“बेटे ने पापा को घर से निकाला… अगले दिन जो हुआ, देखकर सब रो पड़े।
मां-बाप का दिल – एक भावुक कहानी
मां-बाप का दिल जीतकर जो जगह बनती है, वही घर कहलाती है। लेकिन मां-बाप का दिल दुखाकर जो चार दीवारी खड़ी की जाती है, वह सिर्फ मकान रह जाती है।
यह कहानी है संजय की, जिसने अपने पिता को बोझ समझा और वृद्धाश्रम छोड़ आया। उसे लगा कि उसने एक बड़ी जिम्मेदारी उतार दी है। लेकिन अगले ही दिन उसकी जिंदगी में ऐसा तूफान आया जिसने उसे झकझोर कर रख दिया।
नोएडा की ऊँची-ऊँची इमारतों, चमचमाती सड़कों और भागती-दौड़ती जिंदगी के बीच रहता था संजय। 38 साल का संजय एक मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर था। उसकी जिंदगी हर उस सपने से भरी थी जिसके लिए लोग तरसते हैं। आलीशान 3 बीएचके फ्लैट, शानदार कार, सुंदर पत्नी राधा और दो प्यारे बच्चे। बाहर से सब कुछ परफेक्ट, लेकिन इस चमकती तस्वीर में एक ऐसा कोना था जो संजय और राधा को चुभता था – संजय का बूढ़ा पिता, 74 वर्षीय विश्वनाथ शर्मा।
विश्वनाथ जी कभी एक सम्मानित स्कूल प्रिंसिपल हुआ करते थे। सख्त मगर दयालु। जिन बच्चों को पढ़ाया, वे आज बड़े-बड़े पदों पर थे। लेकिन वक्त के साथ उनका शरीर कमजोर हो गया। पत्नी का देहांत हुए सालों गुजर गए थे। अब वे बेटे के साथ रहने लगे थे। वे हमेशा बेटे के बच्चों के साथ खेलना चाहते, बातें करना चाहते। लेकिन उनकी खांसी की आवाज, उनका पुराना रेडियो और उनकी दवाइयों का खर्च सब कुछ बेटे बहू को खटकने लगा।
राधा अक्सर संजय से कहती, “तुम्हारे पापा की वजह से घर का माहौल ही खराब हो जाता है। बच्चे भी डरते हैं उनकी खांसी सुनकर। और सबसे बड़ी बात, हमारे फ्रेंड्स घर नहीं आते। आखिर कब तक ऐसे रहना है? किसी अच्छे आश्रम में छोड़ दो इन्हें।”
धीरे-धीरे यह बातें संजय के दिल में जहर घोलने लगी। वह भूल गया कि यही पिता कभी उसकी उंगली पकड़कर उसे चलना सिखाते थे, अपनी रातें जागकर उसे पढ़ाया, अपने सपने बेचकर उसके सपनों को खरीदा। लेकिन अब संजय उन्हें बोझ समझने लगा।
एक दिन राधा ने साफ-साफ कह दिया, “या तो पापा रहेंगे या फिर हमारी आजादी। अब फैसला तुम्हें करना है।”
संजय पूरी रात सो नहीं पाया। उसके दिल में कहीं ना कहीं दर्द था, लेकिन राधा की बातों और अपने लाइफस्टाइल की चाह ने उसके मन को दबा लिया। उसने ठान लिया कि अब वह पिता को वृद्धाश्रम छोड़ आएगा।
अगली सुबह उसने पिता से कहा, “पापा, शहर के पास ही एक बहुत अच्छा आश्रम है। वहां आपके जैसे और भी लोग रहते हैं। आपको अच्छा लगेगा, मन भी लगेगा और आपकी देखभाल भी अच्छी होगी।”
विश्वनाथ जी भोलेपन से बेटे की बात मान गए। उन्होंने सोचा बेटा सच में उनकी भलाई चाहता है। चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए बोले, “ठीक है बेटा, अगर तू कहता है तो मैं चलूंगा।”
संजय ने गाड़ी निकाली। विश्वनाथ जी को बिठाया और आनंद धाम वृद्धाश्रम की ओर चल पड़ा। रास्ते भर पिता पुराने किस्से सुनाते रहे – “याद है बेटा, जब तू पहली बार स्कूल में रो रहा था तो मैंने तुझे गोद में लेकर क्लास तक पहुंचाया था? याद है कैसे मैंने तुझे साइकिल चलाना सिखाया था? और वह दिन जब तू बोर्ड एग्जाम्स में फर्स्ट आया था तो मैंने मिठाई पूरे मोहल्ले में बांटी थी?”
संजय चुपचाप गाड़ी चलाता रहा। उसके दिल में तूफान था, लेकिन चेहरे पर पत्थर जैसा भाव।
आखिरकार गाड़ी वृद्धाश्रम के गेट पर रुकी। जगह बड़ी और साफ-सुथरी थी, लेकिन दीवारों में अजीब सी खामोशी थी। बुजुर्ग यहां वहां टहल रहे थे। कुछ खामोशी से बेंच पर बैठे आसमान देख रहे थे।
संजय ने मैनेजर से बात की, फॉर्म भरे और एडवांस पैसे दिए। जब जाने लगा तो विश्वनाथ जी ने बेटे का हाथ पकड़ कर कहा, “बेटा, कब आओगे मुझे लेने?” संजय ने आंखें चुराकर कहा, “जल्दी आऊंगा पापा। आप बस अपना ख्याल रखना।”
और फिर वह बिना पीछे देखे गाड़ी में बैठा और निकल गया। पीछे गेट पर एक बूढ़ा बाप खड़ा था जिसकी आंखों में आंसू थे और दिल में खालीपन। वह बार-बार उस रास्ते को देख रहा था जहां उसका बेटा आंखें फेर कर चला गया था।
घर लौटकर संजय और राधा ने राहत की सांस ली। उन्हें लगा जैसे उनका बोझ उतर गया हो। उस रात उन्होंने पार्टी रखी। दोस्तों को बुलाया, शराब और संगीत का इंतजाम किया। हंसी-ठिठोली के बीच वे यह जताने की कोशिश कर रहे थे कि उन्होंने सही किया।
लेकिन उधर वृद्धाश्रम में विश्वनाथ जी पूरी रात सो नहीं पाए। उनकी आंखें छत को ताकती रही और दिल में एक ही सवाल था – क्या बेटा सच में मुझे लेने आएगा?
सुबह हुई। वृद्धाश्रम के संचालक 52 वर्षीय सुदीप मेहता नए आए बुजुर्गों से मिलने उनके कमरे में पहुंचे। उन्होंने विश्वनाथ जी को देखा – चेहरा उदासी से भरा हुआ और आंखें दर्द से लबालब। सुदीप ने प्यार से उनके कंधे पर हाथ रखा, “बाबूजी, मैं इस आश्रम का मालिक हूं। आप चिंता मत कीजिए, यह भी आपका घर है।”
विश्वनाथ जी का गला भर आया। उन्होंने रोते हुए कहा, “बेटा, मैंने अपनी सारी जिंदगी अपने बेटे को पढ़ाने-लिखाने में लगा दी। आज उसी ने मुझे यहां छोड़ दिया।”
सुदीप की आंखें भी भीग गई। लेकिन जब उन्होंने विश्वनाथ जी का पूरा नाम सुना – विश्वनाथ शर्मा – तो उनके होश उड़ गए। उन्होंने कांपते हुए पूछा, “क्या आप वही प्रिंसिपल साहब हैं जिन्होंने गांव के स्कूल में बच्चों को पढ़ाया था?”
विश्वनाथ जी ने हैरानी से देखा, “हां, पर तुम क्यों पूछ रहे हो बेटा?”
सुदीप की आंखों से आंसू बह निकले। “गुरु जी, मैं वही अनाथ सुदीप हूं जिसे आपने फीस माफ कर पढ़ाया था। आपने मुझे किताबें दिलाई, आगे पढ़ने शहर भेजा। आपने कहा था बेटा, इतना बड़ा बनना कि हजारों का सहारा बन सके। आज मैं उसी मुकाम पर हूं। लेकिन आप यहां…”
विश्वनाथ जी की आंखों में पहचान लौट आई। उन्हें याद आया कि कैसे उन्होंने उस गरीब बच्चे को अपना बेटा मानकर पढ़ाया था और अब वही बच्चा उनके सामने करोड़पति बनकर खड़ा था। उस छोटे से कमरे में गुरु और शिष्य का ऐसा मिलन हुआ कि हर किसी की आंखें भर आई।
सुदीप बार-बार गुरु जी के हाथ पकड़ता, रोता और कहता, “मैंने सोचा था एक दिन आपको खोजकर आपके चरणों में सिर झुकाऊंगा, पर यह दिन इस तरह आएगा, मैंने सपने में भी नहीं सोचा था।”
विश्वनाथ जी की आंखें नम थी। उन्होंने कांपते हुए सुदीप के सिर पर हाथ रखा, “बेटा, मुझे तुझ पर गर्व है। मैंने तुझे पढ़ाया था, पर तुझे इतना बड़ा इंसान बनते देख मेरी आत्मा धन्य हो गई। भगवान करे तू और ऊंचाइयां छुए।”
लेकिन तभी सुदीप का दिल गुस्से से भर गया। उसने धीरे-धीरे सारी बातें जानी – कैसे संजय ने अपने पिता को बोझ समझा और यहां छोड़ दिया।
यह सुनकर उसका खून खौल उठा। उसका दिल बार-बार कह रहा था – जिस बेटे को गुरुजी ने अपनी हर सांस में पाला, वही आज उन्हें इस हालत में छोड़ गया। नहीं, यह अन्याय मैं ऐसे ही नहीं छोड़ सकता।
उस रात सुदीप सो नहीं सका। उसके दिल में एक ही ख्याल घूमता रहा – मुझे इस बेटे को आईना दिखाना है। उसे समझाना होगा कि मां-बाप का दिल दुखाकर कोई सुखी नहीं रह सकता।
अगली सुबह संजय अपने फ्लैट में आराम से उठा। राधा ने चाय का कप उसके हाथ में रखा। दोनों बच्चे स्कूल जा चुके थे। राधा हंसते हुए बोली, “अब घर कितना खाली सा लग रहा है ना, जैसे बोझ उतर गया हो। सोचा है उस कमरे को मिनी बार बना देते हैं। दोस्तों को बुलाने में भी मजा आएगा।”
संजय ने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया, “हां बिल्कुल। अब जिंदगी चैन से जी पाएंगे।”
इतना ही कहा था कि दरवाजे की घंटी बजी। संजय ने दरवाजा खोला। सामने खड़ा था एक अनजान मगर बेहद रबदार शख्स। सूट-बूट में, आंखों में गहराई और चेहरे पर एक अजीब सी सख्ती।
“जी कहिए?” संजय ने पूछा।
उसने भारी आवाज में कहा, “क्या मैं अंदर आ सकता हूं?”
संजय ने सोचा, शायद कोई कंपनी का अधिकारी होगा या कोई पड़ोसी? उसने दरवाजा खोल दिया। वह आदमी अंदर आया, चारों ओर नजर दौड़ाई और सोफे पर बैठ गया।
संजय ने पूछा, “आप कौन हैं?”
उसने गहरी सांस ली और शांत स्वर में कहा, “मैं आनंद धाम वृद्धाश्रम का मालिक हूं। वही जगह जहां आपने कल अपने पिता को छोड़ा था।”
सुनते ही संजय का चेहरा सफेद पड़ गया। उसके हाथ से चाय का कप लगभग गिर ही गया। उसने घबराते हुए कहा, “मैंने सारे पैसे एडवांस में दिए हैं। मेरे पिता वहां अपनी मर्जी से रह रहे हैं। आपको कोई दिक्कत है तो बता दीजिए, मैं देख लूंगा।”
सुदीप हल्की सी मुस्कान के साथ बोला, “दिक्कत मुझे नहीं है, अब तुम्हें होने वाली है।”
संजय चौका, “मतलब?”
सुदीप ने गहरी आवाज में कहा, “शायद तुम मुझे नहीं जानते, लेकिन तुम्हारे पिता मुझे बहुत अच्छी तरह जानते हैं। वह मेरे गुरु जी हैं। वही इंसान जिन्होंने मुझे पढ़ाया, संभाला और इस मुकाम तक पहुंचाया। उनकी दुआओं और उनकी शिक्षा ने ही मुझे सब कुछ दिया है। और तुम – तुमने उन्हें किस हाल में छोड़ दिया वृद्धाश्रम में?”
संजय की आंखें फैल गईं। राधा भी दरवाजे पर खड़ी सुन रही थी। दोनों के पैरों तले जमीन खिसकने लगी। लेकिन असली झटका तो अभी बाकी था।
सुदीप ने सीधे उनकी आंखों में देखते हुए कहा, “संजय, जिस कंपनी में तुम मैनेजर की कुर्सी पर बैठे हो, वह कंपनी मेरी है। जिस फ्लैट में तुम रहते हो, यह पूरी बिल्डिंग मेरी है और तुम्हारी गाड़ी – वह भी कंपनी के नाम पर है, यानी मेरी है। तुम्हें जो कुछ मिला है, वह सब तुम्हारे पिता की वजह से है। अगर वह मेरे गुरु जी ना होते, तो आज मैं यहां ना होता और तुम भी ना होते।”
यह सुनते ही संजय और राधा के चेहरे का रंग उड़ गया। वे वहीं बैठे-बैठे जैसे पत्थर के हो गए।
सुदीप ने सख्ती से कहा, “मैं चाहूं तो अभी के अभी तुम्हें इस घर से निकाल सकता हूं। तुम्हारी नौकरी छीन सकता हूं और तुम्हें सड़क पर ला सकता हूं। लेकिन मैं ऐसा नहीं करूंगा क्योंकि मैं अपने गुरु का बेटा बर्बाद नहीं कर सकता। मगर तुम्हारे पास अब सिर्फ 24 घंटे हैं। या तो तुम जाकर अपने पिता से माफी मांगो और उन्हें पूरे सम्मान के साथ घर वापस लेकर आओ या फिर यह घर खाली कर दो और कल से नौकरी पर मत आना।”
कमरा खामोश हो गया। संजय के हाथ कांप रहे थे। राधा की आंखों से आंसू बह निकले। उन्हें समझ आ गया था कि उनका सबसे बड़ा गुनाह उनके सामने खड़ा है।
सुदीप उठकर दरवाजे की ओर बढ़ा। जाते-जाते उसने सिर्फ एक वाक्य कहा, “याद रखना संजय, मां-बाप का दिल दुखाकर बनाई गई दुनिया कभी खुशियां नहीं देती।”
और वह वहां से चला गया।
संजय वहीं सोफे पर बैठा रह गया, सिर पकड़ कर। उसके भीतर पछतावे का तूफान उमड़ रहा था। उसकी आंखों के सामने सुदीप के शब्द गूंज रहे थे – “मां-बाप का दिल दुखाकर बनाई गई दुनिया कभी खुशियां नहीं देती।”
उसके माथे पर पसीने की बूंदें थी। राधा पास बैठी कांप रही थी। दोनों की आंखें नम थी।
राधा ने धीमे स्वर में कहा, “संजय, अब हमें क्या करना चाहिए?”
संजय की आंखों से आंसू निकल पड़े। उसकी आवाज भर्रा गई, “हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई राधा। पापा ने सब कुछ दांव पर लगाकर मुझे पढ़ाया। उनकी दुआओं से मुझे नौकरी मिली, यह घर मिला, यह जिंदगी मिली। और मैंने उन्हीं को घर से निकाल दिया। हम कैसे इंसान हैं…”
राधा भी रो पड़ी, “मैं ही बार-बार तुझे कहती रही कि पापा बोझ हैं। मैं दोषी हूं। अगर पापा ने हमें माफ ना किया तो…”
संजय खड़ा हुआ। उसकी आंखों में पछतावे की लकीरें साफ दिख रही थी। उसने दृढ़ स्वर में कहा, “नहीं राधा, देर हुई है लेकिन अभी वक्त है। चलो, अभी चलते हैं पापा के पास। उनसे माफी मांगेंगे। उनके बिना यह घर, यह जिंदगी सब सुना है।”
दोनों ने तुरंत गाड़ी निकाली और तेजी से वृद्धाश्रम की ओर रवाना हो गए। रास्ते भर संजय की आंखों के सामने बचपन की तस्वीरें घूम रही थी – पापा का हाथ पकड़ कर स्कूल जाना, पापा का उसके लिए नए जूते खरीदना, पापा का उसे गोदी में उठाकर झूला झुलाना – हर याद उसे भीतर से तोड़ रही थी।
आनंद धाम वृद्धाश्रम का गेट जैसे ही सामने आया, संजय की सांसे भारी हो गई। उसने गाड़ी रोकी और भागते हुए अंदर चला गया।
विश्वनाथ जी उस वक्त बेंच पर बैठे आसमान की ओर देख रहे थे। उनकी आंखें सुनी थी, उनके होंठ बुदबुदा रहे थे – “शायद मेरा बेटा मुझे कभी लेने नहीं आएगा…”
तभी पीछे से आवाज आई, “पापा!”
विश्वनाथ जी ने पलट कर देखा। संजय और राधा उनके पैरों में गिर गए। दोनों फूट-फूट कर रोने लगे, “पापा, हमें माफ कर दीजिए। हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई। आपने सब कुछ हमें दिया और हमने आपको ही छोड़ दिया। हमसे बड़ा पापी इस दुनिया में कोई नहीं।”
विश्वनाथ जी का दिल पिघल गया। आंखों में आंसू भरकर उन्होंने बेटे के सिर पर हाथ रखा। धीमे स्वर में बोले, “बेटा, मैं जानता था एक दिन तू आएगा। मां-बाप का दिल बहुत बड़ा होता है। मैं तुझे कैसे छोड़ सकता हूं।”
राधा ने रोते हुए उनका हाथ पकड़ लिया, “पापा, मुझे भी माफ कर दीजिए। मैंने ही संजय को आपके खिलाफ भड़काया था। लेकिन अब मैं वादा करती हूं कि अपने बच्चों को यही सिखाऊंगी कि दादा-दादी ही घर की असली नींव है।”
विश्वनाथ जी ने दोनों को गले लगा लिया। वह पल ऐसा था कि वृद्धाश्रम के आंगन में खड़े हर शख्स की आंखें नम हो गई।
उसी समय सुदीप भी वहां पहुंच गया। उसने यह दृश्य देखा तो मुस्कुराया। आगे बढ़कर बोला, “गुरु जी, अब आप अकेले नहीं हैं। यह बेटा आपको छोड़ सकता है, लेकिन मैं कभी नहीं छोडूंगा। आप मेरे लिए भी पिता समान हैं।”
विश्वनाथ जी ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, “बेटा, तूने मेरी शिक्षा का मान रखा। आज तुझसे ज्यादा गर्व मुझे किसी पर नहीं।”
सुदीप ने संजय की ओर देखा। उसकी आवाज सख्त मगर नरम थी, “आज तुमने अपनी गलती सुधार ली, वरना जिंदगी भर पछताते रहते। याद रखना, मां-बाप के बिना इंसान अनाथ होता है, चाहे उसके पास करोड़ों क्यों ना हो।”
संजय ने सिर झुकाकर कहा, “आप सही कह रहे हैं। मैं वादा करता हूं, पापा अब मेरी जिंदगी का केंद्र होंगे। उनकी सेवा ही मेरी पूजा होगी।”
उस दिन विश्वनाथ जी अपने बेटे और बहू के साथ घर लौट आए। घर में जो खालीपन था वह भर गया। कमरे में अब मिनी बार का नहीं बल्कि पिता की हंसी और बच्चों की खिलखिलाहट का संगीत गूंजने लगा।
संजय पूरी तरह बदल चुका था। अब वह दफ्तर से लौटते ही पिता के पास बैठता, उनकी बातें सुनता, उनका ख्याल रखता। राधा भी हर दिन उनका आदर करती। बच्चों के लिए अब दादा ही सबसे बड़े हीरो बन गए थे।
सुदीप अक्सर गुरु जी से मिलने आता, लेकिन अब वह मालिक नहीं बल्कि बड़े बेटे की तरह आता था।
सीख:
यह कहानी हमें यही सिखाती है – मां-बाप बोझ नहीं, हमारी सबसे बड़ी पूंजी हैं। वे वह नींव हैं जिस पर हमारी सफलता की इमारत खड़ी होती है। अगर नींव कमजोर कर दी जाए तो इमारत एक दिन ढह ही जाएगी।
मां-बाप ही असली दौलत हैं।
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