बूढ़ी मां ने एक गरीब भिखारी को अपनी आखिरी रोटी दी, फिर कुछ ऐसा हुआ, जो आपकी आंखें नम कर देगा!

एक पूरी की कीमत

जयपुर की गुलाबी नगरी, जहां हवेलियों की दीवारें इतिहास की कहानियाँ फुसफुसाती थीं, वहीं एक छोटे से चौराहे पर रमेश नाम का एक युवक अपनी छोटी सी रेहड़ी सजाया करता था। उसकी पूरी-कचौड़ी की खुशबू दूर-दूर तक फैलती थी और मंदिर जाने वाले श्रद्धालु अक्सर उसकी दुकान के सामने रुक जाया करते। वह मुस्कुराता हुआ हर ग्राहक का स्वागत करता था — जैसे वे उसके घर के मेहमान हों।

लेकिन रमेश की ये मुस्कान, उसकी जिंदगी की सच्चाई नहीं थी। वह मुस्कान एक पर्दा थी, जो छुपा रही थी उसके संघर्ष, उसका दर्द और उसकी जिम्मेदारियां।

उसका घर गली नंबर नौ में था। एक पुराना मकान, दीवारों पर सीलन के निशान, छत पर पानी टपकने के दाग और एक टूटती हुई उम्मीद। वहां उसकी बूढ़ी मां, कमला और 16 साल की बहन, रानी रहती थीं। मां की उम्र 60 के पार थी, और कमर दर्द ने उन्हें लगभग अपंग बना दिया था। रानी स्कूल जाती थी और सपना देखती थी — डॉक्टर बनने का सपना। रमेश की रेहड़ी ही उनका एकमात्र सहारा थी।

एक सर्द शाम की शुरुआत

नवंबर की एक सर्द शाम को, जब बाजार खाली हो रहा था, रमेश अपनी रेहड़ी समेट ही रहा था कि तभी एक लगभग 9 साल का बच्चा उसके पास आया। उसके कपड़े फटे हुए थे, पैरों में चप्पल नहीं थी, और उसके चेहरे पर भूख और ठंड का मिला-जुला दर्द साफ झलक रहा था।

“भैया… कुछ खाने को दे दो,” उसने काँपती आवाज़ में कहा।

रमेश ने बिना किसी सवाल के उसे दो गरम गरम पूरी-कचौड़ी की प्लेट दी और कहा, “खा ले बेटा। आज ठंड बहुत है।”
बच्चे ने हिचकते हुए पूछा, “पैसे?”
रमेश मुस्कुराया, “आज मुफ्त है।”

बच्चा एक कोने में बैठ गया और खाने लगा। रमेश ने देखा — वह हर कौर ऐसे खा रहा था जैसे वह महीनों से भूखा हो। उसका दिल भर आया।

एक लिफाफा और एक राज़

जब बच्चा चला गया, रमेश ने ज़मीन पर एक मटमैला लिफाफा पड़ा देखा। उसने उसे उठाया। अंदर एक कागज और एक पुरानी तस्वीर थी। कागज पर लिखा था — “मेरी मां को ढूंढ दो। उनका नाम लक्ष्मी है, वह जयपुर में हैं।” तस्वीर में एक महिला और वही बच्चा था।

रमेश ने वह लिफाफा घर ले जाकर मां और बहन को दिखाया। कमला ने तस्वीर देखते ही कहा, “शायद ये चेहरा जाना-पहचाना है… हमारे पुराने मोहल्ले में एक लक्ष्मी रहती थी, लेकिन वह तो सालों पहले कहीं चली गई थी…”

खोज की शुरुआत

रमेश ने ठान लिया — वह उस बच्चे और उसकी मां को ढूंढेगा। अगले कई दिन तक वह मंदिरों, बस स्टॉप, रेलवे स्टेशन, हर जगह गया। बच्चा जैसे हवा में गुम हो गया था।

फिर एक दिन, एक बूढ़ा आदमी उसकी रेहड़ी पर आया। “तू वही रमेश है ना जिसने एक बच्चे को खाना दिया था?”

रमेश चौंका। “हां बाबा, आप उसे जानते हैं?”

“वो मेरा पोता है — रवि। और वो लिफाफा… उसकी आखिरी उम्मीद है। उसकी मां लक्ष्मी, मेरी बेटी है। वो सालों पहले एक गलत इंसान के चक्कर में पड़कर घर से भाग गई थी। रवि को मेरे पास छोड़ गई… फिर कभी नहीं लौटी।”

रमेश ने उन्हें तस्वीर दिखाई। बूढ़े की आंखें नम हो गईं। “हां… ये लक्ष्मी ही है।”

रमेश ने उन्हें वादा किया — वो लक्ष्मी को ढूंढ निकालेगा।

लक्ष्मी की तलाश

रमेश ने अपने व्यापार की चिंता छोड़ दी और लक्ष्मी की खोज में जुट गया। पुराने मोहल्ले, मंदिर, सस्ते होटल, धर्मशालाएं — सब छान डाले। मगर कुछ नहीं मिला।

घर की हालत बिगड़ रही थी। मां की दवाइयां खत्म हो रही थीं। रानी की स्कूल फीस बाकी थी। पर रमेश नहीं रुका।

फिर एक दिन, मंदिर के पास वही बच्चा — रवि — फिर दिखा। वह पेड़ के नीचे बैठा रो रहा था।

“भैया… मेरी मां बीमार है। मैं उसे ढूंढ रहा हूं… मगर पता नहीं वो कहां हैं…”

रवि ने बताया कि आखिरी बार वह गलता मंदिर के पास भीख मांग रही थी। रमेश उसे लेकर वहां दौड़ा। हर कोने को छाना। और फिर… एक टूटी सी सीढ़ी के पास एक औरत बैठी थी। थकी हुई, गुमसुम।

रमेश ने तस्वीर निकाली — वही चेहरा।

“लक्ष्मी जी…?”

वो चौकी। “तुम मुझे कैसे जानते हो?”

रमेश ने रवि को सामने किया।

लक्ष्मी की आंखें भर आईं। “मुझे माफ कर दो बेटा… मैंने तुझे छोड़ दिया था…”

रमेश बोला, “अब सब ठीक हो जाएगा। चलिए… आपके पिता आपका इंतजार कर रहे हैं।”

टूटे रिश्तों का फिर से जुड़ना

उस रात रमेश ने लक्ष्मी को उनके पिता हरिप्रसाद के पास पहुंचाया। तीनों ने एक-दूसरे को गले लगाया और रो पड़े।

हरिप्रसाद बोले, “बेटा… तूने हमें फिर से जोड़ा है। ये लो, ये एक छोटा सा तोहफा।”
और उन्होंने रमेश को ₹50,000 का चेक दिया।

रमेश हिचका। “बाबा, मैं इसे नहीं ले सकता…”

“तूने जो किया है, वो इस दुनिया की सबसे बड़ी नेकी है,” हरिप्रसाद बोले।

एक नई शुरुआत – नेकी का आलम

रमेश ने चेक लेकर घर आया और मां और बहन को सब बताया। रानी ने कहा, “भैया अब मेरी स्कूल की फीस भर जाएगी!”

रमेश ने मुस्कुराते हुए कहा, “हां… मगर ये पैसे सिर्फ हमारे लिए नहीं हैं। मैं कुछ और करना चाहता हूं…”

अगले दिन रमेश ने हरिप्रसाद से कहा, “बाबा, मैं इन पैसों से एक जगह बनाना चाहता हूं — जहां भूखे बच्चों को मुफ्त खाना मिले।”

हरिप्रसाद ने अपनी पुरानी दुकान रमेश को दे दी।

कुछ ही हफ्तों में वह दुकान “नेकी का आलम” नाम से एक छोटे से भोजनालय में बदल गई। हर दिन वहां सैकड़ों गरीब और भूखे लोग आते — और मुफ्त में खाना खाते।

लक्ष्मी अब वहां खाना बनाने में रमेश की मदद करती। रवि अब स्कूल जाने लगा था। उसकी मुस्कान अब पहले से कहीं ज्यादा चमकदार थी।

कहानी का विस्तार

एक दिन एक बूढ़ी औरत आई और बोली, “बेटा, मेरे पास देने को कुछ नहीं… बस ये चांदी की अंगूठी है।”

रमेश ने उसे मना किया। मगर उसने कहा, “ये मेरे दिल की शांति के लिए है।”

रमेश ने वह अंगूठी नहीं बेची। उसने भोजनालय में एक दान पेटी लगाई — “अपनी इच्छा से कुछ भी दें”। कुछ दिन में ही वहां से कपड़े, पैसे, किताबें, और खिलौने इकट्ठा होने लगे।

नेकी का आलम अब जयपुर में एक मिसाल बन चुका था।

अंत नहीं, शुरुआत है…

एक सर्द शाम रवि दौड़ता हुआ आया, और रमेश को एक पर्ची दी। उस पर लिखा था:

“तुमने मुझे सिर्फ खाना नहीं दिया…
तुमने मुझे मेरी मां लौटा दी।
शुक्रिया, रमेश भैया।”

रमेश की आंखें भर आईं। उसने रवि को गले लगाया और कहा —
“बेटा… यह तो बस एक पूरी की कीमत थी।”


इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि एक छोटी सी नेकी, एक भूखे को खाना देने जैसा छोटा सा काम, किसी की पूरी ज़िंदगी बदल सकता है।

अगर यह कहानी आपके दिल को छू गई हो, तो इसे ज़रूर दूसरों तक पहुंचाएं।