बुजुर्ग बाबा स्टेशन में गिर पड़े , उसे उठाने गया लड़का तो ट्रैन निकल गयी, ऑफिस पहुंचा तो नौकरी भी

इंसानियत की कीमत – नवीन की ट्रेन छूटी, किस्मत खुली

क्या होता है जब इंसानियत की एक पुकार आपके सपनों की ट्रेन छुड़वा दे? क्या होता है जब किसी गिरे हुए को उठाने की कीमत आपको अपनी बरसों की मेहनत से मिली नौकरी गंवा कर चुकानी पड़े? और क्या होता है जब जिंदगी आपको उसी चौराहे पर लाकर खड़ा कर दे जहां एक तरफ जिल्लत देने वाला हाथ फैला हो और दूसरी तरफ आपकी नेकी का सिला देने वाली पूरी कायनात बाहें पसारे हो?

यह कहानी है लखनऊ के राजाजीपुरम के एक तंग गली में रहने वाले 22 साल के नवीन की। पिता के गुजरने के बाद घर की जिम्मेदारी उसी पर आ गई थी – बूढ़ी बीमार मां और छोटी बहन निशा, जिसकी आंखों में कॉलेज जाने के सपने थे। ग्रेजुएशन बीच में छोड़कर नवीन दो साल से नौकरी की तलाश में भटक रहा था। कभी सेल्समैन, कभी मजदूरी – कहीं टिक नहीं पाया। मां की दवाइयों, बहन की फीस और घर के किराए का बोझ उसे हर रोज तोड़ता था।

फिर एक दिन उम्मीद की किरण नजर आई। अवध टेक्सटाइल्स में जूनियर असिस्टेंट की नौकरी मिल गई। तनख्वाह बहुत नहीं थी, लेकिन घर का गुजारा हो सकता था। अपॉइंटमेंट लेटर मिला तो घर में दिवाली मन गई। मां ने लड्डू बनाए, निशा ने कार्ड बनाया। नवीन ने मां के पैर छूकर वादा किया – अब सब ठीक कर दूंगा।

पहला दिन – एक फैसला, एक मोड़

नौकरी के पहले दिन सुबह मां ने दही-चीनी का शगुन किया, निशा ने साफ-सुथरा शर्ट दिया। नवीन मुस्कुराता हुआ घर से निकला। ऑफिस पहुंचने के लिए उसे लोकल ट्रेन पकड़नी थी। चारबाग स्टेशन पर भीड़ थी, प्लेटफार्म नंबर तीन पर गोमती एक्सप्रेस लगी थी। नवीन भागता हुआ डिब्बे की तरफ बढ़ा – पहले दिन ही लेट नहीं होना था। तभी उसकी नजर प्लेटफार्म पर गिरे एक बुजुर्ग बाबा पर गई। भीड़ के धक्के से बाबा गिर पड़े थे, उनका सामान बिखर गया था। लोग उन्हें अनदेखा कर आगे बढ़ रहे थे।

नवीन एक पल के लिए रुका। ट्रेन का हॉर्न बज चुका था, गार्ड ने हरी झंडी दिखा दी थी। नौकरी, मां की दवाइयां, बहन की पढ़ाई – सब उसकी आंखों के सामने घूम गया। लेकिन फिर उसने बाबा की बेबस आंखों में दर्द देखा। उसे पिता की सीख याद आई – “सबसे बड़ा धर्म इंसानियत है। किसी गिरे हुए को उठाना भगवान की पूजा से भी बड़ा है।”

नवीन ने बिना सोचे बाबा को उठाया, उनका सामान इकट्ठा किया, पानी लाकर दिया, माथे की चोट साफ की। ट्रेन छूट गई। बाबा ने कहा, “तेरी गाड़ी…” नवीन बोला, “कोई बात नहीं बाबा जी, दूसरी मिल जाएगी।” बाबा के लिए टिकट लिया, उन्हें ट्रेन में बिठाया, जेब के सौ रुपये थमा दिए। बाबा ने दुआएं दीं और ट्रेन चल पड़ी।

कठिन राह – नौकरी गई, उम्मीद टूटी

अब नवीन को ऑफिस की चिंता हुई। 9 बजे पहुंचना था, 10:30 बज चुके थे। जल्दी-जल्दी ऑफिस पहुंचा, गार्ड ने वर्मा साहब के केबिन भेजा। वर्मा साहब ने सख्ती से पूछा, “पहले ही दिन इतनी देर क्यों?” नवीन ने सच बताया – “एक बुजुर्ग गिर गए थे, मदद कर रहा था।” वर्मा बोले, “वाह! पहले ही दिन बहाने? हमारे यहां ऐसे लापरवाह लोगों के लिए कोई जगह नहीं। तुम जा सकते हो, तुम्हारी नौकरी खत्म।”

नवीन के पैरों तले जमीन खिसक गई। सिक्योरिटी ने उसे बाहर निकाल दिया। उसका सपना, उसकी मेहनत, सब एक पल में खत्म हो गया। घर लौटा, मां और बहन इंतजार कर रही थीं। रोते हुए सारी बात बताई। मां ने गले लगाया, “तूने इंसानियत निभाई है, बेटा। नौकरी आज गई है, कल दूसरी मिल जाएगी। पर आज अगर बाबा को छोड़ आता, तो तेरा जमीर तुझे जिंदगी भर कचोटता। मुझे तुझ पर गर्व है।”

संघर्ष – मेहनत और ईमानदारी का फल

अगले कुछ महीने और भी मुश्किल भरे थे। नौकरी की तलाश जारी रही, कहीं बात नहीं बनी। मां की तबीयत बिगड़ने लगी, निशा सिलाई का काम करने लगी। नवीन ने दिन में डिलीवरी बॉय और रात में ढाबे पर बर्तन मांजने का काम किया। थक कर चूर हो जाता, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। अपने काम में पूरी ईमानदारी और लगन दिखाई। ग्राहक उसकी तारीफ करते, सुपरवाइजर ने नोटिस किया।

एक दिन सुपरवाइजर ने बुलाया – “कंपनी नया लॉजिस्टिक्स हब खोल रही है, असिस्टेंट मैनेजर चाहिए। तुम तैयार हो?” नवीन हैरान था – “सर, मैं सिर्फ 12वीं पास हूं!” सुपरवाइजर बोले – “डिग्री से ज्यादा नियत और मेहनत होती है, वो तुममें है।”

बदलाव – किस्मत का खेल

नवीन ने जिम्मेदारी संभाली। मेहनत और ईमानदारी से कंपनी का मुनाफा कई गुना बढ़ा दिया। मालिक मिस्टर सिंघानिया उसकी लगन से प्रभावित हुए। समय का पहिया घूमता रहा। 10 साल बाद नवीन ने खुद की लॉजिस्टिक्स कंपनी खोल ली – “नवीन लॉजिस्टिक्स”, जो शहर की सबसे बड़ी और भरोसेमंद कंपनी बन गई। राजाजीपुरम में सुंदर घर बना लिया, मां आराम से रहती थी, निशा लेक्चरर बन गई थी। नवीन अब शहर का जाना-माना नाम था – लोग उसकी ईमानदारी की मिसाल देते थे।

पुरानी यादें – इंसानियत का सिला

एक दिन ऑफिस में मिस्टर वर्मा मिलने आए। अब वे बूढ़े, थके हुए, परेशान थे। बेटे पर कर्ज था, साहूकार धमका रहे थे। वर्मा ने नवीन को कंपनी का मालिक समझकर मदद मांगी – “कोई भी काम कर लूंगा, बस मेरे बेटे को बचा लीजिए।”

नवीन ने पूछा, “पहचाना?” वर्मा बोले, “कौन?” नवीन बोला, “मैं वही नवीन हूं, जिसे आपने 10 साल पहले नौकरी से निकाल दिया था, क्योंकि मैंने एक बुजुर्ग की मदद के लिए ट्रेन छोड़ दी थी।”

वर्मा फूट-फूट कर रोने लगे, “माफ कर दो बेटा, बहुत बड़ा पाप हो गया।” नवीन ने उन्हें उठाया, पानी दिया, सेक्रेटरी को कहा – “वर्मा जी के बेटे का सारा कर्ज चुकाओ। हर महीने घर खर्च पहुंचाओ।” वर्मा बोले, “तुम देवता हो।” नवीन मुस्कुराया, “देवता नहीं, बस एक इंसान, जिसे किस्मत ने सिखा दिया कि इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं।”

सीख और संदेश

नवीन ने उस बाबा को बहुत ढूंढा, लेकिन वे फिर कभी नहीं मिले। शायद वे सच में भगवान के भेजे हुए कोई दूत थे, जो नवीन की किस्मत बदलने आए थे।

दोस्तों, यह कहानी सिखाती है कि जिंदगी कब, कहां, कौन सा मोड़ ले ले, कोई नहीं जानता। लेकिन हमारी नेकी और इंसानियत हमेशा हमारे साथ रहती है। नवीन की छूटी ट्रेन ने उसे उसकी मंजिल तक पहुंचा दिया।

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धन्यवाद! जय हिंद!