भाई ने अपनी बहन के लिए छोड़ी अफसर की कुर्सी, 10 साल बाद जब बहन जज बनकर लौटी तो सब कुछ बदल गया

सर्वोच्च त्याग: भाई-बहन के अद्भुत रिश्ते की कहानी

त्याग का सबसे ऊंचा शिखर कौन सा होता है? क्या कोई भाई अपनी बहन की खुशी और परिवार के सम्मान के लिए अपने सपनों और पहचान को दफन कर सकता है? यह कथा है रोहन और अंजलि की – उत्तर प्रदेश के छोटे-से गांव बेलारी के दो होनहार भाई-बहन की, जिनके रिश्ते की मिसाल समय भी नहीं भूल सकता।

गांव और परिवार की कहानी

बेलारी गांव… मिट्टी, हरियाली, संघर्ष—और इन्हीं संघर्षों के बीच एक आम किसान दीनाना का परिवार। उसकी सबसे बड़ी पूंजी – बेटा रोहन और बेटी अंजलि। दीनाना और सावित्री ने दोनों की पढ़ाई के लिए हर कष्ट झेला, जमीन बेच दी, पर हौसले नहीं छोड़े।

रोहन और अंजलि के सपने भी उतने ही बड़े–सिविल सर्विस, देश की सेवा, गरीबी का अंत। दोनों भाई-बहन, रात भर लालटेन की तले पढ़ते, एक-दूसरे को पढ़ाते—सच है, सही साथ और सही सपने मिल जाएं तो कठिन राहें भी आसान हो जाती हैं।

संघर्ष और सफलता

गांव के स्कूल से निकल दिल्ली पहुँचे, कोचिंग, किराया, किताबें…पिता कर्ज तक गए। पर मेहनत रंग लाई। नतीजे के दिन – एक ही परिवार से दोनों भाई-बहन ने सिविल सेवा परीक्षा पास की! गांव में जश्न जैसा माहौल, पिता गर्व से फूले न समाए।

रोहन की रैंक ज़बरदस्त—आईएएस की नक्काशीदार कुर्सी उसके इंतजार में। अंजलि को भी एक सम्मानजनक सेवा मिली। पर खुशी के जश्न को नज़र लग गई।

कुर्बानी की घड़ी

गांव का जमींदार हरनाम सिंह – एक लालची, बेईमान, अत्याचारी व्यक्ति, जिसने कई गरीबों की ज़मीन हड़प रखी थी। वह डर गया कि रोहन के कलेक्टर बनते ही उसका राज खत्म हो जाएगा। उसने झूठे केस में दीनाना को फंसा दिया, पुलिस से जेल भिजवा दिया।

रोहन और अंजलि ने पिता को छुड़ाने के लिए दर-दर की ठोकर खाई, वकील के लिए घर-ज़मीन दांव पर लगा दी, लेकिन हरनाम की पहुँच के सामने उनकी एक न चली। इसी बीच, रोहन को हरनाम के बुलावे पर बुलाया गया:

“लड़के, मैं जानता हूं, तेरा बाप बेकसूर है, लेकिन कानून मेरे साथ। अगर इंटरव्यू छोड़ दे, गांव छोड़ दे – तभी तेरा बाप छूटेगा।”

मन का सबसे बड़ा युद्ध

रोहन युगों तक जगा, सपनों के सामने पिता की बेड़ियां, बहन की आंसू। आखिर उसने वो फैसला लिया, जिसे कोई बहादुर ही ले सकता है—अपना सपना, अपनी खुशी, कुर्बान कर दी पिता और परिवार के नाम। घरवालों से झूठ कहा कि इंटरव्यू के कागज़ नहीं मिले – अंजलि को बोला, “तू आगे बढ़, मैं एक साल बाद फिर से दूंगा…” (लेकिन वह जानता है, शायद वह ‘फिर’ कभी आए ही न…)

हरनाम ने जैसे ही वचन पूरा किया, दीनाना छूटकर लौट आए। गांववालों ने सोचा यह करिश्मा है—पर असल किमत अकेला रोहन जानता था।

अंजलि – भाई के सपनों की जिम्मेदारी

अंजलि को भाई की आंखों में पीड़ा, त्याग दिखी तो वह खुद को संभाल न सकी—भाई के कहने पर ऐलाइड सेवा छोड़कर, कानून की पढ़ाई की, संकल्प लिया “अब मैं जज बनूंगी, ताकि किसी हरनाम सिंह की ताकत किसी बेकसूर के आंसू न बढ़ा सके।” रोहन ने खुद गांव में स्कूल खोल लिया, बच्चों को पढ़ाया, बहन की पढ़ाई संभाली—कलेक्टर बनने का सपना अब गांव के बच्चों की आँखों में बोया।

समय बीता – दस बरस। अंजलि जज बनी, पहली पोस्टिंग अपने ही जिले में। गांव भर में उत्सव, डोल, बधाइयां—लेकिन रोहन की सादगी वैसे ही बरकरार।

त्याग का उजागर होना

जज बनकर लौटी अंजलि के स्वागत में समारोह। गांव मास्टर रोहन का मान बढ़ाने लगा, लेकिन कुछ लोगों की जुबान पर तंज भी थे। उस दिन, बूढ़ा हार चुका हरनाम सिंह भी आया—रोहन को ताना मारा, “अच्छा हुआ बच्चा, मेरी बात मान ली। तेरी बहन कम से कम जज बन गई, तू क्या कर लेता?”

अंजलि ने सुन लिया। शक, सवाल, और जज की सख़्ती—रोहन की आंखें नम, लेकिन वह चुप रहा। आखिरकार, पिता ने 10 साल पुरानी वह सच्चाई उजागर की—कैसे रोहन ने त्याग कर परिवार की अस्मिता बचाई।

पुनर्मिलन – दिल को छू लेने वाला दृश्य

भीड़ के सामने, जज साहिबा अपनी वर्दी भूल गई—दौड़कर भाई के पैरों पर गिर गई, रोते हुए बोली, “भैया, असली जज तुम हो। तुम्हारे त्याग के सामने ये कुर्सी, ये सम्मान कुछ भी नहीं।”

गांव की आंखें नम, मास्टर का सिर गर्व से ऊँचा, उसकी बहन, अब जज, अपने भाई से सिफारिश मांग रही थी।

समय ने सिखा दिया—त्याग, प्रेम, रिश्ते – यही असली पदवी है। आज भी अंजलि हर फैसला लेते समय अपने भाई के त्याग को याद करती है—और इसी से उसे सही-गलत का फर्क समझ में आता है।

रोहन कहता, “मैंने सिर्फ एक कुर्सी छोड़ी थी, लेकिन अपनी बहन में देश का सबसे बड़ा इन्साफ देख लिया।”

सीख

रिश्ते और प्यार से ज्यादा कोई पद, कोई मान-सम्मान नहीं… असली जीत वही जो अपनों की नजरों में बड़े बना दे। कभी कभी, छोटा बनना ही सबसे बड़ी उपलब्धि बन जाती है। त्याग का शिखर और इंसानियत का ताज ऐसे प्रेरणादायक चरित्रों से ही कायम है।

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