बूढ़े बाप को वृद्धाश्रम छोड़ आया बेटा, अगले दिन जब आश्रम का मालिक घर आया तो बेटे के होश उड़ गए!
पूरी कहानी विस्तार से:
मां-बाप का दिल जीतकर जो घर बनता है, उसे “घर” कहते हैं और मां-बाप का दिल दुखाकर जो घर बनता है, उसे “मकान” कहते हैं। आज की व्यस्त जीवनशैली में बहुत से लोग या तो यह अंतर भूल चुके हैं, या फिर जानबूझकर अपने स्वार्थ के कारण अनदेखा कर देते हैं। भागदौड़, करियर, सपनों और दिखावे की दुनिया में कहीं न कहीं परिवार, संस्कार, और सबसे बढ़कर—मां-बाप की अहमियत पीछे छूट जाती है।
कहानी की शुरुआत:
यह कहानी है राकेश शर्मा की, जो नोएडा में एक आलीशान मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर था। उसके पास जीवन की सभी भौतिक सुख-सुविधाएं थीं—एक सुंदर फ्लैट, आरामदायक गाड़ी, पढ़ी-लिखी पत्नी सुनीता और दो प्यारे बच्चे। लेकिन उसके जीवन में एक ‘दिक्कत’ थी—उसके वृद्ध पिता हरिनारायण जी।
हरिनारायण जी अपने समय के बड़े आदर्शवादी, स्वाभिमानी और साधारण स्कूल मास्टर रह चुके थे। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी बेटे के लिए कुर्बान कर दी—अपने सपनों पर बेटे की खुशियों का महल बनाया। बीवी के गुजरने के बाद वे अकेले थे, तो बेटे के पास शिफ्ट हो गए, यही सोचकर कि अब बुढ़ापे का सहारा मिलेगा।
संघर्ष की शुरुआत:
लेकिन आज की पीढ़ी की सोच अलग थी। राकेश और सुनीता को तंग करने लगा बूढ़े पिता का अस्तित्व—उनकी खांसी, दवाइयों का बिल, पूजा-पाठ की आदत, और परिवार में दूसरों के सामने शर्मिंदगी। सुनीता अकसर ताना देती, “कितना बोझ है पापा, बच्चों पर भी असर होता है, पार्टी-शार्टी भी नहीं कर सकते, दोस्तों के सामने भी ठीक नहीं लगता…” धीरे-धीरे यही बातें राकेश के सिर में चढ़ गईं। वह पिता से कतराने लगा, अक्सर झुँझलाहट दिखाता। हर बार जब पिताजी अपने बेटे के साथ दो पल बैठना चाहते, बचपन की बातें सुनाना चाहते, राकेश बहाने बनाकर निकल जाता।
हर बार बूढ़ी आंखों में इंतजार रहता, कि शायद बेटा आज पूछेगा “पापा, दवा ली आपने?” या बच्चों से कहेगा, “दादा जी को प्रणाम करो”, पर ऐसा कभी न हुआ।
निर्णय की घड़ी:
फिर आया वह दिन, जब सुनीता ने दो टूक कह दिया, “अब और नहीं… हमें अपने और बच्चों के खातिर पिताजी को अच्छे वृद्धाश्रम भेजना ही होगा। वहां उनका ध्यान भी रहेगा, और हम भी चैन से रहेंगे।”
राकेश ने सुनीता की बात मान ली। दोनों ने पिताजी से झूठ कहा, “पापा, आपके लिए शहर के पास एक बहुत सुंदर आश्रम है, जहां बहुत से आपके उम्र के लोग रहते हैं, आपके लिए एक्टिविटीज हैं, डॉक्टर की सुविधा है…” हरिनारायण जी बच्चे की भलाई समझ कर, दिल में हल्की उम्मीद लिए, उनके साथ गाड़ी में बैठ गए।
वृद्धाश्रम—शांतिकुंज:
शहर से दूर, शांत एक वृद्धाश्रम में राकेश ने अपने पिता को छोड़ा। दाखिला फॉर्म भरा, एडवांस पैसे जमा किए, और जाने लगा। बूढ़े ने कांपते हाथों से उसका हाथ थामकर पूछा—”बेटा, तू कब मिलने आएगा?” राकेश ने सिर झुका लिया, “आता रहूंगा पापा…” इतना कहकर गाड़ी में बैठ गया, और एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पीछे वृद्धाश्रम के गेट पर पिता की आंखों में सैकड़ों सवाल, आंसू और पचास साल पुरानी ममता थी, जिसे बेटे ने एक झटके में बाहर निकाल दिया था।
राकेश और सुनीता ने उस रात राहत की सांस ली, पार्टी की, खूब हंसी-ठहाके लगाए, किसी को भनक भी नहीं लगने दी कि उन्होंने आज एक कितना बड़ा अपराध किया है।
पिता का दुःख
पहली रात हरिनारायण जी सो नहीं पाए। आंखों से आंसू बहते रहे—साथी बुजुर्ग के पूछने पर बस यही बोले, “मैंने अपना सब बेटा बनाने में लगा दिया। आज वही बेटा मुझे छोड़ गया। शायद यह ही जीवन है!” उनको रातभर नींद नहीं आई। पर वह किसी से दुख बांट भी न सके।
पुनर्मिलन और बड़ा रहस्य
अगली सुबह वृद्धाश्रम के मालिक आनंद कुमार रिवाज के अनुसार हरिनारायण जी से मिलने आए। उनकी आंखों में एक सुकून था, स्वर में अपनापन। बातचीत में जब आनंद कुमार ने हरिनारायण जी का नाम, गांव और प्रोफेशन जाना, तो उनके पैरों तले जमीन खिसक गई। यही वही “गुरुजी” थे, जिन्होंने उन्हें अनाथ और गरीब होने के बावजूद, अपने बेटे सा समझा, मुफ्त में पढ़ाया, आगे पढ़ने के लिए पैसे दिए… आनंद कुमार आज लाखों के मालिक, उद्योगपति, और “शांतिकुंज” वृद्धाश्रम चलाते थे। अपने “गुरु” को ऐसी अवस्था में देख वे बुरी तरह रो पड़े।
“गुरुजी, यह मैंने क्या देख लिया! जिस बेटे की खातिर आपने अपनी सारी पूंजी दांव पर लगा दी, उसी ने आपको जिम्मेदारी समझकर यहां छोड़ दिया? मुझे माफ करिए, मैं सालों से आपको खोज रहा था।”
दोनों की मुलाकात देखकर हर बुजुर्ग की आंख नम हो गई। यह पल किसी फिल्म के सीन सरीखा ही था।
जवाब का दिन:
आनंद कुमार को जब पता चला कि राकेश, गुरुजी का बेटा, उसी कंपनी में काम करता है, जिस कंपनी के मालिक वे खुद हैं, तो उन्होंने अगले दिन राकेश के घर जाना तय किया।
अगली सुबह ही वे राकेश के घर पहुंचे। राकेश और सुनीता घर को रीडिजाइन करने, पिताजी के “फालतू” कमरे को मिनी बार बनाने की बातें कर रहे थे। आनंद कुमार ने अंदर आकर राकेश से कहा, “मैं शांतिकुंज वृद्धाश्रम का मालिक हूं, जहां कल आपने अपने पिताजी को छोड़ा था।” यह सुनते ही राकेश घबरा गया। उसने सोचा, ‘शायद और पैसे मांगने आया है या कोई शिकायत।’
आनंद कुमार बड़े शांत, पर दृढ़ स्वर में बोले, “राकेश, शायद तुम नहीं जानते कि तुम्हारे पिताजी मेरे ‘गुरु’ हैं। आज जो भी हूं, उन्हीं की वजह से हूं। जिस फ्लैट में रह रहे हो, जिसमें नौकरी कर रहे हो, वह सब तुम्हारे पिताजी के दुआओं और शिक्षा का ही भला है।”
“अगर चाहूं तो सबकुछ तुमसे छीन सकता हूं—न नौकरी बचेगी, न घर, न गाड़ी। पर गुरु का बेटा है, इसलिए तुम्हें एक मौका देता हूं—जा, या तो एक दिन के भीतर अपने पिताजी से माफी मांग, इज्जत के साथ उन्हें घर लेकर आ, या फिर मेरा घर, मेरी नौकरी छोड़ दे।”
पश्चाताप:
राकेश और सुनीता के होश उड़ गए। जिस पिता को बोझ समझा, उन्हीं की मेहरबानी से सफल जिंदगी पाई थी। दोनों रोते-रोते वृद्धाश्रम पहुंचे, हरिनारायण जी के पैरों में गिर गए—”पापा, माफ कर दीजिए। हमने बहुत बड़ा अपराध किया।”
पिताजी का दिल ममतामयी था—पिघल गया। बेटे-बहू को माफ किया और घर लौट आए।
नई शुरुआत:
उस दिन के बाद राकेश पूरी तरह से बदल गया। उसे एहसास हो गया कि असली दौलत, असली खुशी, अपने मां-बाप की सेवा में है, न कि दिखावे, झूठे अभिमान और स्वार्थ में। राकेश- सुनीता रोज़ अपने पिता की सेवा करते, उन्हें डॉक्टर के पास ले जाते, साथ बैठते, उनके अनुभवों से बच्चों को रूबरू कराते। आनंद कुमार भी समय-समय पर मिलने आते—अब मालिक नहीं, बल्कि बड़े भाई जैसा रिश्ता बन गया था।
कहानी की सीख:
इस कहानी से यही संदेश मिलता है कि माता-पिता को कभी बोझ मत समझिए। वे हमारी जड़ों की नींव हैं, अगर नींव ही कमजोर हो तो इमारत एक दिन ढह जाती है। पैसा, नौकरी, गाड़ी—सब मिल सकता है—but मां-बाप की दुआओं और उनके द्वारा दी गई सीख का कोई बदल नहीं।
अगर कहानी आपके दिल को छू गई हो, तो इसे आगे शेयर करिए—शायद किसी और का सोच बदल जाए, किसी मां-बाप का जीवन बदल जाए।
धन्यवाद!
यदि आपको कहानी में कोई फेज़ और विस्तार, या भावनात्मक रंग चाहिए हो, तो बताइए।
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