बूढ़ा बाबा स्कूल के बाहर पेन बेचता था… बच्चे ने गले लगाकर कहा—आप मेरे दादा बनेंगे, लेकिन फिर जो हुआ

“दिल का रिश्ता: बनारस की भीड़ में खोया परिवार”
प्रस्तावना
कहते हैं ना इंसान बूढ़ा उम्र से नहीं होता, उपेक्षा से हो जाता है। बनारस की भीड़ भरी सड़क पर, जहाँ लोग कदमों की रफ्तार में रिश्तों को भूल जाते हैं, वहीं एक बूढ़ा आदमी स्कूल के बाहर पेन बेचते-बेचते अपनी पूरी जिंदगी का दर्द छुपा रहा था। उसका नाम था रामनाथ तिवारी। कोई उसे देखता भी नहीं था, क्योंकि दुनिया के पास रुक कर इंसानियत महसूस करने की फुर्सत कहाँ।
पर उसी भीड़ में एक मासूम बच्चा था—अयान सिंह—जो उस बूढ़े को पेन बेचने वाला नहीं, एक खोया हुआ दादा समझ बैठा। और फिर जो हुआ उसने साबित कर दिया कि रिश्ते खून से नहीं, दिल की पुकार से बनते हैं।
रामनाथ तिवारी: एक खोया हुआ जीवन
सुबह के ठीक 7:30 बजे का समय था। गंगा विद्यालय के बाहर बच्चे अपनी-अपनी यूनिफार्म में हंसते-भागते स्कूल की ओर बढ़ रहे थे। कहीं कोई जूते का फीता बांध रहा था, कहीं कोई टिफिन पकड़े गिरते-गिरते बचा, कहीं कोई अपना होमवर्क ढूंढ रहा था। इस भीड़ में एक चेहरा ऐसा भी था जिसे कोई देखता भी नहीं था—रामनाथ तिवारी, लगभग 72 वर्ष का बूढ़ा आदमी। चेहरा झुर्रियों से भरा, आंखों में टूटी हुई उम्मीदों का सन्नाटा और हाथ में एक पुरानी लकड़ी की पेटी जिसमें पेन और छोटी नोटबुक रखी थी।
वह हर बच्चे को एक ही आवाज देता—”बाबूजी, पेन ले लीजिए। पांच रुपये का है।”
कोई रुकता नहीं था। कुछ बच्चे तो हंसकर आगे बढ़ जाते—”दादा, अभी कौन पेन खरीदता है? सब डिजिटल हो गया है।”
रामनाथ हल्की मुस्कान दे देता, पर भीतर कहीं दर्द की धार चुभती थी। वो इंकारों का आदि हो चुका था। लेकिन सच तो यह कि वह सिर्फ पेन नहीं बेचता था, वह अपने जिए हुए कल से लड़ने की कोशिश कर रहा था।
सालों पहले रामनाथ भी अपनी पत्नी और छोटे से बेटे सूरज के साथ खुश था। सूरज की उम्र बस 7 साल थी जब वह मेले की भीड़ में खो गया। वो दिन रामनाथ को आज भी याद है—भीड़, शोर, मंदिर की घंटियां और अचानक उसका सूरज कहीं गायब। पोस्टर लगाए, मंदिरों में ढूंढा, गंगा घाट की हर सीढ़ी चेक की, कोतवाली में रिपोर्ट लिखवाई, पर सूरज कभी नहीं मिला। उसके बाद पत्नी का भी देहांत हो गया और रामनाथ अकेला पड़ गया। उम्र बढ़ी, काम छूटा और अब पेन बेचकर किसी तरह जीवन काट रहा था। उसके दिल में एक ही सवाल रहता—मेरा सूरज कहीं जिंदा तो होगा?
अयान सिंह: एक अधूरे रिश्ते की तलाश
इसी गंगा विद्यालय में पढ़ता था एक बच्चा—अयान सिंह। 12-13 साल की उम्र, चेहरा मासूम और दिल दुनिया से कहीं ज्यादा समझदार। उसके पिता विक्रम सिंह बनारस के बड़े कारोबारी थे। घर में धन-दौलत की कोई कमी नहीं थी, लेकिन अयान के भीतर एक अजीब सी खालीपन थी। वह हमेशा किसी बुजुर्ग की छाया ढूंढता रहता, जैसे उसे किसी अधूरे रिश्ते की कमी हो।
अयान रोज स्कूल आते-जाते रामनाथ को देखता था। वो बूढ़े की कांपती उंगलियां देखता, उसकी थकी आंखें देखता, पर कभी रुकता नहीं था। पर आज कुछ अलग हुआ। आज अयान स्कूल जा रहा था, लेकिन जैसे ही उसने रामनाथ को देखा, उसके कदम खुद ही रुक गए।
रामनाथ ने वही आवाज दी—”बाबूजी, पेन ले लो, पांच रुपये का।”
अयान कुछ पल तक बिना पलक झपकाए उस बूढ़े की आंखों में देखता रहा। यह आंखें उसे अजीब तरह से कहीं देखी हुई लग रही थीं, किसी ऐसी याद की तरह जो शब्दों में नहीं, दिल की गहराई में बसती है।
दिल का रिश्ता: पहली मुलाकात
अयान ने धीरे से पूछा, “दादा, आपका नाम क्या है?”
रामनाथ चौंक उठा था। सालों बाद किसी ने उसे ‘दादा’ कहा था। “बाबूजी, आप मुझे दादा मत कहो। मैं तो बस रामनाथ हूं।” उसकी आवाज कांप उठी, लेकिन अयान मुस्कुराया—”नहीं, आप दादा ही हो।”
फिर उसने पूरा पेन का डिब्बा उठा लिया और बोला, “दादा, मैं यह सारे पेन खरीदूंगा।”
रामनाथ घबराया—”नन्हे बाबूजी, इतना पैसा मत दो। मैं लायक नहीं हूं।”
पर अयान ने अपनी जेब से 100 रुपये का नोट निकाला और बूढ़े के हाथ पर रख दिया—”दादा, आप लायक ही नहीं, मेरे लिए बहुत कीमती हो।”
यह सुनकर रामनाथ की आंखें भर आईं। उसके होंठ कांपने लगे—”बेटा, तू कौन है? तूने मेरे दिल को आज छू लिया।”
अयान के चेहरे पर एक चमक थी। वह आगे बढ़ा और पहली बार किसी ने उस बूढ़े को सीने से लगा लिया।
रामनाथ सिसक उठा। सालों का दर्द पिघल गया।
“दादा, मैं आज स्कूल के बाद भी आऊंगा, आपसे बातें करूंगा।”
रामनाथ की आंखों में चमक आ गई—”ठीक है बेटा, मैं यहीं रहूंगा, तेरे इंतजार में।”
इंतजार और उम्मीद की लौ
अयान भागता हुआ स्कूल की ओर गया और रामनाथ पहली बार मुस्कुरा दिया। सुबह की भीड़ बीत चुकी थी। स्कूल की बड़ी नीली गेट के अंदर बच्चों की आवाजें घुल चुकी थीं। बाहर सड़क पर अब रिक्शों के खटखट, दुकानों के शटर और चाय के ठेलों की सीटी बजती केतली की आवाज रह गई थी। पर फुटपाथ पर बैठा एक बूढ़ा आदमी—रामनाथ तिवारी—आज किसी और ही इंतजार में था।
उसके सामने वही लकड़ी की पेटी, उसी में रखे पेन और छोटी कॉपियां, पर आज उसकी नजर हर गुजरते बच्चे पर नहीं, बस एक ही बच्चे पर टिक गई थी—अयान।
वो खुद से बुदबुदाता—”पता नहीं आएगा या नहीं, कहीं बच्चे ने मेरे जैसे बूढ़े को बस यूं ही दया में गले तो नहीं लगा लिया।”
लेकिन दिल के किसी कोने में उसके भीतर बच्चा फिर से जाग उठा था, जो उम्मीदों में जीना जानता था।
स्कूल में बेचैनी और छुट्टी के बाद मुलाकात
स्कूल की सातवीं क्लास में बैठा अयान मैथ्स की कॉपी खोले हुए था, पर दिमाग किसी और ही दुनिया में घूम रहा था। टीचर बोर्ड पर सवाल समझा रहे थे, “बच्चों, यह देखो, फ्रैक्शन ऐसे ऐड होते हैं।”
पर अयान के मन में बस एक ही फ्रैक्शन चल रहा था—”मैं + दादा = पूरा रिश्ता।”
वो सोच रहा था—इतने अपने क्यों लगे? क्यों ऐसा लगा कि मैं उन्हें पहले से जानता हूं? क्यों जब मैंने उन्हें गले लगाया तो ऐसा लगा जैसे मैं किसी अपने ही सीने से लग गया हूं?
उसने खिड़की से बाहर झांकने की कोशिश की, वहां से स्कूल का गेट नहीं दिखता था। लेकिन उसे यकीन था—दादा बाहर मेरी राह देख रहे होंगे।
अयान का मन क्लास में नहीं लग रहा था। टीचर ने टोका भी—”अयान, तुम फिर ख्यालों में हो।”
वो घबरा कर बोला—”सॉरी मैडम।”
पर दिल तो वही था—स्कूल के बाहर एक बूढ़े के इंतजार में।
दोपहर का मिलन
दोपहर के 3:00 बजे। स्कूल की छुट्टी की घंटी बजी। बच्चों की भीड़ फिर गेट की ओर भागी। किसी को बस पकड़नी थी, किसी को रिक्शा लेना था, किसी को गली के समोसे तक पहुंचना था।
पर अयान की दौड़ किसी और के लिए थी। वो सीधे गेट से निकलकर सड़क किनारे पहुंचा, जहां सुबह उसने रामनाथ को छोड़ा था। और सच में—रामनाथ वहीं बैठा था। धूप थोड़ा सा झुक गई थी, उसके चेहरे पर थकान की रेखाएं साफ थीं।
पर जैसे ही उसने दूर से अयान को दौड़ते देखा, उसकी आंखों में अजीब सी चमक आ गई।
“दादा!” अयान ने आवाज लगाई।
रामनाथ की आंखें भर आईं—”आ गया बेटा, मैं तो सोच रहा था तू भूल जाएगा।”
अयान ने हल्की नाराजगी से कहा—”आप भी ना दादा, इतने कमजोर दिल के क्यों हो? मैंने कहा था ना, मैं जरूर आऊंगा।”
वह पास बैठ गया और रामनाथ के कंधे पर हाथ रख लिया। कंधे की वह हड्डी इतनी पतली और कमजोर थी, जैसे बरसों से बोझ उठाते-उठाते थक चुकी हो।
कुछ सवाल, कुछ जवाब और गहरी चुभन।
रामनाथ की कहानी
अयान ने धीरे से पूछा—”दादा, आपके घर में कौन-कौन है?”
रामनाथ ने क्षण भर आंखें बंद की। उसे पत्नी का चेहरा याद आया, सूरज की मुस्कान याद आई, वह मेला याद आया, जहां उसका बेटा उसके हाथ से छूट गया था।
“अब कहां घर बेटा? एक समय था जब घाट के पास छोटा सा मकान था, पत्नी थी, एक बेटा था—मेरा सूरज।” उसकी आवाज लड़खड़ाई।
फिर भीड़ में उसे खो दिया। बहुत खोजा, पर न मिला। पत्नी रोते-रोते चली गई, मकान बिक गया और मैं बस बच गया।
अब घर नहीं, बस झुग्गी है और रिश्ते नहीं—बस कुछ पुरानी यादें हैं।
अयान चुप हो गया, उसकी आंखें भी भरने लगीं। उसने धीमे से कहा—”दादा, अगर आपका बेटा आज आपके सामने आ जाए तो आप क्या करेंगे?”
रामनाथ ने तुरंत जवाब दिया—”मैं उसके पैरों में गिर जाऊंगा बेटा, उसे कहूंगा—जहां भी रहा, खुश रहा। बस यही चाहता हूं कि जब मरूं तो उसके सामने मरूं।”
अयान ने गहरा सांस लिया। उसे पता नहीं क्यों, यह सब अपने दिल में गूंजता हुआ महसूस हो रहा था।
कुछ देर चुप्पी के बाद अयान अचानक उठा और बोला—”दादा, आप आज मेरे साथ घर चलो।”
अयान का प्रस्ताव और रामनाथ की झिझक
रामनाथ चौंक गया—”नन्हे बेटा, इतने बड़े घर वालों के बीच मैं अच्छा नहीं लगूंगा। लोग क्या कहेंगे? तेरे पिताजी क्या सोचेंगे?”
अयान ने उसकी आंखों में देखा—”दादा, मेरे पापा रोज कहते हैं कि इंसान की कीमत उसके दिल से होती है, कपड़ों से नहीं। अगर वह सच में ऐसा मानते हैं तो उन्हें भी आपको अपनाना चाहिए।”
रामनाथ की सांस अटक गई—”अगर उन्हें अच्छा नहीं लगा तो?”
अयान मुस्कुराया—”तो मैं उनसे लड़ जाऊंगा। लेकिन आपको अकेला नहीं छोड़ूंगा।”
रामनाथ की आंखें भीग गई—”तू बहुत बड़ा दिल वाला है बेटा। तू कौन है? कहां से आया इतना अपनापन लेकर?”
अयान ने हल्की हंसी में कहा—”दादा, शायद मैं वही हूं जिसकी जिंदगी में भगवान ने आपको दादा की जगह भेजा है।”
कोठी में प्रवेश और परिवार से मिलन
उसी समय काले रंग की एसयूवी गेट के बाहर आकर रुकी। ड्राइवर रमेश ने हॉर्न बजाया।
अयान ने कहा—”दादा, आइए, आज आप हमारे साथ चलिए।”
रामनाथ की उंगलियां पेटी पर कस गईं। यह उसके जीवन की सबसे बड़ी दुविधा थी—फुटपाथ की सुरक्षित बेइज्जती या किसी बड़े घर की अनजानी इज्जत।
उसने आसमान की तरफ देखा। हल्की धूप गंगा की तरफ झुक रही थी, जैसे खुद ऊपर वाला उसे इशारा कर रहा हो।
वो धीरे से बोला—”चलो बेटा। लेकिन अगर तेरे पिताजी ने मुझे पसंद ना किया तो मैं वापस यहीं लौट आऊंगा।”
अयान ने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया—”दादा, आज से आप कहीं और नहीं, बस हमारे दिल में रहोगे।”
अब बनारस की एक बूढ़ी सांस पहली बार फुटपाथ से उठकर एक आलीशान कोठी की ओर चल पड़ी थी।
काली एसयूवी के दरवाजे खुलने का स्वर रामनाथ के लिए किसी मंदिर की घंटी जैसा लगा। उसने शायद जिंदगी में पहली बार इतना महंगा चमकदार वाहन छुआ था।
परिवार की प्रतिक्रिया
अंदर पहुंचते ही सीढ़ियों से नीचे उतरते एक मजबूत कद-काठी वाला आदमी दिखाई दिया—विक्रम सिंह। कड़क चेहरा, तीखी आंखें, व्यक्तित्व ऐसा कि किसी बड़े आदमी का एहसास तुरंत हो जाए।
उन्होंने अयान को देखते ही पूछा—”यह कौन है?”
अयान ने गर्व से कहा—”पापा, यह मेरे दादा हैं।”
पूरे घर में सन्नाटा। विक्रम का चेहरा सख्त हो गया—”दादा ये?”
रामनाथ तुरंत घबरा गया—”मैं चला जाता हूं साहब, बच्चे ने पकड़ लाया, मेरी कोई औकात नहीं।”
पर अयान बीच में खड़ा हो गया—”कोई भी इंसान औकात से नहीं, दिल से बड़ा होता है पापा।”
विक्रम कुछ पल चुप रहे। उनकी आंखें रामनाथ के चेहरे पर गई—उसकी झुर्रियाँ, उसकी थकी आंखें और वो गहरी उदासी जो किसी टूटे हुए आदमी की पहचान होती है।
अचानक विक्रम ने कुछ महसूस किया—एक हल्की सी बेचैनी, एक अजीब सी खटपट दिल में, जैसे यह चेहरा उन्होंने कहीं देखा हो।
पर उन्होंने तुरंत मन झटक दिया—”संयोग है।”
अंदर से मीरा सिंह आई। उनकी आंखों में नरमी थी। उन्होंने पानी का गिलास आगे बढ़ाया—”बाबा, आप थक गए होंगे, पहले पानी पीजिए।”
रामनाथ की आंखें भर आईं—”बहू, बहुत साल बाद किसी ने इतने प्यार से बाबा कहा है।”
मीरा की आंखें भी नम हो गईं।
विक्रम यह दृश्य देख रहे थे, उनके चेहरे पर कुछ पिघलने लगा था।
भोजन और अपनापन
मीरा ने पूछा—”बाबा, आप कहां रहते हैं?”
“सीतामढ़ी घाट के पीछे एक झुग्गी में।”
विक्रम पीछे हटे—सीतामढ़ी घाट उनकी अपनी बचपन की कुछ पुरानी यादें, उसी इलाके से जुड़ी थी।
अयान उत्साहित होकर बोला—”दादा, आप मेरे साथ खाना खाएंगे ना?”
रामनाथ ने डरते हुए कहा—”नहीं बेटा, इतने बड़े घर में मैं कैसे खाऊंगा?”
मीरा ने तुरंत कहा—”बाबा, घर की थाली मेहमान का नहीं, अपनों का इंतजार करती है।”
रामनाथ के चेहरे पर एक हल्की मुस्कान आ गई। टूटती हुई पर फिर भी चमकदार।
रामनाथ टेबल पर बैठा जैसे किसी मंदिर में बैठा हो। उसने धीरे से पहला कौर खाया और आंसू बहने लगे—”बहू, इतना स्वाद मैंने मेरी पत्नी के जाने के बाद कभी नहीं चखा।”
अयान खुश होकर बोला—”दादा, रोज मेरे साथ खाना खाना।”
रामनाथ ने स्नेह से कहा—”अगर तेरे पिताजी इजाजत दें तो।”
विक्रम चुप थे, पर उनके चेहरे पर उथल-पुथल साफ दिख रही थी।
अतीत की परतें खुलना शुरू
डाइनिंग टेबल से उठते ही विक्रम अपने कमरे में जाकर धीरे से दरवाजा बंद किया। आंखें क्यों भर रही थी? दिल क्यों भारी था? इस बूढ़े आदमी की कहानी उन्हें क्यों अपनी लग रही थी?
मीरा धीरे से अंदर आई—”क्या हुआ?”
विक्रम ने भारी आवाज में कहा—”मीरा, इस आदमी में कुछ ऐसा है जो मेरे दिल को हिला रहा है।”
मीरा ने पूछा—”क्या आपको लगता है आपका अतीत इससे जुड़ा है?”
विक्रम कांपते स्वर में बोले—”नहीं जानता, पर ऐसा लग रहा है कि मेरी जिंदगी का कोई बड़ा सच यही कहीं सामने खड़ा है।”
रात गहरा चुकी थी। कोठी की सारी लाइटें जल रही थी। पर रामनाथ तिवारी के दिल में सालों के बाद एक उम्मीद की लौ जली थी।
अयान खाना खाने के बाद रामनाथ के बिल्कुल पास बैठ गया था—”दादा, आज आप हमारे घर ही सो जाइए।”
रामनाथ ने घबराकर कहा—”नहीं बेटा, मैं यहां कैसे रह सकता हूं? इतना बड़ा घर मेरे बस का नहीं।”
पर अयान ने हाथ पकड़ लिया—”दादा, आप मेरे दिल का घर बन चुके हैं। अब आप बाहर नहीं जाएंगे।”
अयान की यह बात रामनाथ के टूटे हुए मन में मरहम की तरह उतरी।
मीरा मीठी मुस्कान के साथ चादर और तकिया लेकर आई—”बाबा, यह आपका बिस्तर है, आराम कीजिए।”
पुरानी चाबी और यादें
रामनाथ ने थोड़ी झिझक के साथ कहा—”बहू, एक सवाल पूछूं?”
“हां बाबा, कहिए।”
“यह घर, यह प्यार, सब कुछ इतना नया क्यों लग रहा है, जैसे मैं किसी पुराने रिश्ते में वापस आया हूं।”
मीरा रुक गई। कुछ कहना चाहा, पर रुक गई। यह सवाल वो खुद से भी पूछ रही थी।
विक्रम सिंह शांत होने की कोशिश कर रहे थे, पर भीतर हलचल थी। उन्होंने आईने में खुद को देखा—माथे पर हल्की सी पुरानी चोट का निशान जो बचपन में गिरने से लगा था। और ना जाने क्यों, रामनाथ के चेहरे को देखते ही वो निशान बार-बार याद आ रहा था। क्यों? वो खुद से सवाल पूछ रहे थे।
मीरा कमरे में आई।
विक्रम ने कहा—”मीरा, मुझे अजीब लगता है। यह बूढ़ा आदमी, इसकी बातें, मेरा बचपन—सब कुछ जैसे जुड़े हुए हैं।”
मीरा बोली—”शायद आपकी भावनाएं आपको कुछ कहना चाहती हैं।”
विक्रम ने सिर हिलाया—”लेकिन कैसे? मैं तो 7 साल की उम्र में एक परिवार के साथ रहने लगा था। वे मुझे मंदिर के पास रोते हुए मिले थे। कौन जानता है मैं कहां से आया था।”
मीरा का दिल धड़क गया—7 साल, वही उम्र जब रामनाथ का बेटा खोया था।
सच्चाई का उजाला
अयान दौड़ता हुआ आया—”दादा, मैं आपका पेन वाला बक्सा लाया हूं। उसमें कोई पुरानी चीज होगी ना?”
रामनाथ मुस्कुराया—”बेटा, तू कैसे समझ गया कि उस डिब्बे में मेरी आधी जिंदगी बंद है।”
उसने बक्सा खोला—अंदर पेन के साथ एक पुरानी जंग लगी तांबे की चाबी पड़ी थी।
अयान ने पूछा—”दादा, यह किसकी चाबी है?”
रामनाथ की आंखें भर आई—”यह मेरे पुराने घर की चाबी है और मेरे खोए हुए बेटे की आखिरी निशानी भी।”
तभी विक्रम कमरे में आए। उनकी नजर चाबी पर पड़ी—”यह चाबी तांबे की…”
उनकी आवाज कांपने लगी, क्योंकि उनके बचपन की धुंधली यादों में एक ऐसी ही चाबी थी जिसे वह सोचते थे कि यह बस कल्पना है।
रामनाथ ने चाबी पकड़ी और कहा—”मेरे बेटे सूरज को इस चाबी से खेलना बहुत पसंद था। वो इसे अपने गले में बांधता था और कहता था—बाबा, जब मैं बड़ा होऊंगा तो यह घर सबसे बड़ा बनाऊंगा।”
अयान ने उत्साहित होकर कहा—”पापा, आपके बचपन की फोटो में भी तो आपके पास एक चाबी थी ना?”
विक्रम का चेहरा सफेद पड़ गया—”हां, कुछ याद आता है। एक चाबी, पर मैं तब बहुत छोटा था।”
मीरा और अयान ने एक दूसरे की ओर देखा—संकेत मिल रहे थे, पर आगे बढ़ने की हिम्मत किसी में नहीं थी।
रामनाथ ने धीरे से पूछा—”बेटा, क्या तुम्हें लगता है मेरा सूरज आज भी जिंदा होगा?”
विक्रम का दिल चीर गया। उन्होंने तुरंत नजरें फेर ली।
मीरा ने कहा—”बाबा, भगवान ने चाहा तो आप एक दिन अपने बेटे को जरूर पाएंगे।”
रामनाथ हंसने की कोशिश करते हुए बोला—”नहीं बहू, अब उम्र हो गई है। मेरा सूरज अगर जिंदा भी होगा तो मुझे भूल चुका होगा।”
यह सुनकर अयान अचानक बोला—”दादा, अगर वह आपको भूल भी जाए, पर आप उसे याद रखते हैं तो रिश्ता खत्म नहीं होता।”
रामनाथ ने उसे सीने से लगा लिया।
विक्रम यह दृश्य देख रहा था और उसके दिल में भावनाओं का ज्वालामुखी फूट रहा था।
फोटो और मिलन की घड़ी
अयान बोला—”दादा, मेरे पास पापा की बचपन की एक फोटो है। क्या आप देखना चाहेंगे?”
रामनाथ चौंक गया, दिल धड़कने लगा—”हां बेटा, दिखा।”
अयान फोटो लाया—उसमें एक 6-7 साल का बच्चा था, गोरा चेहरा, बड़ी आंखें और गर्दन में बंधी एक तांबे की चाबी।
रामनाथ के हाथ कांप गए, फोटो गिरते-गिरते बची। उसकी सांस अटक गई—”मेरे सूरज के पास भी ऐसी ही चाबी थी।”
विक्रम की आंखें भर आई। उन्होंने फोटो ली और फिर धीरे से बोले—”मेरे गले में यह चाबी कैसे आई थी, मुझे नहीं पता।”
कमरा एकदम शांत हो गया—सिर्फ दिलों की धड़कनें सुनाई दे रही थीं। संकेत अब तेज हो रहे थे, अतीत की परतें खुलने लगी थीं।
अतीत का खुलासा और परिवार का मिलन
घर में रात की हल्की शांति थी, पर हर दिल में तूफान चल रहा था। विक्रम अपने कमरे में नहीं जा पा रहा था, रामनाथ सो नहीं पा रहा था और अयान भी आज अपना होमवर्क छोड़कर बस दादा के पास ही बैठा था।
रामनाथ के हाथ में वो पुरानी तांबे की चाबी थी, एक छोटा सा धातु का टुकड़ा, लेकिन उसके भीतर एक खोई हुई दुनिया बंद थी।
विक्रम धीरे-धीरे उसके सामने आकर बैठ गया—चेहरा तनाव से भरा, आंखों में कहीं दर्द, कहीं उम्मीद, कहीं डर।
“बाबा, मुझे आपसे बात करनी है।”
रामनाथ ने धीरे से सिर उठाया—”कहिए बेटा।”
विक्रम ने गहरी सांस ली—”मैंने अपने बचपन के बारे में हमेशा बहुत कम ही सोचा है, क्योंकि मुझे याद ही बहुत कम है। मुझे बस इतना याद है, मैं एक मेले में था, बहुत भीड़ थी, मैं मां-बाप को खोज रहा था, पर मुझे कोई नहीं मिला।”
रामनाथ के हाथ कांपने लगे—जिस घटना को सुनने के बाद वो पूरी जिंदगी रोया था, वह घटना आज किसी और के मुंह से निकल रही थी।
विक्रम आगे बोला—”एक परिवार मुझे रोते हुए मिला, उन्होंने कहा, बेटा, तुम हमारे साथ चलो, तुम्हारे मां-बाप बाद में मिलेंगे, पर वे कभी नहीं मिले।”
रामनाथ का गला सूख गया, आंखों में सूखे आंसू फिर जमा होने लगे—”तेरी उम्र उस समय कितनी थी?”
“शायद 7 साल।”
रामनाथ की सांस अटक गई, उसने तुरंत अपनी छाती पकड़ी, जैसे किसी ने दिल में आग जला दी हो—”और तेरे माथे का यह निशान कैसे आया?”
“मुझे नहीं पता, बस याद है, मैं कहीं गिरा था।”
रामनाथ अपनी जगह से उठ नहीं पाया, आंखों में आंसू तैरने लगे, उंगलियां कांपती हुई। उसने चाबी की तरफ बढ़ाई।
विक्रम फुसफुसाया—”बाबा, यह चाबी मुझे हमेशा अपने पास महसूस होती थी, लेकिन कभी समझ नहीं पाया कि क्यों।”
रामनाथ अब रो नहीं रहा था, वो टूट रहा था।
“मेरे सूरज के गले में यही चाबी बंधी रहती थी, यही बिल्कुल यही।”
कमरा एकदम चुप हो गया।
अयान ने हकलाते हुए कहा—”पापा, क्या आप दादा के बेटे…”
विक्रम की आंखों में आंसू उमड़ आए, वो धीरे से अपने घुटनों पर बैठ गया और फटे हुए स्वर में बोला—”बाबा, क्या मैं आपका सूरज हो सकता हूं?”
यह वाक्य रामनाथ के दिल की अंतिम दीवार भी तोड़ गया—वो चीख पड़ा—”सूरज, मेरा बेटा, तू जिंदा है बेटा, तू जिंदा है।”
रामनाथ ने कांपते हाथों से विक्रम का चेहरा पकड़ कर अपने सीने से लगा लिया। वो इस तरह रो रहा था जैसे गंगा की सारी धाराएं उसके भीतर उमड़ पड़ी हों।
विक्रम भी टूट चुका था—”बाबा, मैं आपको पहचान नहीं पाया, मुझे माफ कर दो, मैं बहुत छोटा था, मुझे कुछ याद नहीं था।”
रामनाथ उसके बालों को सहलाते हुए बोल रहा था—”बेटा, मैंने कब कहा तूने गलती की? तू तो बस खो गया था। गलती भीड़ की थी, समय की थी, जिंदगी की थी।”
अयान रोते-रोते दोनों से लिपट गया—”दादा, अब आप मेरे भी असली दादा हैं।”
मीरा भी आंसू नहीं रोक पाई, उसने दोनों को गले लगा लिया।
घर का हर कोना भावनाओं से भर गया था—कभी गुस्सा, कभी पछतावा, कभी प्यार—सब आज एक ही जगह समा गए थे।
गंगा आरती और नया परिवार
अयान, विक्रम और मीरा रामनाथ को गंगा आरती दिखाने ले गए। हवा में दीपक की रोशनी, शंख की आवाज, आरती के मंत्र और गंगा की लहरें सब मिलकर एक पवित्र एहसास दे रही थी।
विक्रम ने रामनाथ का हाथ पकड़ा—”बाबा, आज के बाद आप कभी अकेले नहीं रहेंगे, हम आपके साथ हैं, हमेशा।”
रामनाथ मुस्कुराया, पर आंखें फिर भी भीगी थीं।
“मैंने भगवान से बस एक ही दुआ मांगी थी—मरने से पहले एक बार अपना सूरज देख लूं।”
उसने अयान के सिर पर हाथ रखा—”भगवान ने मुझे ना सिर्फ बेटा दिया बल्कि पोता भी दे दिया।”
गंगा की लहरों ने जैसे इस मिलन को आशीर्वाद दिया।
उस रात रामनाथ सिंह, जो कभी फुटपाथ पर पेन बेचता था, अब अपनी खोई हुई दुनिया को फिर से पा चुका था।
वह जानता था—जो बिछड़ते हैं, वे किसी ना किसी मोड़ पर फिर मिल जाते हैं, बस दिल में रिश्ता होना चाहिए।
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