-फूट कर रोने लगा।
अंतिम मिलन और संदेश
अर्नव ने वरुण को मुंबई लाया। परिवार फिर से एकजुट हुआ। निशा ने भी माफी मांगी। प्रभात ने कहा, “जो हुआ उसे भूल जाओ। अब हम साथ हैं।” उस रात पूरा परिवार एक साथ खाना खाने बैठा। पुराने दर्द धुल गए।
अगले दिन अर्नव ने जमीन का सौदा रद्द करवाया और सिक्कों को म्यूजियम को दान कर दिया। “यह हमारी विरासत है, लालच का सामान नहीं।” वरुण ने अपनी गलती सुधारी, छोटा बिजनेस शुरू किया। सुनैना और प्रभात की सेहत ठीक हो गई।
एक शाम सब छत पर बैठे थे। प्रभात बोले, “अर्नव, तूने हमें नई जिंदगी दी।” अर्नव मुस्कुराया, “दादा जी, आप सब ने मुझे सिखाया कि परिवार से बढ़कर कुछ नहीं।”
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